-अशोक गौतम

मित्रों के लट्ठ के आगे हमेशा टूटता रहा हूं। अब के फिर टूटा। लट्ठी मित्र विगत दस दिनों से लट्ठ लिए बैठे थे कि अब के दशहरा देखने चलेंगे। रावण दहन देखेंगे। डरा भी! जुम्मा-जुम्मा तो पुलिस विभाग की कुर्सी पर बैठे शान से खाने का सुअवसर मिला है, और यह एक लुच्चा मित्र है कि जलता रावण दिखा मुझे पथ भ्रष्ट करना चाहता है। कैसा कलयुगी मित्र है ये? भगवान् कलियुग में सब को सब कुछ दे पर ऐसे परम स्नेेही मित्र न दे। मित्र मुझ से वायदा लेकर गुज़रा तो पत्नी पर शंका हुई, ‘हे प्रिय! कहीं तुमने पड़ोसी मित्र की पत्नी को यह शुभ समाचार तो नहीं सुना दिया कि मैंने भी अपने पद का सदुपयोग करते हुए बहती गंगा में नहाना शुरू कर दिया है।’

‘मैं यह सच क्यों कहूंगी? भरा हुआ घर किस औरत को अच्छा नहीं लगता। पुलिस विभाग वाला पति तो सौ पतियों को प्राप्त करने के बाद नसीब होता है, प्रिय। मैं तो भगवान् से बस यही प्रार्थना करती हूं कि यदि आप पत्थर पर भी डंडा मारें तो उससे भी नोट बरसें। आप ईमानदारों को पीट-पीट कर अपनी शूरवीरता छपवाते रहो।’ कानून हमारे घर में झाड़़ू-पोंछा करता रहे। नम्बर दो की कमाई से हमारे भंडार भरे रहें। कहते श्रीमति ने हाथों की आठ तोले की सोने की चूड़ियां खनकाईं तो एक बार फिर अपने महकमे पर गर्व हुआ। भगवान् चौरासी लाख जन्मों के बाद ही सही, हर जीव को पुलिस विभाग में काम करने का सुअवसर प्रदान करें। इस नौकरी के बाद किसी दूसरे महकमे में निष्ठावान बनने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। जीव मोक्ष पद को सीधे प्राप्त होता है।

दशहरे की सुबह ही मित्र का फ़ोन आ धमका। मैं अपनी जोरू को मना सकता हूं पर अपने इस मित्र को नहीं। यह मित्र एक बार हाथ धोकर पीछे पड़ गया तो पड़ गया। आप पागल कुत्ते से पीछा छुड़ा सकते हैं लेकिन इस महाशय से नहीं। चिपकेगा तो जोंक की तरह भले ही आप में तोला भर खून भी न हो। कमेटी का सड़ा पानी भी जिस्स में नहीं छोड़ेगा।

‘दोस्त, तैयार हो?’ मौत आख़िर आ ही टपकी। सीना यूं चौड़ा किए मानो रावण को मुखाग्नि राम नहीं, ये महाशय ही देंगे।

‘कहां के लिए?’ मैंने डिपार्टमेंटली अंदाज़ में पूछा।

‘कोठे जाने की तो अब उम्र नहीं रही, वो दशहरा….’

‘धत् तेरे की…..’ यमराज भूल सकता है, पर ये कमबख़्त नहीं। आग लगे मुए की याद्दाश्त को।

‘चल उठ जल्दी तैयार हो जा!’ आख़िर यमराज के साथ तैयार होना ही पड़ा। हालांकि वर्मा अपने झूठे केस के पुख़्ता सबूत लेकर आने को कह गया था ताकि मैं उसे न्याय दिलवा सकूं।

आधे घंटे बाद हम दोनों दशहरे में पहुंचे महंगाई के दौर में भी रावण इतना बड़ा! धन्य हैं वो दानी सज्जन जिन्होंने अपने पेट पर लात मार कर चन्दा दे इतना बड़ा रावण बनवाया था।

‘आगे-आगे चल।’ मित्र धक्का दिए जा रहा था। आख़िर उसने मुझे रावण के साथ खड़ा कर के ही सांस ली।

‘राम कहां है? कहीं…..’

‘वो बियर-बार में बैठे होंगे।’ किसी ने ठहाका लगाया तो इन नवरात्रों में गिरधारी को भेंट की देशी याद आई। काम भी कौन-सा ख़ास था जो अंग्रेज़ी देता। जनता बहुत चुस्त हो गई है, भाई साहब आजकल। काम देखकर रिश्वत देती है। ….. अचानक रावण से नयना चार हुए तो देखा वह रो रहा था। मैं द्रवित हो पूछ बैठा, ‘तो क्यों किया था वो सत्कर्म कि आज भी तुम्हें…..’ यह सुनते वह मूर्छित होते-होते बचा।

 ‘मैंने तो सीता को इसलिए उठाया था कि महलों में रहने वाली वन में कैसे रहेगी? मैंने सीता का हरण इसलिए किया था कि ….. परन्तु आज यहां जितने खड़े हैं न, मूछों पर ताव देते हुए, सब मुझ से बड़े रावण हैं। किसी ने ईमानदारी का हरण किया है तो किसी ने आदर्शों का। किसी ने देशभक्ति का हरण किया है तो किसी ने देश का। पता नहीं आज का न्याय कहां सो गया? युगों पूर्व एक नारी को मात्र कहानी में उठाने की आज तक सज़ा? परन्तु जो लोग सच में मुहल्ले भर की औरतों, बेटी समान कन्याओं का हरण किए फिरते हैं वे आज भी राम की सेना में शामिल हैं।’ अचानक मेरा ध्यान उसके थोबड़े पर गया, ‘बस एक ही! देश की तरह रावण बनाने वाले भी जल्दी में थे क्या? आग लगे ऐसी जल्दी को जो, नाश का सत्यानाश करके रख दें।’

‘महाशय आप तो दशानन थे न? फिर अब के…..’

‘वो क्या है न भईया! पुलिस तपस्वी ने एक सिर ले लिया, एक राजस्व विभाग वाले ले गए। एक की आबकारी विभाग वालों ने फ़रमाइश की तो इन्कार न कर सका। एक क्रिकेट वाले ले गए। एक मास्टर जी ने मांगा है, वे तो गुरू हैं तो क्या उन्हें इन्कार करता? एक मन्दिर के पुजारी ले गए। एक महिला कल्याण मंत्री जी ने मांग लिया। एक लोक निर्माण विभाग वाले ले गए।’

‘और, एक और?’

‘पड़ोस के नए-नए एम. पी. हुए हैं न! गिड़गिड़ाए तो भला कैसे इन्कार करता? संसद जो जाना था। अगर यूं ही मेरे चेहरे की मांग बढ़ती रही तो अगले दशहरे में हम तुमसे बिना सिर के ही मिलेंगे बाबू।’ रावण रोने लगा तो मुझे भी रोना आ गया। दुखिया की पीड़ा दुखिया जाने, और न जाने कोए। ‘रोते क्यों हो भाई? हम मर गए क्या? तुम्हारी एक सूरत तो हर हाल में बचा के रखेंगे। ये वायदा रहा।’

‘तुम धन्य हो भईया!’ रावण का मन कुछ हलका हुआ तो अपने आंसू पोंछ कर बोला- ‘रावण खुश हुआ मित्र! भगवान् तुम्हें खूब छूट दे।’ तभी न जाने किस छोर से मंत्री जी आए और रावण जलने लगा। देखते ही देखते रावण दहन पर रावण झूमने लगे। भगवान् रावण को मोक्ष प्रदान करें ताकि अगले दशहरे को हम जैसे रावणों के पटाखों से समाज दांतों तले उंगली दबाए हा-हा कार करता हुआ घरों के कोनों में जा छुपे।

 

One comment

  1. An interesting discussion is price comment. I believe that you must write more on this matter, it might not be a taboo subject however generally individuals are not enough to speak on such topics. To the next. Cheers

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