रात का खाना समाप्त होते ही रोज़ की तरह धरम टैरेस में टहलने चल दिए और वह जूठे बरतन समेटने में व्यस्त हो गई। बच्चे अपनी मौसी के घर गए हुए हैं वरना वे भी टैरेस में बतियाते रहते। दोनों बच्चे आपस में ही बातें करते हैं, अपने पापा से उनकी कम ही बात होती है। वे अपने पापा की गंभीरता को तोड़ना नहीं चाहते हैं। इसके विपरीत, वह चाहती है कि बच्चे उससे और अपने पापा से ढेर सारी बातें करें। जैसे जब वे बहुत छोटे थे तो अपनी तोतली ज़ुबान में बातें किया करते थे। अब बच्चे आपस में बातें करते हैं, थोड़ी देर टैरेस में टहलते हैं और फिर अपने कमरे में जाकर पढ़ाई में जुट जाते हैं। बच्चों के पापा यानी धरम बच्चों के जाने के बाद जेब से एक सिगरेट निकाल कर पीते हैं। किचन की खिड़की से उसे दिखाई दिया करता है सिगरेट का धुआं? वह इस दृश्य की इतनी आदी हो चुकी है कि जब धरम दौरे पर किसी दूसरे शहर गए हुए होते हैं तब भी उसे लगता है कि टैरेस पर सिगरेट के धुएं की हल्की परत तैर रही हो।

जब तक उसे अपने किचन के कामों से फ़ुर्सत हो पाती है, धरम किसी फ़ाईल, किसी पत्रिका या किसी स्वप्न में खो चुके होते हैं। वह जब थकी-थकाई आकर बिस्तर पर लेटती है तो उसे लगता है कि धरम अपना सब कुछ भूल कर उसे ढूंढ़ निकाले। मगर ऐसा कुछ नहीं हो पाता है। वह करवट बदल कर सो जाया करती है। जब कभी धरम के मन में दैहिक इच्छाएं जागती हैं तब भी सब कुछ किसी “ट्रीटमेंट” की भांति घट जाता है। ऐसे समय में अपने आप से पूछना पड़ता है कि क्या यही वह इंसान है जिसके साथ वह हनीमून पर गई थी? साफ़-साफ़ उत्तर न मिलने पर अपना वजूद ही बदला हुआ लगता है।

उसका सामाजिक जीवन कोई बुरा नहीं है। कहना चाहिए कि बहुत ही उम्दा स्थितियों से गुज़र रहा है। धरम किसी भी उत्सव या पार्टी में उसके बिना जाना पसंद नहीं करते हैं। उसे नौकरी करने की आज़ादी है। वह अपने दफ़्तर में चाहे जितना समय दे सकती है। किसी भी सहकर्मी के साथ आ – जा सकती है। उन्हें अपने घर पर दावत दे सकती है। चाहे तो बच्चों को लेेेकर शॉपिंग या फ़िल्म देखने जा सकती है। अपने लिए साड़ी – कपड़े और गहने ले सकती है। उसकी इस खुशक़िस्मती को देख कर उसके दफ़्तर की औरतें मन ही मन उससे ईर्ष्या करती हैं। कभी-कभी यह ईर्ष्या उनकी ज़ुबान पर भी आ जाया करती है।

“काश, सभी औरतों को धरम जी जैसा पति मिला करता।”

“हां, हम भी रानियों-सा सुख भोगतीं।”

तंज भरे ये संवाद पहले उसे बड़ा सुकून देते थे किन्तु अब उसके भीतर एक ख़ालीपन उकेर जाते हैं। वह फीकी-सी हंसी हंस कर रह जाया करती है। उसकी शादी हुए बारह साल हो चले हैं। शादी के पहले और शादी के बाद दो-तीन साल तक वह सोचती थी कि उसके और धरम के संबंध सदैव इसी प्रकार जीवन्त रहेंगे। ऊर्जा से भरे रहेंगे। वह पत्नी हो कर भी प्रेयसी बनी रहेगी और धरम पति होकर भी प्रेमी बने रहेंगे। उसे तब यह पता नहीं था कि यह ऊर्जा किसी दिन ख़त्म हो जाएगी। उनके संबंध शयनकक्ष में पहुंच कर भी औपचारिक होते चले जाएंगे।

वह जब कभी अपने दफ़्तर की महिलाओं को “लंच” के समय अपने-अपने घरेलू मामलों पर चर्चा करते सुनती तो उसका भी जी करता कि इन औरतों के सामने अपने मन का पिटारा खोल कर रख दे। उनसे पूछे कि वह अपने और धरम के संबंधों को कैसे पुनर्जीवित करे। उनमें कैसे नयी ऊर्जा भरे। सच्चाई तो यह है कि वह अपने जीवन में समाती जा रही संवादहीनता को दूर करना चाहती है। उसे एक बिस्तर के दो किनारों पर सांसें लेने वाला शयनकक्ष नहीं चाहिए। वह सारी व्यवस्थाएं बदल देना चाहती है। वह इन सबको लेकर इतनी अधिक चिंतित है कि उसने बचकाने उपाय भी ढूंढ़ने का प्रयास कर डाला। हुआ यह कि उसने किसी टी.वी. चैनल पर ‘पति, पत्नी और वो’ संजीव कुमार वाली पुरानी फ़िल्म देख ली। यूं तो यह फ़िल्म उसकी देखी हुई थी मगर अब उसका नज़रिया दूसरा ही था। उसने महसूस किया कि उस फ़िल्म का हीरो घर के बाहर एक अन्य औरत से संबंध रखता है और उसे छिपाने के लिए घर में भी जोश और उमंग का वातावरण बनाए रखता है। फ़िल्म देखकर उसे लगा कि यदि धरम भी किसी और औरत में रुचि लेने लगे तो शायद उसे भी बदले में वैसा ही जोश और उमंग मिलने लगे।

एक औरत होते हुए उसका ऐसा सोचना बेशक असामान्य था। भला कौन औरत चाहेगी कि उसका पति किसी और के चक्कर में पड़े। किन्तु असहनीय हो चली घुटन ने उसे ऐसा चाहने पर भी विवश कर दिया। वह एक बार सिर्फ़ एक बार और जी भर कर जीना चाहती है। चाहे किसी भी क़ीमत पर।

उसने धरम से आग्रह किया कि वह अपने दफ़्तर की फलां महिला सहकर्मी को खाने पर घर बुलाएं। एक औरत, दूसरी औरत को आमंत्रित कर रही हो तो इसमें अजीब लगने जैसा कुछ नहीं लगा धरम को। धरम ने उसके कहने पर अपने दफ़्तर की स्टेनो-टाइपिस्ट सुरेखा को खाने की दावत दी। सुरेखा घर आई। यदि सामान्य स्थिति होती तो उसे सुरेखा का घर आना शायद उतना अधिक नहीं भाता। जितना कि इस स्थिति में भाया। उसने बड़ी आवभगत की सुरेखा की। खाना गरम करने, बच्चों को देखने और अंत में टैरेस में भी धर्म और सुरेखा को अकेले रहने का भरपूर मौक़ा दिया। यहां तक कि सुरेखा को अपनी गाड़ी से घर तक पहुंचा आने का आदेश भी उसने धरम को दे डाला। इस सब के बाद उसने दो-तीन दिन तक प्रतीक्षा की धर्म में परिवर्तन आने की किन्तु परिवर्तन की एक भी लहर उसे महसूस नहीं हुई। अंततः उसने धरम से पूछा, “सुरेखा आजकल छुट्टी पर है क्या?”

“नहीं तो। क्यों?” धरम ने जवाब देते हुए पूछा।

“उससे तुम्हारी बात-चीत नहीं होती है क्या?”

“कैसी बात-चीत?”

“मेरा मतलब, किसी भी प्रकार की?”

“होती है न, आज ही मैंने उसे टोका था। उसे एक पेपर टाइप करने को दिया था जिसमें वह एक लाइन भी सही टाइप नहीं कर पाई थी।”

“क्यों? वह तो एक अच्छी टाइपिस्ट है।”

“हां, है तो। हो सकता है आज उसका ध्यान कहीं और रहा हो।”

“कहीं और ध्यान, क्या मतलब?” वह उत्साहित हो उठी थी।

“हां, शायद उसका एक लड़का है जो बोर्डिंग में है। हो सकता है उसी को लेकर कोई परेशानी हो।” धरम ने बताया।

“लड़का? सुरेखा शादीशुदा है?” वह चकित रह गई थी।

“क्यों, तुम्हें नहीं पता था क्या? अरे हां, उस दिन तुम तो किचन में ही ज़्यादा व्यस्त रही। तुम उससे अधिक बातें ही कहां कर पाई। जबकि बुलाया तुम्हीं ने था उसे।” धरम एक सांस में कह गए।

“हां, बुलाया तो मैंने ही था उसे।” उसने स्वीकार किया।

“चाहो तो तुम उसके घर हो आना।” धरम ने सामान्य स्वर में कहा था।

“नहीं, तुम्हीं पूछ देखना।”

“मेरा पूछना अच्छा नहीं लगेगा। फिर वह तो तुम्हारी बड़ी तारीफ़ करती है। दूसरे दिन ही कह रही थी कि भाभी जी के जैसा लज़ीज़ खाना बनाना तो मुझे भी नहीं आता है।” धरम के मुंह से यह बात सुन कर कुढ़ गई वह। आख़िर वह अपनी तारीफ़ थोड़े ही धरम की तारीफ़ सुनना चाहती थी, सुरेखा के मुंह से। और यह जानकर कि सुरेखा शादीशुदा ही नहीं बल्कि एक बच्चे की मां भी है। ऐसी मां जो अपने बच्चे के लिए चिंतित रहती है। उसे ग्लानि हुई अपने आप पर और अपनी योजना पर। उसे स्वार्थवश यह ख़्याल ही नहीं आया कि सुरेखा का भी अपना कोई परिवार या अपनी कोई ज़िंदगी हो सकती है। उसे भला क्या हक़ है कि अपनी ज़िंदगी को संवारने के लिए किसी दूसरे की ज़िंदगी के साथ खिलवाड़ करे। उसने फिर कभी भी सुरेखा का नाम अपनी ज़ुबान पर नहीं आने दिया।

उसे वह अब तक हासिल नहीं हुआ था जो वह चाहती थी। वह नित्य नए-नए उपाय सोचती रहती। इसी दौरान उसने कहीं पढ़ा कि पुरुषों के दिल का रास्ता पेट से होकर गुज़रता है। बस, फिर क्या था, उसने रोज़ नए-नए व्यंजन बनाने शुरू कर दिए। इसके लिए उसने टी. वी. के “रेसिपीज़ प्रोग्राम” देखे, पत्रिकाओं के व्यंजन विशेषांक बटोरे और एक सप्ताह की छुट्टी भी अपने दफ़्तर से ले डाली। उसे अपना श्रम कुछ-कुछ फलीभूत होता हुआ भी लगा। धरम ने उसके व्यंजन कौशल की भरपूर तारीफ़ की। बच्चे तो स्कूल से लौट कर सीधे किचन में घुसने लगे ताकि पता लगा सकें कि मम्मी आज क्या नया पका रही हैं। नन्हीं श्वेता ने एक दिन उत्साहित होकर पूछा, “मम्मी, मैं आपकी मदद करूं?”

“नहीं, तुम लोग स्कूल से थक कर आए हो। नाश्ता करो और जाकर खेलो।”

“मम्मी, आप घर पर ही क्यों नहीं रहती?” उसके बेटे निशांत ने डरते-डरते पूछ ही लिया था।

“तुम लोग क्या यही चाहते हो?” उसने निशांत से पूछा।

“नहीं, यूं ही पूछा।” शायद डर कर निशांत चुप रह गया और खेलने भाग गया।

“उस क्षण उसे लगा था कि काश, धरम भी एक बार उससे कहते कि तुम घर पर क्यों नहीं रहती?” तो वह तत्काल अपना इस्तीफ़ा लिखकर दफ़्तर भेज देती। उसे लगा कि शायद धरम को संकोच हो रहा हो ऐसा कहने में। इसलिए उसने खुद ही “डिनर” के समय धरम से पूछा, “यदि मैं नौकरी छोड़ दूं और इसी प्रकार हमेशा घर पर रहूं तो?”

“मुझे कोई आपत्ति नहीं है लेकिन फिर शिकायत मत करना कि घर में पड़ी-पड़ी बोर हो जाती हूं।” धरम ने गंभीर लहज़े में जवाब दिया था।

“मुझे नहीं लगता कि मैं बोर होऊंगी और फिर बच्चों का भी यही मन है। उसने तर्क दिया था।?”

“बच्चे?” धरम हंस दिए थे, ‘उनको बढ़िया-बढ़िया खाने को जो मिल रहा है। उम्र के साथ बच्चों की व्यस्तताएं बढ़ती जाएंगी फिर क्या करोगी?’

यह सुन कर उसका चेहरा उतर गया था।

“यदि तुम चाहती ही हो तो ऐसा करो कि छुट्टियां बढ़ा लो। एक-दो माह घर पर रह कर देखो। फिर निर्णय लेना।” धरम ने उसके उतरे हुए चेहरे को देखकर सुझाव दिया। उसे भी सुझाव पसंद आया। जब धरम को उसके घर पर बने रहने, न रहने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है तो वह जल्दबाज़ी क्यों करे?

“एक माह में ही उसे यह सोच कर, महसूस कर तसल्ली हुई कि उसने धरम की बात मानकर बुद्धिमानी से काम लिया था। अगर वह जल्दबाज़ी में आकर इस्तीफ़ा दे बैठी होती तो उसे पछताना पड़ता।”

शायद सभी का वैवाहिक जीवन ऐसा ही होता हो। वह अपने दिल को जितनी भी तसल्ली देने का प्रयास करती उतना ही उसका दिल चीख-चीख कर कहता कि नहीं सब का वैवाहिक जीवन ऐसा नहीं होता है। इसी विचार के चलते, एक दिन उसने “लंच” के समय साहस करके बात छेड़ी, “शादी के बाद शुरू-शुरू में तो बड़ा उत्साह रहता है फिर संबंधों में ठंडापन क्यों आने लगता है?”

“सो तो है। मगर तुम क्यों चिंता कर रही हो, तुम्हारे साथ तो ऐसा नहीं है।” “धरम जी तो बड़े वो हैं” इरफ़ाना ने कहा था और बाक़ी सब भी यह सुन कर हंस पड़ी थीं। इरफ़ाना के भाव में तंज नहीं अपितु एक विश्वास झलका था।

“बस, यूं ही पूछा। आस-पास यही सब तो दिखाई पड़ता रहता है।” वह सम्भल कर बोली थी।

“भई, पुनर्मिलन का फ़ॉर्मूला पूछना हो तो ज्योति से पूछो। क्यों ज्योति?” इरफ़ाना ने शरारत भरा इशारा करते हुए ज्योति को टहोका मारा था।

“तूने ही तो बताया था। अब मुझसे क्या पूछती है।” ज्योति ने भी हंस कर जवाब दिया।

“कौन-सा फ़ॉर्मूला?” वह उत्तेजना से भर उठी थी।

“अरे, कुछ ख़ास नहीं।” वही प्रेमिका का रोल निभाने का फ़ॉर्मूला। ज्योति ने रहस्य पर से पर्दा उठाते हुुुुए कहा।

“मैं समझी नहीं।” वह वाक़ई नहीं समझ पाई थी।

“तुम्हें समझने की ज़रूरत भी क्या है। वह तो हम जैसों को पड़ती है जिनके पति-परमेश्वर ऊबने लगते हैं अपनी बीवी से।” ज्योति उसके चेहरे पर नासमझी के भाव देखकर बोली, “ये फ़ॉर्मूला इरफ़ाना का बताया हुआ है। चलो, तुम्हें भी बताए देती हूं। यदि कभी काम आए तो हम दोनों को दुआएं देना।”

वह मुस्कुरा दी थी।

“जब मुझे महसूस होने लगा कि हमारे संबंधों में ठंडापन आने लगा है तो मुझे घबराहट होने लगी। मैंने एक दिन इससे पूछा। इसने कहा कि तुम सिर्फ़ बीवी बनकर रह गई हो इसीलिए सब गड़बड़ है। बस, फिर मैंने अपने आप को तोला तो मुझे लगा कि बात सही है। तब से मैंने अपने आपको बदलना शुरू कर दिया। इसका फ़ॉर्मूला फिट बैठा वरना मुझे तो लगा था मुझसे ऊब चले मेरे पतिदेव कहीं और ठौर-ठिकाना न ढूंढ़ने लगें।” यह कह कर ज्योति खिल-खिलाकर हंस पड़ी थी।

उसे भी हंसी आ गई थी लेकिन यह सोच कर कि धरम तो किसी और ठौर-ठिकाने पर खुद ही जाना नहीं चाहता है। उसने सोचा कि चलो, यह भी आज़मा कर देख लिया जाए। उसने अपनी शादी के शुरू-शुरू के दिनों को याद किया। बड़ी बारीकी से याद किया। उन दिनों धरम की क्या पसंद-नापसंद थी, यह भी टटोला। फिर दफ़्तर से लौटते समय बाज़ार होती हुई आई।

किचन का काम निपटाने के बाद उसने खिड़की पर नज़र डाली। धरम की सिगरेट का धुआं विलीन हो चुका था सिर्फ़ गंध बाक़ी थी। जिसे उसकी नाक महसूस कर रही थी। इसका मतलब था कि धरम बिस्तर पर जा चुके थे। वह शीघ्रता से कमरे में गई और अलमारी खोल कर उसने एक पैकेट निकाला और झपट कर बाथरूम में घुस गई।

शावर लिया। बदन को तौलिए से सुखा कर हल्का परफ्यूम लगाया। फिर पैकेट खोल कर उस गुलाबी रंग की नाईटी को निकाला जो उसने शाम को दफ़्तर से लौटते समय ख़रीदी थी। उसने नाईटी पहनी। बालों को संवारा। आईने में खुद को देख कर उसे महसूस हुआ कि मानों उसके बारह वर्ष पुराने दिन लौटने ही वाले हैं। वह लजा गई। धड़कते हुए दिल से वह बाथरूम से बाहर आई। धरम करवट लेकर लेटे हुुुुए थे। चेहरा दूसरी ओर था। वह जाग रहे हैं या नहीं, समझ नहीं पाई।

धीरे-धीरे क़दम बढ़ाती पलंग के पास पहुंची। उसे उम्मीद थी कि परफ्यूम की सुगंध से आकर्षित होकर धरम करवट बदल कर उसकी ओर देखेंगे। लेकिन यह नहीं हुआ। उसने देखा धरम सो चुके थे। पल भर के ऊहा-पोह के बाद उसने धरम की बांह पर हाथ रखा ताकि वह जाग जाएं। धरम जाग गए। चकित नज़रों से उसकी ओर देखा और मुस्कुरा कर उसे खींच कर अपनी बांहों में भर लिया। उसका मन खिल उठा। उसने इठलाते हुए कहा, “सिर्फ़ एक बार और, धरम। एक बार और।”

धरम चकित थे। उसकी यह अदा, यह अभिलाषा चकित कर देने वाली थी। क्योंकि धरम अब भी नहीं समझ पाए थे कि सिर्फ़ इस एक रात के लिए नहीं है उसकी यह अभिलाषा, वह तो शेष ज़िंदगी में अपनी पिछली ज़िंदगी को एक बार और जी लेना चाहती है। पर उसे लग रहा है कि वह शायद सफल हो गई।

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