नारी सशक्तितकरण व महिला दिवस की बातें, वुमन्स लिब की बातें सुनते-सुनते जैसे एक युग बीतने को है। ऐसा भी नहीं कि ये खोखली बातें हैं नारी की उपलब्धियां, उसके नए आयामों का विस्तार, हर क्षेत्र में पुरुष के समक्ष डट कर खड़ी होने के उदाहरण हमारे सामने हैं। लेकिन फिर भी कुछ बातें ग़ौरतलब हैं।

क्या ये उपलब्धियां उसको अपना सुकून खोने की क़ीमत चुका कर तो हासिल नहीं हुई? क्‍या हर क्षेत्र में आने के बाद आज नारी वाक़ई बेहतर स्थिति में है? एक तरफ़ घर के काम का बोझ दूसरी तरफ़ बाहर की दुनिया के साथ संघर्ष। इतने संघर्ष के बाद भी क्या उसका महत्त्व बढ़ पाया है? उसका अस्तित्त्व स्वीकार्य हो पाया है? अपने खुद के फ़ैसले करने में आज वो सक्षम हो पाई है?

बड़े घरों की सजी-धजी नारियां जो नारी उत्थान की, वुमन्सलिब की बातें करती हैं कब तक हम उम्मीद उन पर टिकाए रखेंगे। क्या एक साधारण नारी के दर्द को महसूस करने का सामर्थ्य वाक़ई उनके पास है? आम मध्यम-वर्गीय महिलाओं को, साधारण घरों की महिलाओं को अपनी आवाज़ स्वयं बुलंद करनी होगी।

यूं हर किसी को सहते जाना, हर किसी से दबते जाना उसकी नियति नहीं। दूसरों के सम्मान, दूसरों की इच्छाओं से भी पहले उसका फ़र्ज़ है कि अपने अंदर आत्मसम्मान पैदा करे। अपने व्यक्तित्व को स्वयं उसने निखारना है। उच्च शिक्षा खुद अपने बल पर हासिल करनी है। अन्याय का विरोध करने का साहस पैदा करना है। जब तक वो अपना दब्बूकपन छोड़ कर खुद में साहस पैदा नहीं करेगी, कोई कुछ नहीं कर सकेगा। आज के युग में जो नारी की दुर्गति हो रही है वो पहले कभी भी नहीं हुई। महिलाओं के साथ होने वाले अनाचारों, दुराचारों, अत्याचारों, उत्पीड़न में लगातार वृद्धि हो रही है। उसको घर से बाहर और नि:संदेह अपने घर में भी संघर्ष करना है ताकि उसका आत्मसम्मान क़ायम रह सके।

घर और बाहर दोहरी भूमिका निभा रही आज की नारी का न तो घर में महत्त्व बढ़ा है न घर के बाहर उसे अपेक्षित सम्मान मिल रहा है। बल्कि उससे अपेक्षाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। एक मशीन की तरह दिन-रात खटने वाली नारी को अपना अस्तित्त्व स्वीकार्य कराना होगा। उसे अपना महत्त्व बनाना होगा। उसे हर छोटे-बड़े फ़ैसले में भागीदार बनना है। उसकी ज़िंदगी उसकी अपनी है उसने अपना मूल्य पहचानना है। उसके ज़िंदगी के बारे में हर फ़ैसले पर उसका पूर्ण अधिकार है जिसमें बच्चे को जन्म देने की स्वीकृति, अस्वीकृति भी आती है।

महिला शोषण के ख़िलाफ़ उसे स्वयं आवाज़ उठानी होगी। साधारण स्त्री का दु:ख, दर्द, घुटन स्वयं साधारण स्त्री ही उजागर कर सकती है। उसको आत्मसम्मान से, स्वतंत्रता से जीना आना चाहिए। स्वतंत्रता का अर्थ है अपने जीवन पर उसका पूर्ण अधिकार। लेकिन आजकल स्वतंत्रता के ग़लत मायने निकाले जा रहे हैं। स्वतंत्र रहने का अर्थ उच्छृंखलता नहीं। स्वतंत्र जीवन का अर्थ अमर्यादित जीवन नहीं।

औरत की एक और बड़ी त्रासदी है‍ कि अमीर औरतों के बाद औरत का प्रतिनिधित्व करने वाली ‘सो कॉल्ड बोल्ड’ औरतें हैं जिनका भावुकता से दूर-दूर तक नाता नहीं। औरत को औरत का दुश्मन कहने वाली ये महिलाएं ही इस बात की पुष्टी करती नज़र आती हैं क्यूंकि वही सबसे अधिक महिलाओं के साथ दुश्मनी निभाती हैं। जिन्होंने समाज की बंदिशों को नहीं माना क्या वे एक आम मध्यम वर्गीय महिला का दर्द, घुटन महसूस करने का सामर्थ्य रखती हैं?

जब कभी भी सही मायने में साधारण घरों की स्त्रियों के हक़ में प्रयत्न होते हैं तो उनके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले कुकुरमुत्तों की भांति जगह-जगह खड़े हो जाते हैं। पहले तो आवाज़ उठाने वालों में ख़ास कर लेखकों में पुरुष अधिक होने के कारण औरत की आवाज़ दबती रही। जब कोई औरत आवाज़ बुलंद करने में सक्षम हुई तो समाज की बंदिशों को तोड़ कर। लेकिन समाज के रीति-रिवाज़ों को मानते हुए इस समाज का अभिन्न अंग बन कर रीति-रिवाज़ों में जो बुराइयां हैं उनके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने से ही बुराइयां दूर हो सकती हैं। इनसे कट कर तो इन बुराइयों से कभी भी मुक्ति न होगी बल्कि कुछ अन्य ग़लत धारणाएं ज़रूर पनपेंगी। ये रास्ता‍ कठिन ज़रूर है, लम्बा भी है पर यही सही रास्ता है।

हम जिन राहों पर चलेंगे सब हमारे साथ होंगे। हमने हाथ बढ़ाया है तुम थाम लो। आओ कि संग चलें, संग सब को लेकर चलें राहें पुकारती हैं।

-सिमरन

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