insaf k mandir mein                                                                                                                                                                                                                             – डॉ. धर्मपाल साहिल

“जंगल में एक गाय भागी जा रही थी। एक हाथी ने उसे रोक कर, उस के भागने का कारण पूछा तो गाय ने कहा, ‘सरकार ने जंगल की सभी भैंसों को पकड़ने के आदेश जारी किये हैं?’

‘पर तू तो गाय है, फिर क्यों भाग रही है?’

‘मुझे मालूम है पर अगर उन्होंने मुझे पकड़ लिया, फिर मुझे अदालत में यह साबित करने के लिए कि मैं भैंस नहीं हूँ, लगभग २० साल लग जाएंगे।’ यह सुनते ही हाथी ने भी गाय के साथ भागना शुरू कर दिया।” सचमुच हमारी न्यायपालिका की कार्यकुशलता पर इस से तीखा व्यंग्य और क्या हो सकता है।

किसी भी देश में अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए पुलिस एवं न्यायपालिका की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जब किसी व्‍यक्‍त‍ि के साथ अतिक्रमण अथवा अन्याय होता है तो वह ‘अदालत’ के दर पर दस्तक देता है। वह इस आशा के साथ इंसाफ़ के मन्दिर में पहुँचता है कि उसे अपने साथ हुए अन्याय के प्रति न्याय अवश्य मिलेगा। पर वह एक बार वकीलों, मुन्शियों, रीडरों, नायब कोर्टों, अहलमदों, रिकॉर्डकीपरों तथा जजों के बुने मकडज़ाल में ऐसा फंसता है कि वह चाहते हुए भी उस में से बाहर नहीं निकल पाता। बल्कि वह अदालती कार्रवाई की दलदल में ऐसा धंसता है कि बाहर निकलने की कोशिश में दिनों-दिन और गहरे धंसता चला जाता है कि काली दाढ़ी लेकर अदालत में गया आदमी सफ़ेद दाढ़ी ले कर बाहर आता है या फिर कई बार अदालती फ़ैसले उस के नाती-पोते सुनते हैं। इस लम्बी प्रक्रिया में वह इतना कुछ खो बैठता है कि केस जीत कर भी वह स्वयं को हारा हुआ ही महसूस करता है।

insaf k mandir mein1वास्तव में हमारी न्याय प्रणाली, सबूतों और गवाहों पर आधारित होती है। जुर्म करने वाला झूठे गवाहों या सबूतों की कमी के कारण आसानी से बच जाता है। ज़ुल्म सहने वाला सबूतों /गवाहों की कमी के कारण न्याय से वंचित रह जाता है। इस लिए कई बार वकीलों की सलाह से झूठे सबूत एवं गवाह तैयार करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। पैसे के बल पर कई पेशेवर गवाह भी मिल जाते हैं तथा सबूत भी पैसे के बलबूते पर तैयार कर लिए जाते हैं, इस प्रकार मुक़द्दमे की इमारत ही झूठ की नींव पर निर्मित होनी शुरू हो जाती है। मुवक्किलों व गवाहों को झूठे ब्यान रटाए जाते हैं। ब्यान बोले क्षेत्रीय भाषा में जाते हैं, टाईप अंग्रेज़ी में किये जाते हैं। मुवक्किल विश्‍वास कर के अंगूठा या दस्तख़त चिपका देता है। वकीलों की बहस, जजों के फैसले अंग्रेज़ी में होते हैं, मुवक्किल पास खड़ा टुकुर-टुकुर उनकी ओर देखता रहता है। किस ने क्या उसके हक में कहा, किसने क्या विरोध किया, क्या दलीलें दीं, जज ने क्या समझा, क्या करने को कहा, उस कम पढ़े-लिखे व्‍यक्‍त‍ि की समझ से परे रहता है।

विरोधी पक्ष, केस को लटकाने के लिए प्रचलित हथकंडे अपनाता है, अदालत की उबाऊ, थकाऊ व खर्चीली अन्तहीन प्रक्रिया में फंसे व्‍यक्‍त‍ि की स्थिति साँप के मुँह में छिपकली वाली हो जाती है। न केस छोड़ने का हौसला होता है और केस चलता रखने से तन, मन और धन तीनों की अपूरणीय क्षति होती जाती है। सारा-सारा दिन अदालतों में पेड़ों की तरह खड़े रहना, कभी जज छुट्टी पर होना, कभी अपने वकील या विरोधी वकील द्वारा किसी कारण तारीख़ ले लेना, कभी शाम को जा कर आवाज़ पड़नी। गर्मी, सर्दी और बरसात में घंटों सफ़र करके तारीख़ भुगतने आना फिर अदालत में तारीख़-दर तारीख़, तारीख़-दर तारीख़ का अन्तहीन सिलसिला, इस सब से होने वाली बर्बादी और दर्दनाक मंज़र का अन्दाज़ा लगाना कठिन होता है।

अधिकतर अदालतें अभी भी अंग्रेज़ों के ज़माने की इमारतों में स्थापित हैं। उन की हालत खस्ता हो चुकी हैं। आमतौर पर किसी केस को भुगतने के लिए दो जन आते हैं, पर वहां तो एक के बैठने के लिए भी व्यवस्था नहीं होती। इस लिए उन्हें सारा-सारा दिन खड़े रहना पड़ता है। गर्मी में अदालत के बरामदे में अव्वल तो पंखे होते ही नहीं अगर एक आधा हो भी तो उसकी गति अदालती कार्रवाई से भी धीमी होती है।

कोई नागरिक या कथित मुजरिम समर्पण करके हिरासत या ज़मानत पर आकर कानून का पालन कर रहा होता है अदालत द्वारा दोषी सिद्ध किये जाने तक, वह अपने मान-सम्मान का पूरा हक़दार होता है। पर क्या इस प्रकार अदालतों के बाहर सारा-सारा दिन खड़े रहना किसी सज़ा से कम होता है। केवल बैठने की व्यवस्था की ही बात नहीं, कई अदालतों के बाहर न पीने वाले पानी की व्यवस्था होती है और न ही शौचालयों की। मर्द लोग तो फिर भी इधर-उधर दीवारों अथवा पेड़ों की आड़ में काम चला लेते हैं पर औरतों के लिए यह बहुत गम्भीर समस्या होती है, अगर उनके साथ छोटे बच्चे भी आए हों तो उन की हालत और भी दयनीय हो जाती है।

अदालतों के बाहर कई प्रकार के चोर-उचक्के, डाकू, बलात्कारी, जुआरी, तस्कर, रिश्‍वतखोर तथा कातिल आदि पेशेवर मुजरिम खड़े होते हैं। उसी स्थान पर अविवाहित लड़कियाँ, विधवाएँ, तलाक केस से सम्बन्धित औरतें, ज़मीन-जायदाद या बच्चे की कस्टडी के झगड़े को लेकर महिलाएँ भी वहाँ उपस्थित होती हैं, इस अवसर पर कुछ अपराधी किस्म के लोग, उन पर फब्तियाँ कसने, अश्‍लील इशारे करने से गुरेज़ नहीं करते। ऐसी औरतों के साथ उन के घर की कोई न कोई अन्य औरत भी आई होती है। ये किस्मत की मारी पहले ही अपने साथ हुए अत्याचार व अन्याय के कारण दुखी होती है, फिर ऐसे पेशेवर अपराधी किस्म के लोगों के हाथों, अदालतों में आकर भी, मानसिक व शारीरिक टॉर्चर का शिकार होती है। ऐसे लोगों को इन ज़लील हरकतों से रोकने या उन पर निगाह रखने के लिए किसी सी सी टी वी कैमरे का प्रबन्ध नहीं होता। अदालती परिसर में कई बार एक दूसरे की जान की दुश्मन बने पक्षों की सुरक्षा का भी कोई इंतज़ाम नहीं होता। इसी लिए कभी-कभी अदालतों के बाहर मुवक्किलों अथवा गवाहों को जान से मार देने की ख़बरें भी पढ़ने-सुनने को मिल जाती हैं।

गौरतलब है कि अगर स्कूल, कॉलेजों में अलग लेडीज़ स्टाफ़ रूम, रेलगाड़ी में महिलाओं के लिए अलग कम्पार्टमेंट, यहां तक कि रेलवे स्टेशनों व बस स्टैंड, एयरपोर्ट पर महिलाओं के लिए अलग विश्राम/प्रतीक्षालय तथा सीटों का प्रबन्ध होता है तो फिर इन अदालतों में विपदा की मारी औरतों व बच्चों के लिए अलग व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती। यदि मुक़द्दमा दर्ज करते समय हरेक व्‍यक्‍त‍ि से कोर्टफ़ीस प्राप्‍त की जाती है तो फिर वहाँ मजबूरी के मारे आने वालों के लिए आवश्यक सुविधाएँ क्यों नहीं प्रदान की जाती ?

यहीं बस नहीं, अदालती रिकॉर्ड की तसदीकशुदा कापी प्राप्‍त करने के लिए बनती अदालती फ़ीस से दस-बीस गुणा अधिक राशि प्राप्‍त की जाती है। मान्यवर हाईकोर्ट में तो यह रेट और भी ‘हाई’ हो कर हज़ारों रूपयों तक पहुंच जाते हैं। यहां क्षेत्रीय भाषा में लिखे दस्तावेज़ों, जिन की अदालत अंग्रेज़ी में मांग करती है उस के अनुवाद के लिए मोटी रकम वसूली जाती है फिर अनुवाद के ठीक होने न होने की कोई गारन्टी नहीं होती।

अदालत में पेशी भुगतने आए व्‍यक्‍त‍ि ने अभी अदालत द्वारा दोषी अथवा निर्दोष साबित होना होता है। उन में से कई अध्यापक, प्रिंसिपल, डॉक्टर, प्रोफेसर, ईंजीनियर, वकील, पी. सी. एस, आई. ए.एस, आई. पी. एस या अन्य सम्मानीय नागरिक हो सकते हैं। जब तक अदालत उन को दोषी साबित नहीं कर देती। उन्हें अपने आदर-सत्कार का पूरा अधिकार होता है। लेकिन कई-बार अदालतों के अर्दली, रीडर, नायब कोर्ट से लेकर जजों तक द्वारा उन्हें इन्सानियत के नाते सम्मान योग्य नागरिक ही नहीं समझा जाता। आमतौर पर उन के साथ दोषियों जैसा व्यवहार किया जाता है। उनका असंवेदनशील, शुष्क, खीझ भरा तथा हर समय रिश्‍वत की उम्मीद रखने वाला व्यवहार दु:खी और परेशान लोगों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने का काम करता है।

insaf k mandir mein2बलात्कार की शिकार अथवा ससुराल के हाथों प्रताड़ित लड़की से विरोधी पक्ष के वकीलों द्वारा जानबूझ कर ऐसे प्रश्‍न पूछ कर ज़लील किया जाता है कि जैसे उन की अपनी बहू-बेटियाँ नहीं होती।

कई बार महिला जज ही केस की सुनवाई कर रही होती है, उन्हें भी वकीलों द्वारा प्रयोग की जाती भाषा तथा किरदार से गिरे प्रश्‍नों पर कोई एतराज़ नहीं होता। ऐसे वकीलों का उद्देश्य होता है कि वह पीड़िता, ज़लील हो कर नर्वस हो जाए और घबरा कर अपना केस बीच में ही छोड़ जाए या विरोधी पक्ष की शर्तों पर समझौता कर ले।

विपक्ष के वकीलों का आपस में मिल जाना, विरोधी पक्ष के हाथों गवाहों तथा वकीलों का बिक जाना, वकीलों द्वारा अंग्रेज़ी भाषा की आड़ में, अनपढ़ मुवक्किलों से ग़लत ब्यानों पर हस्ताक्षर करा लेने तथा केस कमज़ोर कर देना। इस प्रकार पहले ही किस्मत के मारे लोग, अक्सर इन धोखों के शिकार होते हैं। ऐसे हज़ारों वकीलों के ख़िलाफ़ बार-कौंसिलों में हज़ारों शिकायतें ज़ेरे पड़ताल हैं। जिन में उन्होंने अपने व्यवसाय की निर्धारित नैतिक मूल्यों की उलंघना की होती है। कई बार जज राजनैतिक दबाव में आ कर भी फ़ैसले कर देते हैं। एस. डी. एम., डी. डी. पी. ओ., तहसीलदार और डी. सी. भी जो प्रशासनिक अधिकारी और जज दोनों होते हैं अक्सर राजनैतिक प्रभाव के वश निर्णय सुनाते हैं।

insaf k mandir mein3समाज के ग़लत अफ़सरों के हाथों अन्याय के शिकार, दुखी, लाचार, बेबस, मजबूर लोग जो इंसाफ़ के इन मन्दिरों में न्याय की आस में आते हैं, पर यहाँ आकर भी वे धोखे, रिश्‍वतखोरी तथा ज़लालत की मार सहते हैं। उम्र भर भटकते हैं बर्बाद होते हैं। कई केसों में कानून द्वारा समयबद्ध निर्णय नि‍‍श्‍चि‍त होने के बावजूद भी जजों द्वारा बहुत लम्बे समय बाद फ़ैसले किये जाते हैं, ऐसे किस्मत के मारे और दुखी लोग कहाँ जाएँगे। इस देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि अदालतों में सुनवाई के समय वीडियो रिकॉर्डिंग की व्यवस्था की माँग सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ठुकरा दी गई जबकि कई विकसित देशों में इस व्यवस्था से अदालती कार्यवाही में पारदर्शिता तथा जल्दी फ़ैसले होने में मदद ली जाती है लेकिन भारतीय न्यायपालिका को पता नहीं इस आधुनिक तकनीक को अपनाने से गुरेज़ क्यों है या वह स्वयं ही इस प्रक्रिया में सुधार नहीं चाहती।

आजकल आम लोगों के मनों में यह बात घर कर गई है कि अदालतों में न्याय बिकता है। अदालतों की तो दीवारें भी पैसे मांगती हैं। गत दिनों एक शहर में मान्यवर हाईकोर्ट के जस्टिस द्वारा वकीलों की समस्याएं सुनते समय एक वकील ने एक महिला जज पर रिश्‍वत लेने का सीधा-सीधा आरोप लगा दिया। जिस से वहाँ हड़कम्प मच गया। वकील दो समूहों में बंट गये। आमतौर पर यह समझा जाता है कि रिश्‍वत भी तो बिचौलियों के माध्यम से जजों तक पहुँचती है। दूसरों पर कीचड़ उछालने वाले स्वयं कौन सा दूध के धुले होते हैं।

अदालती रिश्‍वत के सम्बन्ध में एक लतीफ़ा कुछ इस तरह से मशहूर हो चुका है-

गांधी जी के एक दोस्त पर खून का झूठा इल्ज़ाम लग गया। गांधी जी ने उसका मुक़दमा लड़ा और उसे बाइज़्ज़त बरी करा लिया। उस ने गांधी जी का शुक्रिया अदा करते हुए एक प्रश्‍न किया, ‘कल जब आप नहीं होंगे तब मेरे जैसे बेक़सूरों को कौन बचाएगा।’ इस पर गांधी जी ने बहुत ही खूबसूरत जबाब दिया, ‘तब नोट पर छपी मेरी तस्वीर से ही काम चल जाएगा।’

One comment

  1. It is true but we have to search the system better than the extent one

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