-मीनू संदल

यह है जालंधर सेंट्रल जेल। सुबह के दस बज रहे हैं। गाड़ियों के शोर के बीच यहां लगती है लोगों की भीड़ रोज़। कोई समारोह नहीं होता। भीड़ इसलिए कि रोज़ सैंकड़ों लोग आते हैं और जेल में मुलाक़ातियों की जगह है बहुत ही छोटी। ठेलम-ठेल। कौन आता है? आते हैं दादा, चाचा, भाई, भतीजा, विधवा अपने बच्चे से मिलने। मिलने आती हैं सुहागिनें जिनका अपना हमदम वहां बंद है। कुछ सपने यहां क़ैद होकर रह गए हैं। जेल …, कारावास …, बंदीगृह…। न जाने कितने वाक़ई दोषी हैं और कितने निर्दोष। जो भी हो, क़ैदियों से जब उनके परिजन मिलते हैं, वक़्त एक बारगी ठहर-सा जाता है। बिछड़े मां-बेटे का मिलन देखा है? नहीं? तो आइए सेंट्रल जेल में।

यह दरअसल चंद कानूनी पेचीदगियां हैं जिनके कारण कुछ बेगुनाह आज ‘गुनहगार’ बन गए हैं, क़ैदी की ज़िंदगी जी रहे हैं। शायद कभी, उनके साथ भी इंसाफ़ होगा पर वक़्ती तौर पर तो उनके साथ ज़ुल्म ही हो रहा है।

रोहित नाम ही बताया था उसने। मौसी की गोद में खुश था। इंतज़ार कर रहा था अपने पिता की एक झलक देखने की। रजनी मौसी ने बताया, ‘मेरी मां, पिता जी, भइया, दीदी और छोटे जीजा जी एक साल से बंद हैं। बड़े जीजा जी ने हमारे घर आ कर ज़हर खा लिया था और शक हम पर हो गया। मुझे छोटी दीदी के घर पर ही रहना पड़ रहा है। हम क्रिश्चियन हैं।’

छोटे दीदी के साथ रहने तथा संबंधियों के जेल में बंद रहने का इस परिवार पर असर कुछ इस क़दर हुआ है कि ये लोग अब कोई भी त्योहार ठीक ढंग से नहीं मनाते। रजनी बताती हैं, ‘पहले बहुत धूमधाम से मनाते थे त्योहार। अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता।’ इनकी ज़िंदगी ऐसी हो चुकी है जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ इंतज़ार है। अचानक एक आवाज़ आती है रोहित … रोहित। रोहित है उनका बच्चा, जिसका पिता क़ैद है काल कोठरी में। अपनी मां के साथ यह अबोध बालक आया था … अपने पिता से मिलने, उनकी एक झलक देखने और उन उंगलियों को छूने जिनके दम पर वह कल दुनियां के सामने चलता। लेकिन, यह महज़ ख्वाहिश ही रह गई क्योंकि रोहित तो सो चुका था। पति-पत्नी मिले पर दोनों में से कोई उस वक़्त नहीं रोया। हां, जैसे ही मिलने का वक़्त ख़त्म हुआ, दोनों की आंखें पनीली हो गईं। वक़्त का कठोर फ़ैसला। क़ैदियों से मिलने की ख़ातिर उनके परिजन शायद पौ फटने से पहले ही चल देते होंगे। मन में हिलोरें उठती हैं। क़ैदियों से सुबह दस बजे से दोपहर बारह बजे तक ही मिला जा सकता है। पर, यहां की बात निराली है। यहां सवेरे आठ बजे से ही लम्बी लाइन लग जाती है। दूरस्थ गांवों, क़स्बों से आने वाले ये लोग शायद रात में सोते भी नहीं। वृद्ध, असहाय और लाचार लोग भी आते हैं जेल … अपने अज़ीज़ से मिलने। 75 की उम्र पार कर चुके सरदार चिंतन सिंह भी आए हैं यहां … अपने बच्चे से मिलने। बैसाखियों के सहारे चलते हैं। उनकी थकी और बूढ़ी आंखें सलाख़ों के पीछे अपने चिराग़-ए-ख़ानदान को ढूंढ़ रही थीं। ज़ुबान में है लड़खड़ाहट। धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। बेटा मिल गया। चेहरे पर एक अजीब चमक है। इससे पहले कि वह कुछ पूछ पाते, बेटे ने ही पूछ लिया, ‘बीबी दी सेहत किद्दां ए?’ अब सरदार जी ने जवाब दिया, ‘तू फ़िकर न कर … माड़ा-मोटा बुख़ार है बस। तूं दस … तेन्नू कुछ चाहिदा ते नहीं…?’ तभी चिंतन सिंह को धक्का लगा और बैसाखी कंधों से छूट गई। माथे की लकीरों में छिपी सारी चिंता बेटे के चेहरे पर उभर आई। बहुत … बेबस दिखा वो। पर मजबूर था। जेल में बंद कोई शख़्स अपने पिता को गिरता देख कर भी क्या कर सकता है। उठाना भी चाहे तो मज़बूत सलाख़ें सामने आती हैं। हाय! री ज़िंदगी।

उसकी आंखों का रंग है नीला और बाल हैं भूरे। बच्ची है, नाम है- पलक। कभी अपने मामा को बुला रही थी तो कभी पापा को। अपनी दादी और मां के साथ आई थी जेल में। पलक की दादी गुरिंदर कौर बताती हैं, ‘हमारे घर में तीन औरतें हैं। तीनों विधवा। बेटा जेल में है। उसी से मिलने आए हैं। घर का ख़र्चा बमुश्किल चल रहा है। बहू एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती है। आप तो जानते ही हो, प्राइवेट स्कूल की नौकरी से क्या मिलता है। मुंडे दी बड़ी याद आंदी है, इसलिए रोज़ ही मिलने चली आती हूं…।’ और वह रोने लगी। रोते-रोते कहती है, ‘मेरी ज़िंदगी तो उनके मरने के बाद ही अंधकार में खो गई थी पर जवान बहू को देख कर दुःख बढ़ जाता है। क्या कर सकते हैं, ज़िंदगी तो गुज़ारनी ही है न।’

यहीं, जेल के एक कोने में एक फट्टे पर बैठे थे प्रेमनाथ कालिया जी। लम्बी-लम्बी सांस ले रहे थे। पिल्ज़ की डिब्बी हाथ में पकड़ रखी थी। उनके मन में जेल व्यवस्था को लेकर क्रोध है, आक्रोश है। कहने लगे, ‘बेटे से मिलने आया हूं। झूठ बोलकर फंसा दिया। पंद्रह दिनों से बंद है। अगर सरकार कुछ और नहीं कर सकती तो इतना तो करे कि बीमार, बूढ़े आदमियों के लिए कोई प्रोविज़न बनाए या फिर हमें उनसे पहले मिलने की इजाज़त दे। ये लोग तो शारीरिक तौर पर क़ैदी हैं पर हम तो मानसिक क़ैदी बन गए हैं। कोई बुरे कर्म ही किए थे जो इस उम्र में आकर जेल का मुंह देखना पड़ रहा है।’

जेल की ज़िंदगी से चाहे कोई क़ैदी आदमी बन जाए पर उसके परिजनों की हालत ख़राब हो जाती है। कोई किसी के घर नौकरी कर अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहा है तो कोई उन कामों को करने के लिए मजबूर है जो उसने कभी नहीं किए। कई सपने अधूरे हैं। अब वो सांझा चूल्हा नहीं रहा। वक़्त ने ऐसी करवट ली कि ज़िंदगी का रुख़ ही बदल गया। कई फलते-फूलते परिवार बिखर गए। क़ैदी तो जुर्म पर सज़ा भुगत रहे हैं पर हम यह नहीं जान सके कि उनके साथ कितने ही ऐसे क़ैदियों ने जन्म ले लिया जो बिना किसी जुर्म के सज़ा काट रहे हैं।

 

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