वे घरों को वापिस नहीं लौट सकेंगे।

माएं प्रतीक्षा करती-करती बूढ़ी हो जाएंगी। वे पता नहीं कितने थे।

मैं भी उनमें से ही एक था। मेरी आंखों में भी सैल्युलाइट के सपने थे। वे सपने भी फ़िल्म नहीं थे बने, पिघल कर आंखों में जम गए थे।

एक वर्ष।

दो वर्ष।

और फिर तीन वर्ष।

बंबई मुझे बूंद-बूंद पी रही थी। समुद्री हवा के फूलों में महक नहीं थी।

मैं अपने मुहब्बत के दिनों से भागा हुआ था। मुझे बंबई का आलिंगन चाहिए था परन्तु बंबई के पास न तो बांहें थी और न ही कंधा था।

बंबई आत्मा विहीन ख़ाली ताबूत थी। मेरी तो तीन वर्षों की लाश उस ताबूत में पड़ी सड़ रही थी।

मैं अब कहां से लाऊं अपने वो तीन वर्ष।

>छत के साथ लटका पुराना पंखा चीख रहा था।

मेरे कमरे के दोनों साथी जा चुके थे।

घोष और देसाई आज फिर जगह-जगह जाएंगे। डायरेक्टरों और प्रोड्यूसरों को मिलने की कोशिश करेंगे। कभी किसी दरवाज़े से डांट खाकर लौट आएंगे तथा कभी किसी दरवाज़े से भ्रम की अंगुली थाम लेंगे। जब वे शाम को आएंगे उनके शरीर में दिन भर की थकान होगी तथा हाथों में सपनों के टुकड़े।

मैं आज किसी स्टूडियो में नहीं जाना चाहता था। मैं अपनी ज़िल्लत को एक दिन का अवकाश देना चाहता था। मेरे जाने से वैसे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। उमस भरी हवा वैसे ही चुप रहनी थी।

मैं बड़ा एक्टर नहीं था।

मैं ऐक्सट्रा था, मिन्नतों की भीड़ में घिरा ऐक्सट्रा।

मैं अकेला नहीं था।

खारे टापू पर आदमियों का हुजूम था।

वे कहां जा रहे थे?

वे क्या ढूंढ़ रहे थे?

मैं उनके पीछे-पीछे क्यों चल पड़ा था?

थकी हुई सड़कों को भी मेरी आवारगी पर कोई गिला नहीं था।

दोपहर को मैंने कोलाबा के एक पारसी रेस्टोरेंट से पेट भर खाना खाया, चाय का कप पिया और चल पड़ा। मैं चाहता हूं कि मैं इतना चलूं, इतना थक जाऊं कि सुबह तक अपनी ओर वापिस आने का ख़्याल ही न आए।

मेरे चारों तरफ़ परेशान समुद्र था।

अगली सुबह अभी दूर थी। अभी तो चिपचिपा दिन बाक़ी था। मेरे और अगली सुबह के बीच में अभी नंगी रात ने आना था।

मैंने लोकल बस पकड़ी और बंबई सेंटरल जा उतरा। वहां से लमिंगटन सड़क से होता हुआ मैं कृष्णा सिनेमा जा पहुंचा। वहां खड़ा होकर मैं फ़िल्मों के पोस्टर देखता रहा। अभी शाम ढली नहीं थी। मैं कृष्णा सिनेमा के पीछे वाले कृष्णा पुरी हाउस में जा बैठा। मुझे चाय की तलब नहीं थी परन्तु अभी मैंने और कुछ वक़्त गुज़ारना था। मैंने चाय का कप मंगवाया और धीरे-धीरे चुस्कियां लेने लगा।

बाहर ठर्रेवाला खुदा बख़श दिखाई दिया तो मैं उठ खड़ा हुआ। चाय के पैसे दिये और बाहर आ गया। मैंने उससे आधी बोतल शराब ली और पुरानी अख़बार के टुकड़े में लपेट कर बोतल कंधे से लटके झोले में डाल ली।

मैंने घड़ी देखी, मेरे पास अभी दो घंटे और बाक़ी थे।

शाम के धुंधलके में मैं चौपाटी तट पर पहुंच गया था। बीच पर रौनक़ बढ़ रही थी। भेलपुरी और चाट के ठेलों के इर्द-गिर्द भीड़ इकट्ठा हो रही थी। लोग चटपटी चीज़ें खाने के लिए ललचा रहे थे।

समुद्र बिलकुल अकेला था।

‘बाबू! तफ़रीह के लिए साथ चाहिए क्या?’ एक अठरह-उन्नीस वर्ष की लड़की ने बेझिझक मेरा हाथ-पकड़ लिया, ‘बाबू, रोकूंगी-टोकूंगी नहीं, जैसा चाहे करना।’

मैंने उसका हाथ झटक दिया।

उसकी आवाज़ मिन्नत में बदलने लगी, ‘बाबू, कोई लफड़ा नहीं, कुछ नहीं एक घंटे का सिर्फ़ दस टका। तुम से जासती नहीं मांगता।’

अचानक ही चौपाटी जगमग करने लग पड़ी परन्तु पेड़ों की तरफ़ कोई रौशनी नहीं थी। युगल इधर-उधर झाड़ियों जैसे पेड़ों के नीचे बैठे हुए थे। अंधेरा अभी इतना गहरा नहीं हुआ था कि उनको ढक ले। यह वृक्ष छाया देने के काम नहीं आते थे, इसी काम आते थे। उस लड़की का कोई क़सूर नहीं था। मैं अचेतन एक पेड़ के नीचे खड़ा था। पेड़ के नीचे खड़े होने का अर्थ ही यही था कि मुझे औरत का साथ चाहिए था। इन पेड़ों के नीचे लोग किराए के साथी के साथ गई रात तक बैठे रहते थे।

उस लड़की से दामन छुड़ा कर मैं आगे चल पड़ा। कार पार्क वाले खंबे के पास से गुज़रते हुए मेरे पुराने दिन लौट आए। खंबे के नीचे दो-तीन जवान लड़के खड़े थे।

शाम ढलते ही बंबई वेश्या क्यों हो जाती है?

यह लड़के अभी एक-एक करके क़ीमती कारों में बैठेंगे और चले जाएंगे। बूढ़ी, अधेड़, अमीर औरतें इन लड़कों की ग्राहक थीं। इन औरतों के पति फाइव स्टार सभ्याचार में डूबे हुए थे। उन्होंने अलग फ़्लैटों में रखैल रखी हुई थीं। कइयों के पति विदेशों में बैठे हुए थे। वे स्वदेश चक्कर भी लगाते थे परन्तु वह बीवियों के लिए नहीं होता था। बीवियां अपने अकेलेपन की तपिश में लेटीं ब्लू फ़िल्में भोगती थीं, हर शाम जिस्म ढूंढ़ती थीं और नशे में भीग कर सो जाती थीं।

वेश्या का काम अगर आदमी करे तो उसे क्या कहते होंगे? ऐसे शब्दों की तो बीते समय में ज़रूरत ही नहीं पड़ी होगी। खंबे के पास से गुज़रते मैंने ऐसे ही सोचा तो खंबे के पास से आंख चुरा कर क़दम तेज़ कर लिये। मुझे डर था कहीं मेरी कोई पुरानी ग्राहक मुझे पहचान कर फिर से मेरे गले न पड़ जाए। फ़ाक़ों के दिनों में मुझे क्या-क्या नहीं करना पड़ा था।

सड़क क्रॉस कर के लोकल बस स्टैंड से फारस रोड की बस ले ली।

जब पहली बार मेरे पैरों में बीमार गली की उलझनें पड़ीं तो मैं परेशान सा हो गया था। यह अचानक ही हुआ था कि मेरा अकेलापन दोस्ती के चेहरे ढूंढ़ता उस बाज़ार में पहुंच गया था। वेश्याएं जिस्मों का दिखावा किए हुए जगह-जगह खड़ीं थीं, मोड़ों पर, जंगलों के पीछे, छज्जों पर। वे भुक्खडों की तरह ग्राहकों को घेर लेती थीं। अश्लील फ़िक़रे और नंगे इशारों में छिपी मिन्नतें। मुझे लगा वो मैं था, क़तार में खड़ा ऐक्सट्रा।

वह मेरा अपना भाईचारा था। उस वक़्त मैं किसी भी चौबारे की सीढ़ियां चढ़ सकता था और मैं सामने वाले चौबारे की अंधेरी सिलाबी सीढ़िया चढ़ गया था।

उस चकले के समूचे वातावरण में हल्का-हल्का अंधेरा फैला हुआ था। एक उदास सी चुप्पी ठहरी हुई थी।

धंधे वाले कमरे में लकड़ी के तख़्तों के तीन छोटे-छोटे केबिन बने हुए थे। बाक़ी जगह में एक गंदा और पुराना सोफ़ा पड़ा हुआ था। सोफ़े के सामने एक बैंच था। सौदा तय होते वक़्त वेश्याएं बैंच पर आ कर बैठ जाती थीं। इतनी तंग जगह की ग्राहक को सहूलियत रहती थी। वह सामने बैठी वेश्या की टांगों के साथ टांगें रगड़ सकता था। हाथ लंबा करके उसके अंगों को दबा कर तथा टटोल कर देख सकता था। सौदा तय होने के बाद चुनी हुई वेश्या बैठी रह जाती थी और बाक़ी उठ कर अंदर चली जाती थीं।

वेश्याएं चार थीं और केबिन तीन, कई बार ग्राहक को सोफ़े पर बैठ कर केबिन के ख़ाली होने का इंतज़ार करना पड़ता था। लकड़ी के केबिन का पर्दा भ्रम जैसे लगता था। अंदर की आवाज़ें बाहर बैठे हुए भी सुनती रहती थी।

मैडम मुझे देखकर मुस्कुराई और दोबारा ग्राहक के साथ भाव तय करने में लग गई। मैं मैडम के पास पड़े स्टूल पर बैठ गया।

कुलविंदर ग्राहक के सामने बैंच पर बैठी हुई थी। पंजाबी बाबू उसके जिस्म के बारे में पूरी तसल्ली कर चुका था पर उसे कुलविंदर के पंजाबन होने के बारे में शंका थी।

‘बेटी, सेठ के साथ पंजाबी में बात कर।’ मैडम ने कुलविंदर से कहा।

कुलविंदर ने टूटी-फूटी पंजाबी में बोलने की कोशिश की।

कई ग्राहक भी अजीब थे। वे अपनी मान्यताएं, विश्वास और धर्म उठा कर चकले पर ले आते थे परन्तु उन लड़कियों का धर्म जिस्म था। जिस्म को भोगना उनके लिए आनन्द नहीं था, प्यार नहीं था, बस जीने का एक तरीक़ा था। इसलिए जिस्म का रुतबा उनके लिए पूजा का था।

वे अपने ग्राहक के धर्म का सम्मान करती थीं। ग्राहक का धर्म बचाने की ख़ातिर वे कुछ पलों के लिए अपना नाम भी बदल लेती थीं और धर्म भी।

नाम पहले भी कौन सा असली होता था।

पंजाबी बाबू की तलब के सामने उसका हठ घुटने टेक चुका था। उसने मैडम की फ़ीस दी और कुलविंदर का हाथ पकड़ कर उठ खड़ा हुआ।

केबिन ख़ाली नहीं था।

वह दोबारा बैठ गया।

केबिन में से आती आवाज़ें उनकी चुप के कारण और ऊंची आने लग पड़ी थीं।

‘बहुत दिनों बाद आए हो?’ अंदर की आवाज़ें ढकने के लिए मैडम कुछ ऊंची आवाज़ में बोलीं।

‘बस आया ही नहीं गया।’

‘जल्दी तो नहीं है न?’

‘नहीं!’

पंजाबी बाबू का हाथ कुलविंदर की तरफ़ सरक चुका था। अनदेखा करके मैडम खड़ी हो गई, ‘चलो, अंदर आओ।’

दूसरे कमरे में नीचे दरी बिछी हुई थी। दीवार के साथ इकट्ठे किए हुए बिस्तर पड़े हुए थे। धंधे से ख़ाली हो कर वेश्याएं इस कमरे में बैठती थीं, सोती थीं, रहती थीं।

इस कमरे में लकड़ी का फट्टा लगा कर मैडम के लिए कमरा अलग किया हुआ था।

कमरे की खिड़कियां समुद्र की तरफ़ खुलती थीं। एक खिड़की मैडम के केबिन में थी और एक वेश्याओं के कमरे में।

शाम के वक़्त समुद्र की छाती सुलगने लग पड़ती थी। लहरें शोर मचाने लग पड़ती थीं। ग़ुस्सैल लहरें पत्थरों के साथ माथा टकराती थीं और बिखर जाती थीं। समुद्र के रोष में बेबसी साफ़ झलकने लग पड़ती थी।

वेश्याएं समुद्र से परेशान थीं।

समुद्र उन्हें उदास करता था।

मैडम उठकर धंधे वाले कमरे में जा चुकी थी।

मैंने गिलास ख़ाली करके दूसरा पैग बना लिया। पानी लाने के लिए उठने लगा तो कमरे का मैला पर्दा उठा कर शीरी ने झांका। वह ग्राहक से निपट कर अभी ख़ाली हुई थी। उसने भागकर मेरे गले में आकर बांहें डाल दीं। मैं शीरी को अच्छा लगता था। मैंने हैरान होकर सोचा, कहीं शीरी कोई सपना तो नहीं लेने लग पड़ी थी।

चकले की लड़कियां पागल थीं। कोई मलबे की ईंटों की तरफ़ इशारा करता और वह घर उसारने बैठ जाती थीं। उनके ऐसा करने से धंधा चौपट होने का संशय बढ़ जाता था। उस वक़्त ज़रूरी हो जाता था कि उन्हें वहां से बदल दिया जाए।

नया चकला, नया नाम, नए ग्राहक, क्या पता सपना दोबारा बने न बने। कोई सपनों की कौड़ियां बिखेरने वाला आए न आए, धंधा चलता रहता था।

दलाल कुछ समय के लिए निश्चिंत हो जाते थे।

शीरी ने पानी लिया और मेरा गिलास भर दिया और अपने लिए अलग पैग बना लिया।

‘कई ग्राहक तो बस सिरदर्दी होते हैं। जो अभी गया है, यह तो बखेड़ा डाल कर ही बैठ गया यहां।’ शीरी ने गिलास एक ही सांस में आधा ख़ाली कर दिया और नीचे रख कर बोली, ‘सच में अमर! मैंने तो उसे साफ़ कह दिया था बाक़ी जो मर्ज़ीं करता रह। यह मेरा पेशा है परन्तु मेरे होंठों पर केवल एक का ही अधिकार है। होंठों को अमर के बिना और कोई नहीं छू सकता।’

मैंने हैरान सा होकर शीरी की तरफ़ देखा।

शीरी की आंखें भर आईं थीं। वह अपने घुटने पर ठोड़ी रखकर नाखून के साथ दरी पर लकीरें खींचने लग पड़ी और फिर सिर उठा कर धीरे से बोली, ‘अमर मैं वेश्या ही सही पर मेरा अपने किसी अंग पर अधिकार तो होना चाहिए न। मैं अपनी कोई चीज़ तो किसी को पवित्र हालत में दे सकूं।’

पूरे कोठे पर हर वक़्त एक बोझिल सा अंधेरा फैला रहता था। मुझे उस पल अंधेरे के उस बोझ की समझ लग गई।

मैंने शराब का गिलास जल्दी से ख़त्म कर दिया।

उस रात मैंने बहुत शराब पी, उल्टियां की और सो गया।

सुबह सवेरे ही मेरी आंख खुल गई।

रात भर जागने के बाद धंधे से थकी, टूटी वेश्याएं बेहोशी की नींद सोई हुई थीं। वे किसी उजड़े हुए क़ाफ़िले के सामान के जैसे इधर-उधर बिखरी हुई थीं। वे दोपहर तक ऐसे ही सोई रहेंगी। जब लोगों का दिन होता था तो चकले की बेटियों की रात होती थी।

मेरा सिर दर्द हो रहा था। मुंह का स्वाद बकबका था। मैंने दीवार के साथ तकिए को रख उसके साथ टेक लगा ली और अधलेटा सा पड़ा रहा।

वह कमरा विच्छिन्न पंखों वाली चिड़ियों से भरा पूरा चंबा था। वे सोई हुई बड़ी भोली और मासूम दिख रही थीं, जैसे बहनें होती हैं। वे सचमुच बहनें ही लग रही थीं। वे मेरे साथ शरारतें भी बहनों की तरह ही करतीं थीं। कभी कोई बैठे को कंधों से पकड़ कर पीछे गिरा जाती थी। कोई आते-जाते हाथ से मेरे बाल बिखेर देती थी। कंघी पकड़ कर कोई मेरे बालों को अलग ढंग से बनाने लग पड़ती थी। कोई मेरे कंधे से झोला उतार कर फड़ोलने लग पड़ती। मैं भूखा नंगा ग्राहक इस कोठे के इतना नज़दीकी कैसे हो गया था? मैं कोठे के बिस्तर पर घर की पनाह जैसे पड़ा हुआ था और मुझे रिश्तों के चेहरे दिखाई दे रहे थे।

मैंने सोचा, जब मैं बड़ा एक्टर बनूंगा या डायरेक्टर बनूंगा तो एक बहुत बड़ा बंगला ख़रीदूंगा। सभी को वहां ले जाऊंगा। वहां एक कमरे में नीचे दरी बिछा कर नहीं सोएंगी। सभी वहीं रहेंगी और मैं एक-एक करके अपने हाथों से इनकी शादी करूंगा।

मैडम शायद मेरे से भी पहले की उठी हुई थी। उन्होंने मुझे पानी पिलाया और दो गिलासों में चाय ले आई।

चाय पीते हुए उसे मैंने अपने मन की बात बताई। वह खिल खिलाकर हंस पड़ी। सोई हुई वेश्याएं सहसा चौंकी।

वह हंसती-हंसती रोने लग पड़ी। उसकी आंखों से सावन भादों के बादल बरसने लग पड़े।

मन कुछ हलका हुआ तो उसने आंखें पोंछ लीं। लम्बी सांस छोड़ते हुए बोली, ‘अमर, बहन बनने का भाग्य किसी वेश्या के पास नहीं होता, बस बीवी बनने का तुच्छ सा सपना होता है। वह सपना भी कुछ वर्ष आंखों में रह कर अपने आप मर जाता है।

मैं कल्याण स्टूडियो से बाहर आया तो पूरे पांच सौ रुपये मेरी जेब में थे। ऐक्स्ट्रा के काम के पांच सौ रुपए। मैं हैरान था।

मेरी सीखी हुई ड्राईविंग काम आ गई थी। ऐक्स्ट्राज़ की उस भीड़ में मैं अकेला था जिसे ड्राईविंग आती थी। इसलिए मैं चुन लिया गया था। रोल कुछ इस तरह था, ‘हीरोइन बदमाशों के चंगुल से निकल भागी थी। मैं ट्रक में स्मगलिंग का माल ला रहा था। हीरोइन सामने से गिरते-पड़ते आ रही थी। वो मेरे ट्रक के सामने गिरकर बेहोश हो गई।’

मैं उसे उठा कर अड्डे पर ले गया। हीरोइन को अपनी बांहों में उठा कर मैं बड़े हॉल में पहुंचा और ऊंची आवाज़ में बोला, ‘बॉस, आपके लिए तोहफ़ा लाया हूं।’

कट!

मुझे पहली बार डायलॉग बोलने का मौक़ा मिला था। मुझे धीरे-धीरे बड़े रोल मिलने भी शुरू हो जाएंगे, ऐसी आशा हो गई थी।

मैं अपनी खुशी किसी के साथ बांटना चाहता था। कहां जाऊं? मैंने दोस्तों के बारे में सोचा तो मुझे मैडम का चकला याद आया।

यह धंधे का वक़्त नहीं था। मैं बेझिझक जा सकता था। मैंने मिठाई ख़रीदी। गर्म-गर्म समोसे लिफ़ाफ़े में डलवाए और फारस रोड पहुंच गया।

सभी मेरे इर्द-गिर्द झुरमुट बना कर बैठ गईं। उन सबसे खुशी संभाली नहीं जा रही थी।

वे शूटिंग की एक-एक बात जानना चाहती थीं।

‘हेमा मालिनी कैसी हैं?’

‘तुमने तो हेमा के साथ बात करके भी देखी होगी।’

‘इतनी भारी को तूने उठाया कैसा होगा?

मैं फ़िल्म में अपने रोल के बारे में उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर बताता रहा।

चाय पीते वक़्त मुझे ख़्याल आया कि मैडम नहीं थी।

शीरी ने मेरे थैले में से मैगज़ीन निकाल कर दरी पर बिखेर दिए थे। माला और शीरी एक ही मैगज़ीन में कोई तसवीर देख रही थीं। कुलविंदर और राधिका समोसे खाने लग गई थीं।

‘मैडम कहां है?’ मैंने पूछा।

‘अस्पताल?’

‘उन्हें तो हफ़्ता हो गया है दाख़िल हुए।’

‘मुझे कैसे पता लगना था? मुझसे इतने दिन आया नहीं गया। मेरे पास पैसे नहीं थे न।’

मैंने कहा, ‘अब क्या हाल है?’

‘पता नहीं?’

‘क्यों?’

‘हमारा जाना मना है न। दादा तो कुछ बताता ही नहीं। उसकी लाल-लाल आंखें देख कर वैसे भी बात करने का हौसला नहीं होता।’ शीरी ने मेरी बांह पकड़ कर मिन्नत की, ‘प्लीज़, आप जा कर पता ले आओ न।’

मुझे कोई और काम नहीं था। मेरे पास भी ख़ाली समय ही था।

रास्ते में मैंने एक ठेले वाले से केले और अंगूर ले कर अलग-अलग लिफ़ाफ़ों में डलवा लिए।

उसे किसी के आने की उम्मीद नहीं थी।

वह आंखें बंद करके लेटी हुई थी।

उसके चेहरे पर सड़क के किनारे लावारिस पड़े किसी यतीम के चेहरे जैसी बेचारगी थी। चेहरे के पीलेपन ने उस बेचारगी के रंग को और गहरा कर दिया था।

मैंने चारपाई के साथ पड़ी तिपाई पर दोनों लिफ़ाफ़े रख दिए। उसने आंखें खोलीं तो चौंक कर रह गई। चारपाई की टेक से पीठ लगा कर वह अधलेटी सी बैठ गई। कुछ देर उसकी आंखें हैरान सी हुई मुझे देखती रहीं। उसके होंठ मुस्कुराए और आंखों में से टिप-टिप आंसू बहने लग पड़े।

मैंने लोहे का स्टूल खींचा और उसके पास होकर बैठ गया। मैंने उसके हाथ को पलोसा, ‘प्लीज़ मैडम।’

उसने आंखें पोंछी और तेज़ी से दाएं-बाएं देखा। यह मरीज़ों को मिलने का वक़्त था। दोनों तरफ़ मरीज़ औरतें अपने रिश्तेदारों के साथ बातों में उलझी हुईं थीं। हमारी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं था।

उसने धीरे से कहा, ‘अमर, यहां मुझे मैडम मत कहो प्लीज़।’ मैं उसका नाम नहीं जानता था।

अपना नाम उसे भी नहीं पता था। उसने अब तक पता नहीं कितने चकले देख लिए थे। हर नए चकले पर वह नए नाम से रही थी।

उसने अपने जिस्म की कश्ती में उम्र का समुद्र तैर लिया था और ढलती उम्र में मैडम के रुतबे तक पहुंची थी। अब जिस्म का इस्तेमाल उसके लिए मजबूरी नहीं रहा था। अब वह सिर्फ़ मैडम थी और कोठे की मैडम का कोई नाम नहीं होता।

‘अमर, पता है, मैं बहुत अकेली थी।’ बेआसरा आवाज़ कांपी।

‘बंबई में हम सभी अकेले हैं।’

‘नहीं अमर! तुम नहीं समझते। शाम को सभी मरीज़ों के साथ कोई न कोई मिलने वाला बैठा होता है। एक मैं ही थी…।’ उसने आंसू पोंछ लिए पर आंखें फिर भी भरी ही रहीं। वह बोली, ‘मैं डरती थी। मुझे कोई अस्पताल से निकाल ही न दे। सब देखते होंगे कि मेरे पास कोई नहीं आता। अब तू आ गया है न, अब मुझे अस्पताल में से कोई नहीं निकाल सकता।’

‘परन्तु मैं तो यहां किसी डॉक्टर को नहीं जानता।’

‘इसका कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। … अब वो समझेंगे कि मैं भी एक इज़्ज़तदार औरत हूं।’

उसका डर किसी मासूम बच्चे के डर जैसा था।

‘अगर ऐसी ही बात है तो मैं रोज़ आया करूंगा।’

‘सच में!’ एक पल के लिए तो जैसे उसे यक़ीन ही नहीं आया। उसने बच्चों वाले चाव से कहा, ‘पहले तो मैं मुलाक़ात के वक़्त आंखें बंद करके पड़ी रहती थी। अब मैं बैठकर तुम्हारा इंतज़ार किया करूंगी।’

‘यदि दादा लड़कियों को बारी-बारी से आने दे तो…।’

‘नहीं अमर। देखते ही उनके वेश्या होने का पता चल जाता है फिर तो मेरा इलाज यहां पर किसी ने भी नहीं करना।’ उसने ख़ाली दीवारों की तरफ़ देखते ठंडी आह भरी, ‘वैसे भी यह धंधे का वक़्त होता है न। लड़कियों ने तैयार होकर बैठना होता है।’

जब मैंने उसे फल खाने कि लिए कहा तो एक बार फिर से उसकी आंखें भर आईं। उसने आंखें पोंछी और साथ की मरीज़ को आवाज़ देकर फल लेने के लिए कहा। मैंने उठकर मैडम के हाथ से लिफ़ाफ़ा पकड़ा और उस मरीज़ के आगे कर दिया। मैडम ने ज़ोर डाल कर उसे फल दिए। दूसरी तरफ़ की मरीज़ को भी उसने इसी तरह ज़ोर लगाया। उसकी कोशिश थी कि सभी देख सकें कि उसे भी कोई मिलने आया है।

मैडम की बीमारी भी अजीब थी। बैठे-बैठे ही उसका दिल डूबने लगता था। बेहोश हो जाती थी और जब होश में आती थी तो सिर में बहुत ज़्यादा दर्द होता था। लगता था कि सिर टुकड़ों में बंट जाएगा।

अब वह पहले से ठीक थी लेकिन लगता था कि उसका असली इलाज डॉक्टरों के पास नहीं था।

कोई रिश्ता सिर उठा रहा था या शायद मेरा जानलेवा अकेलापन था। मैं आए दिन उसे मिलने अस्पताल पहुंच जाता था। मैं स्टूल उसके पास खींच लेता था और फिर बहुत देर तक हम धीरे-धीरे बातें करते रहते थे।

इन दिनों उसे बहुत कुछ याद आने लग पड़ा था। इन दिनों में ही उसे अपना नाम याद आया था।

‘मां को यह नाम बहुत अच्छा लगता था।’ उसके होंठ कांपे थे, पिता जी को यह नाम अच्छा नहीं लगता था। ‘साहिबां!’ साहिबां प्रेमिका का नाम है न इसलिए।

‘हां, साहिबां!’ वह जैसे अपने आपसे बातें करने लग पड़ी थी। मां कहती थी, ‘कोई राजकुमार घोड़े पर चढ़ कर आएगा और मेरी साहिबां को अपने साथ ले जाएगा। जाने के बाद मैं अपनी साहिबां को बहुत याद किया करूंगी और बहुत रोया भी करूंगी। मां को रोना अच्छा लगता था। रोना मुझे भी अच्छा लगने लग पड़ा है।’

वह जो उसके घर का मृग छल उसके रास्ते पर बिछा कर उसे कोठे पर ले आया था, उसकी भला वह क्या बात करती। उसने बोलना चाहा पर फफक उठी।

मेरे लिए उनको कैमरे का ऐंगल बदलने की ज़रूरत नहीं थी।

हीरो ने मुंह पर एक मुक्का मारा। मुक्का असली था। मेरी आंखों के सामने तारे नाचने लग पड़े थे। मैं पीछे को गिरा और लकड़ी की रेलिंग तोड़ कर नीचे आ गिरा।

शॉट ओ.के. हो गया।

परन्तु मेरा जबाड़ा अभी भी दुःख रहा था। मैं लकड़ी की रेलिंग को साथ ले कर नीचे गिरा था। मेरी पीठ में भी टस-टस हो रही थी।

ऐक्स्ट्रा के काम की पेमेंट उसी दिन हो जाती थी परन्तु मेरे एक दो सीन अभी बाक़ी थे। यानी कि अभी मैंने कुछ और मार खानी थी। उसके बाद ही पैसों की भुगतान होना था।

मैं वापिस पहुंचा तो गेस्ट हाउस के काउंटर पर घोष खड़ा था। उसने मुझे तार पकड़ा दी। मेरे कन्धे पर हाथ रख कर उसने एक दो बार थपथपाया।

मुझे हाथ में पकड़े काग़ज़ के टुकड़े से डर लगने लगा। मैं बिना कोई बात किये कमरे में आ गया परन्तु लफ़्ज़ों की ज़ुबान चुप नहीं थी। मेरे हाथ में पकड़ा काग़ज़ कांपा।

मां नहीं रही थी।

मैं पत्थराया सा वहीं बैठ गया।

मेरे सामने पड़ी तार पंखे की हवा से हिल रही थी।

क्या आख़िरी वक़्त में मां ने मुझे याद किया था? मेरा नाम लेकर बुलाया था? उत्सुकता से बाहर के दरवाज़े की ओर देखा था?

काग़ज़ का टुकड़ा हवा के साथ फड़फड़ाया और उड़ कर कमरे के कोने में जा लगा।

मैं आते वक़्त मां को सपनों के कुल्हड़ भर के दे आया था। मां को सपनों की तासीर का पता था। मुझे रोकने के लिए उन्होंने आख़िरी बार मिन्नत की थी। मेरी तरफ़ अपनी बांह लम्बी की थी। उनका हाथ मुझ तक नहीं पहुंचा था पर मैं उनके हाथ की कांपती उंगलियों को देखता रहा था।

उस दिन मेरे सपनों के कोहरे में मां की तुच्छ सी मिन्नत गुम हो गई थी।

मैं चारपाई से उतर कर नंगे फ़र्श पर बैठ गया।

घुटनों पर सिर रख कर न जाने मैं कितनी देर तक वैसे ही बैठा रहा।

कमरे में तीन चारपाइयों की जगह थी। तीनों चारपाइयां लगने के बाद बड़ी मुश्किल से गुज़रने की ही जगह बचती थी। हर एक ने चारपाई की जगह किराए पर ले ली थी। कमरा किराए पर नहीं लिया था। हम एक दूसरे के लिए अजनबी थे। बेशक अब थोड़ा-थोड़ा जानने लग पड़े थे पर इतना भी नहीं जानते थे कि वे मेरी मां के मरने पर मातम मनाने बैठ जाते। दोनों बारी-बारी आए। अपने अपने बिस्तर पर बैठ कर मेरे साथ अफ़सोस किया और कपड़े उतार कर तौलिया लेकर बारी-बारी से बाथरूम में चले गए।

तैयार होकर वे कुछ देर बैठे रहे और फिर बाहर चले गए।

मैंने चारपाई की बाजू पर सिर रख दिया और बहुत देर तक वैसे ही पड़ा रहा।

परन्तु चारपाई की बाजू दोस्त का कंधा नहीं थी।

मैं उठा और बक्से को चारपाई के नीचे से खींच कर बाहर निकाला। मैंने उस बक्से को खोला। बक्सा बंद करके मैंने अपना पर्स देखा। मेरे पास तेपन रुपये थे और कुछ पैसे थे। गांव जाने के लिए एक तरफ़ का किराया भी पूरा नहीं था।

एक बार मन में आया कि देसाई या घोष से कुछ रुपये उधार मांग लूं पर वो मेरे कौन थे? वे मुझे रुपये भला क्यों देंगे, वे तो खुद भूख से लड़ रहे थे।

अब मैंने गांव जाना भी किसके पास था? मां आख़िरी कड़ी थी जो मुझे और गांव को जोड़ती थी और वह भी टूट गई थी।

मैंने पर्स दुबारा जीन्स की जेब में डाल लिया था और अपने ख़ाली बक्से को ताला लगा कर चारपाई के नीचे पैर से धकेल दिया।

मां मर गई थी।

मुझे रोना चाहिए था।

मैं जी भर कर रोना भी चाहता था पर मुझे रोना नहीं आ रहा था। गुबार सा उठ कर मेरे ज़ेहन में पत्थरा गया था। मेरा सिर सुन्न हुआ पड़ा था। मैं कुछ महसूस करने का सामर्थ्य भी गंवा चुका था।

मेरे निर्वाण का रास्ता फारस रोड के उस कोठे तक पहुंच कर ख़त्म हो गया।

मेरे सामने फिर वही उदासी, सिलाबी सीढ़ियां थीं।

मैडम मैले से सोफ़े पर बैठी थीं। उसने हैरान हो कर मेरे बिखरे हुए वजूद की तरफ़ देखा। उस वक़्त वहां एक ही ग्राहक था। उसके साथ माला का किराया तय करके वह उठ खड़ी हुई और मेरा हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले गई। ‘क्या बात है?’

‘मैडम! … मां! … मां! … !’

मैडम मेरे साथ वाली दरी पर बैठ गई।

धीरे-धीरे मां की मौत की ख़बर सभी को पता लग गई। ग्राहक को निपटा कर बारी-बारी सभी मेरे पास आकर बैठ गईं। नया ग्राहक आने पर वह उठती और जो ख़ाली होती वह वापिस आकर मेरे पास बैठ जातीं।

वे मेरे साथ मां की बातें करती रहीं। मेरे पास बैठीं वे खुद भी बहुत उदास हो गईं। मैं अपनी मां की बातें कर रहा था। वे अपनी मां की बातें सुन रही थीं।

यह कोठा मेरा घर नहीं था। अब मेरा जाना ही बनता था। यह धंधे का वक़्त था और मैं उनका वक़्त ख़राब कर रहा था।

‘मैं अब चलता हूं।’ मैं उठ खड़ा हुआ।

मैडम धंधे वाले कमरे में बैठी हुई थी। उसने मेरी तरफ़ देखा।

‘मैं अब चलता हूं।’ मैंने अपनी बात दोहराई।

धंधे के वक़्त कोई वेश्या कोठे की सीढ़ियां नहीं उतरती परन्तु कोठे का उसूल भूल कर वह मेरे साथ चल पड़ी।

कुछ सीढ़ियां उतर कर वह अंधेरे में रुक गई, ‘सुनो!’

मैं भी खड़ा हो गया।

‘इस वक़्त कहां जाओगे?’

सीढ़ियों के निचले किनारे पर सड़क की स्याह रेखा दिख रही थी।

उसने हाथ पकड़ कर मुझे वापिस बुला लिया और आधिपत्य से बोली, ‘आज मैंने तुम्हें अकेले नहीं रहने देना।’

मेरी आंख खुल गई।

पता नहीं मैडम रात को कितनी देर तक जागती रही थी। वह अभी गहरी नींद में थी। उसकी गहरी-गहरी सांसें मैं अपने चेहरे पर महसूस कर रहा था। उसकी बाईं बाजू मेरे सिर के नीचे थी और दाईं बाजू मेरे ऊपर थी। मैं छोटे से पंछी की तरह उसके आंचल में सिर छिपाए बेहोशी की नींद में सोया रहा था।

मुझे कुछ घुटन सी महसूस हुई। हैरान हो कर मैंने देखा समुद्र के ओर की खिड़की बंद थी।

समुद्र के तरफ़ की खिड़की अक्सर खुली रहती थी। मैडम ख़ाली वक़्त में खिड़की के पास बैठी समुद्र की तरफ़ देखती थी। दूर तक फैला गहरा नीला समुद्र और उसके शांत दिखाई देते सीने में छिपे बेपनाह ज्वारभाटे उस वक़्त मैडम की चुप आंखों में समा जाते थे।

वह समुद्र से अपनी पहचान पूछती थी और उदास हो जाती थी।

मैंने अपनी साइड बदली तो मैडम की आंख खुल गई। वह मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराई, अपनी बाजू मेरे नीचे से खींची और उठ कर बैठ गई, ‘रात को मैंने खिड़की बंद कर दी थी। सोचा, समुद्र का शोर तुम्हारी नींद न ख़राब करे।’

केबिन के बाहर, दरी पर रात की थकी हुई वेश्याएं बेहोशी की नींद सोई हुई थी।

मैं उठ कर तैयार हुआ और जाते वक़्त कोठे के रेट के मुताबिक़ दस-दस के तीन नोट मैडम की तरफ़ कर दिए।

उसने हैरान सी होकर मेरी तरफ़ देखा और पीछे मुड़ कर समुद्र की ओर की खिड़की खोल दी। समुद्री हवा का झोंका कोठे की सारी भड़ास उड़ा कर ले गया। समुद्र की तरफ़ मुंह कर के वह कुछ देर चुपचाप नीले पानी की तरफ़ देखती रही। उसकी आंखों में जमी बर्फ़ धीरे-धीरे पिघलने लगी थी। उस बर्फ़ के नीचे दबे हुए सपने धीरे-धीरे नंगे हो गए थे। वह सपने बेशक उसकी आंखों के थे परन्तु वह उन्हें देख नहीं रही थी।

उसने आंखें पोंछी और मुड़ कर मां की तरह मेरे बालों में हाथ फेरा। मुझे कंधे से लगाकर मेरा माथा चूमा। मेरा रुपयों वाला हाथ पीछे करते हुए भीगी आवाज़ में बोली, ‘पागल तुझे इतना भी नहीं पता, इस रिश्ते की कोई क़ीमत नहीं चुकाता। कोठे पर आकर भी नहीं।’

दस-दस के तीन नोट झुलसे हुए काग़ज़ की तरह मेरे हाथ में चूर हो गए। उसके कंधे से लग कर मैं छोटे बच्चे की तरह हटकोरे भर-भर कर रोने लग पड़ा।

 

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