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बात उन दिनों की है जब मैं आठवीं की कक्षा में ज़िला भर में अव्वल आया था। मां ने मुझ से बाज़ार से पांच रुपए का प्रसाद मंगवाया था और मेरी बांह पकड़ कर पूजा वाले कमरे में ले गई थी। भगवान् कृष्ण की प्रतिमा के सामने ले जा कर खड़ा कर दिया और कृष्ण की मूर्ति के आगे नतमस्तक हो कर धन्यवाद करने को कहा तो संकोच से जैसे ही मैंने कृष्णा की मूर्त से आंख मिलाई तो उसकी खिली मुस्कान देख कर मुझे ऐसा जान पड़ा था कि मेरे अव्वल आने का उसे पहले से ही पता था और मेरे अव्वल आने की सबसे ज़्यादा खुशी उसी को है। मां के कहने पर मैंने कृष्ण के आगे सिर झुका कर हाथ जोड़ दिए। वह लगातार मुस्कुराता जा रहा था। कृष्ण की इस मुस्कान ने मुझे अपने सम्मोहन में ऐसा बांधा कि रात सपने में भी मैंने उसे निरन्तर मुस्काते देखा था। मां के लिए पूजा का कमरा ही जैसे कृष्ण की कचहरी थी। मां की कृष्ण के प्रति आस्था ज़्यादा थी या पापा के प्रति श्रद्धा ज़्यादा यह मुझे जांचने पर भी कभी पता नहीं चल पाया। हर बात के लिए वह कृष्ण को धन्यवाद देती – उस की आरती उतारती। पौ फटने से पहले पूजा अर्चना करके घर की सेवा टहल में जुटती, कभी उसे थकते नहीं देखा। बच्चों के प्रति मोह, पापा के प्रति श्रद्धा और कृष्ण के प्रति आस्था से जो उसका वजूद बना देखा वो ईश्‍वर से किसी भी दृष्‍ट‍ि में कम नहीं था। कृष्ण जैसी मुस्कान अगर किसी जीवित इन्सान के चेहरे पर उगी देखी तो केवल मां के चेहरे पर! मां के चेहरे पर कभी सिलवट नहीं पड़ी, आंखों में कभी क्रोध नहीं उतरा। पापा से कभी गिला हुआ या कृष्ण से शिकवा, मां ने कभी अपने होंठों से फूटने नहीं दिया केवल आंसू बहा कर आंखों से बहा दिया। कृष्ण के सम्मुख जब मां टप-टप आंसू बहाती और वो तब भी मुझे हंसता दिखाई देता तो मुझे बहुत क्रोध आता। मां रो-धो कर पूजा के कमरे से बाहर निकलती तो मुझे ऐसा जान पड़ता मानों कृष्ण की कचहरी ने मेरी मां की फ़रियाद नहीं सुनी। पापा की बीमारी ने तो मां के मन का चैन हर लिया। पापा की तीमारदारी व पूजा के कमरे में अपने ईश्‍वर से गुहार के सिवा किसी भी चीज़ का मां को होश नहीं था। पापा की बीमारी ने घर को धो डाला। सब जमा पूंजी अस्पतालों में उपचार के भेंट चढ़ गई। ऐसे आड़े वक़्त में मां के बहते आंसुओं पर कृष्ण की मुस्कान मुझे बड़ी ज़हरीली-सी जान पड़ती। जिस दिन मां को पापा को कैंसर होने की मनहूस ख़बर सुनने को मिली उस दिन तो मैंने पापा की मौत के साये मां के चेहरे पर मंडराते देखे। उस दिन तो मां पूजा के कमरे से बाहर नहीं निकली। मां धाड़-धाड़ रोती रही और वो पत्थर लगातार मुस्काता रहा। उसकी कुटिल मुस्कान मेरे रोते दिल को बड़ी ही नागवार गुज़री। मैंने पहली बार पूजा के कमरे में जाकर मां और कृष्ण के बीच व्यवधान उत्पन्न किया- “इसके सामने जितना चाहो रो लो मां, इस पत्थर पर तेरे आंसुओं का कोई असर होने वाला नहीं है।” मैंने मां को जैसे झिंझोड़ ही डाला था। मां का आंसुओं भरा चेहरा व उस पर टिका पापा की मौत का साया मगर कृष्ण के प्रति अविश्‍वास का फिर भी उसमें कोई भाव उत्पन्न नहीं हुआ था। मेरे मन में कृष्ण के प्रति उत्पन्न अविश्‍वास के कारण मां का मन आहत अवश्य था। मां के लरजते स्वरों में जो वाक्य गूंजता मुझे उस वक़्त सुनाई दिया था वो आज भी गूंज रहा है- “यह चाहे तो क्या नहीं कर सकता?” अस्पताल के डॉ. ने पापा को घर ले जाने की आज्ञा दे दी। उपचार सारे विफल हो चुके थे। पापा का अन्त समय निकट आ रहा था। पापा को अपने रोग का पता न था। वो घर वापिस लाए गए तो उनके मुख की मलीन मुस्कान भी मां को सांत्वना नहीं दे पायी। मां, पापा की चारपाई से ही सारा दिन बन्धी रही। रात्रि पापा ने आंखें मूंदीं तो वह उठकर पूजा के कमरे में गई। चेहरे पर कोई भाव नहीं था उस दिन। हाथ जोड़ कर आंखें मूंदे कुछ पल खड़ी रही, फिर माथा टेक कर उसने अपने ईश्‍वर की तरफ़ जैसे अन्तिम उम्मीद से देखा। कृष्ण की वो मुस्कान मेरे लिए रहस्यमयी थी मगर मेरी मां के लिए शायद किसी गहरे अर्थों से भरपूर! ईश्‍वर की मुस्कान का जवाब जब मेरी मां के दर्द भरे दिल ने भी अपनी मुस्कान के साथ दिया तो मुझे ऐसा लगा मानों मां की आत्मा भी पापा की बीमारी के आगे हार गई हो। मैंने देखा मां चुपचाप स्थिर मन से पूजा के कमरे से बाहर निकली और अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ी। जब वो अपने कमरे में चली गई तो मैं कृष्ण के सामने जा खड़ा हुआ- वो मुझ पर भी मुस्कुरा रहा था- “अरे क्रूर, अगर मेरी मां की नहीं सुनी तुमने तो अच्छा नहीं होगा। हमारे इस हाल में तेरा यूं मुस्काना, मेरी तो समझ में नहीं आता। देख, मेरी मां पापा की मौत का सदमा नहीं सह सकेगी। अगर तू वास्तव में कुछ भी कर सकता है तो मेरे पापा को ठीक कर दे। मां का दुःख मुझ से बर्दाश्त नहीं होता।” मैं कृष्ण से घंटों फ़रियाद करता रहा। आंसू भी बहाए और आक्रोश भी जताया मगर कृष्ण मेरी हर बात पर मुस्कुराता रहा। अपनी विनती माने जाने की एक झूठी उम्मीद लिए मैं धीरे-धीरे पूजा के कमरे से बाहर निकल कर मां के कमरे के द्वार पर खड़ा हुआ। मां के कमरे की लाइट तो बन्द थी मगर खिड़की से छन कर आती चांद की चांदनी मां के मुख मण्डल पर पड़ रही थी। आंखों के दोनों कोरों से अविरल गंगा जमुना की धारा बहती मुझे साफ़ दिखाई दी। मैं मां के सिरहांदी चुप-चाप खड़ा हुआ मगर मेरे आने की आहट मां के सीने में मचे कोहराम में खो कर रह गई थी। मैं मां की आंखों के सामने आ गया तो मां की आंखों ने पलक झपक कर मेरी ओर देखा। मां की असहायावस्था मेरा दिल कंपा गई। मैंने मां के गर्म-गर्म आंसू अपने दोनों हाथों से पोंछ दिए। मां मुझे देख कर सहम-सी गई। मैंने उसके माथे पर हाथ फेर कर उसे दिलासा दिया- “घबराओ मत मां, कृष्ण सब ठीक कर देगा।” कृष्ण की मुस्कान हम दोनों के बीच जैसे आ खड़ी हुई थी दोनों के लिए अलग-अलग अर्थ लिए हुए। मैं मां के सामने से न हटता तो मेरी वहीं रुलाई फूट पड़ती। मैं उल्टे पांव पूजा के कमरे में लौट आया। कृष्ण अब भी मुस्कुरा रहा था मेरी पीड़ा पर या मां के आंसुओं पर। मां के विश्‍वास की हार हो गई तो क्या यह ईश्‍वर की हार नहीं होगी? मैं मूक रुदन कर रहा था वो सुन न रहा हो मैं मानने को तैयार नहीं। उसकी मुस्कान बदली या नहीं, मैं नहीं जानता मगर मेरी भावनाओं के उठे तूफ़ान में मेरे विचारों की उथल पुथल ने जितनी बार भी नज़र फेरी उतनी बार मुझे उसकी मुस्कान के रूप और अर्थ बदलते नज़र आए। कभी उसकी मुस्कान में व्यंग्य दिखा तो कभी अभिमान, कभी मेरी उफनती लाचारी ने उसकी मुस्कान को भी निरीह सा बना कर रख दिया। अन्ततः उसकी ढीठ मुस्कान ने मेरे भीतर की पीड़ा को भी एक उपहास भरी मुस्कान में ढाल दिया तो मानों कृष्ण को मेरी मुस्कान गवारा ही नहीं हुई। मेरे जैसे तुच्छ व्यक्‍त‍ि को ही मानों वह अपना विराट रूप दिखाने को व्यग्र हो उठा। मेरे भीतर के ब्रह्माण्ड को उसने जैसे झकझोर कर रख दिया। बादल ने उमड़ कर चांद को ढक लिया। मैं भय से कांपने लगा। पापा के कमरे में कुछ गिरने के स्वर ने मुझे उधर लपक लेने को विवश कर दिया। पूजा के कमरे से भागता बाहर निकला तो आसमान का वीभत्स दृश्य देख कर मेरा कलेजा दहल उठा।

काले सफ़ेद बादलों के स्वरूप को अध-छुपे चन्दा की हल्की चांदनी ने इतना विकराल रूप प्रदान कर रखा था कि मुझे लगा कि क़यामत की रात में अवश्य ही मेरी मां के दिल पर बिजली गिरने वाली है। बादलों की गरज ने वातावरण को बहुत ही भयानक बना दिया था। मैंने पापा के कमरे में जाकर देखा पापा का शरीर बिस्तर पर से आधा नीचे लुढ़का हुआ था। मेरा कलेजा धक् से रह गया। मैंने पापा को बिस्तर पर लिटा कर सीधा किया। उनकी कटार जैसी नुकीली नज़रों का सामना करना वैसे ही मेरे वश की बात नहीं थी। चेहरे पर भारी वेदना तांडव कर रही थी। पापा के होंठ फड़फड़ा रहे थे मगर हलक से स्वर नहीं निकल पा रहा था। पापा मेरी बांहों में दुबक जाना चाहते थे, कुछ कहना चाह रहे थे मगर शब्दों को ध्वनि नहीं मिल रही थी। पापा का तड़पना उनके अन्तिम पलों का संकेत दे रहा था। “हाय मेरी मां यह सब कैसे सहन करेगी?” पापा ने भीतर से सारी ताक़त एकत्र करके मौत का हाथ उमेठना चाहा मगर मौत के क्रूर पंजों ने मेरे निरीह और बीमार पापा को जो दबोचा उनके हलक से चीख भी उभरने नहीं दी। पापा ने मेरी बांहों में दम तोड़ दिया। मां को ख़बर कैसे दूंगा? बाहर ज़ोर से बादल गरजे और तेज़ तूफ़ानी हवाओं ने बरसात की बौछार को पापा के कमरे में ज़ोर से उछाला। मां भी अभी उठ कर आती होगी। अगले ही ख़ौफ़नाक दृश्य की कल्पना से भयभीत हो कर मैंने मृत पापा को सीधा उनके बिस्तर पर लिटा दिया। भीतर बाहर दोनों ओर तूफ़ान मचा हुआ था। बिजली फिर कौंधी, बादल मिल कर गरजे तो आसमान जैसे धाड़-धाड़ रोने लगा। प्रकृति मेरी मां की पीड़ा में जैसे पागल हो कर बिफर उठी थी। मैं बरसते पानी में डग भरते-भरते पूजा के कमरे के निकट पहुंचा। कृष्ण भी बौछारों से भीग रहा था मगर उसके चेहरे की मुस्कान फिर भी धुल नहीं पाई थी। पर्दे खिड़कियां सब निरंकुश हिल रहे थे भीग-भीग कर। मैं भी उस मुस्कान पर जैसे बिफर पड़ा था। मैंने कृष्ण से लड़ने के लिए क्रोध में बिजली जलाने के लिए सभी बटन दबा दिए। पूजा का कमरा रौशनी से नहा उठा। भीतर का दृश्य और भी भयावह था। मेरी प्यारी मां कृष्णा के चरणों में औंधी लेटी थी। बरसात की उड़ती बौछारें भक्‍ति‍न और भगवान् दोनों को एक किए हुए थी। मेरी मां की मांग का सिंदूर अभी भी चमक रहा था। सभी भारतीय विवाहित महिलाओं की तरह सुहागिन मरने की तमन्ना मेरी मां की भी रही होगी और यह तमन्ना कितनी बलवान् रही होगी जिसे कृष्णा भी ठुकरा नहीं पाया। मां के पथराये हुए चेहरे पर ठीक वैसी ही मुस्कान उतरी हुई थी जो सदैव पहले कृष्णा के मुख पर मुझे दिखाई देती आई थी। आज संगेमरमर का कृष्णा भी मां की तरह कोमल, दयालु और जीवंत मालूम पड़ रहा था और मेरी मां कृष्ण की तरह संगेमरमर की मुस्कुराती मूर्त की तरह दिखाई दे रही थी। मैं तब तक आंसुओं से दोनों की प्रतिमाओं के चरण धोता रहा जब तक कि मेरे भीतर का सारा दर्द धुल नहीं गया। जब मुझे होश आया तो संसार पहले की भान्ति सहज और सामान्य रूप से चलने लगा था। आसमान भी धुल कर साफ़ हो गया था। कृष्णा अब भी वही मुस्कान लिए हुए है मगर अब उसके सब रहस्य खुल चुके हैं। ईश्‍वर की मुस्कान का अर्थ मेरी समझ में आ चुका है।   

 

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