-धर्मपाल साहिल

बेचारा कौआ, न किसी से कुछ लेता है, न देता है। फिर भी हम उसे मुंडेर पर भी बैठने नहीं देते। हमें उसके बोल अच्छे नहीं लगते। कई बार तो हम उसके मुंह पर भी यह कहने से गुरेज़ नहीं करते, ‘क्या कौए की भांति कांव-कांव लगा रखी है।’ इसके विपरीत कोयल हमें क्या देती है ? पर हम उसकी वाणी के प्रशंसक हुए फिरते हैं। हम उसकी मीठी आवाज़ को शुभ समझते हैं। हालांकि दोनों का रंग काला ही होता है। कोयल अपने मीठे बोलों के कारण समाज में सम्मान प्राप्‍त करती है और लोगों की प्रशंसा-पात्र बनती है। यह सामाजिक विषमता प्राणी के अपने गुणों एवं अवगुणों के आधार पर होती है। यदि हमारे अंदर मीठा बोलने का गुण है तो हम परायों को भी अपना बना लेते हैं, लेकिन कड़वे वचनों से अपने भी पराए हो जाते हैं। मधुर भाषण से मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्षी भी देवता का स्थान प्राप्‍त कर लेते हैं। यह वह पारस है जिससे लोहा भी सोना बन जाता है। यह वो औषधि है, जिससे दिलों के विकार दूर हो जाते हैं। यह एक वशीकरण मंत्र है, जिससे हम दूसरों के हृदय में घर कर जाते हैं। इस अमृत से हम मृत प्राय: रिश्तों में नई जान फूंक सकते हैं। इस से वक्‍ता एवं श्रोता दोनों ही आनंद का अनुभव करते हैं।

मधुर भाषण से मनुष्य को समाज में आदर प्राप्‍त होता है। मीठा बोलने वाले के मुख से शब्द ऐसे निकलते हैं जैसे फूल झड़ते हैं। एक बार सम्पर्क में आया ऐसा व्यक्‍ति हमेशा के लिए आपका हो जाता है। लोगों की आपके साथ हमदर्दी हो जाती है। लोग दु:ख अथवा कठिन घड़ी में सहयोग देते हैं। उसके सभी कार्य आसानी से हो जाते हैं। मीठा बोलने वाले व्यक्‍ति के अंदर से अहंकार, ईर्ष्‍या व घृणा जैसी भावनाएं अपने आप ही समाप्‍त हो जाती हैं। अहंकारी मनुष्य कभी भी मीठा नहीं बोल सकता। वह दूसरे का मन दु:खी करके अपना मन बहलाता है।

इस से दूर मीठा बोलने में मनुष्य में नम्रता, शिष्‍टाचार एवं सुहृदयता जैसे गुण पनपने लगते हैं। क्रोध उसके निकट नहीं फटकता। गुस्सा मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है। यह मनुष्य की बुद्धि नष्‍ट कर देता है। इसका अन्त पश्‍चाताप के साथ होता है। इस में हानि-लाभ की कोई होश नहीं रहती। जबकि मीठा बोलने वाले व्यक्‍ति की कीर्ति दूर-दूर तक फैलती है। लोग उसका गुणगान करते नहीं थकते। ऐसे व्यक्‍ति को अपने जीवन के उद्देश्यों को प्राप्‍त करने में अधिक सफलता प्राप्‍त होती है। उसके इस आकर्षक व्यवहार से दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं। उसके सभी शुभचिंतक होते हैं। कबीर जी ने कहा है-

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।

कहा जाता है कि तीर-तलवारों के ज़ख्‍़म भर जाते हैं, लेकिन जो घाव किसी के कड़वे वचनों से होते हैं, वह मरते दम तक नहीं भरते। समय-समय पर उनकी टीस पैदा होती है तथा मनुष्य तिलमिला कर रह जाता है। उसके भीतर नफ़रत की भावना पैदा होती है, वह बदला लेने वाली भावना से भरा रहता है। वह कड़वे शब्दों से दूसरों का हृदय दुखाता ही है, स्वयं भी स्थान-स्थान पर अपमान का पात्र बन जाता है। ऐसे व्यक्‍ति के साथ कोई बात करनी पसंद नहीं करता है। उसके दु:ख-दर्द से किसी को हमदर्दी नहीं होती। अगर होती भी है तो ऊपर-ऊपर से। शालीन लोग उसे असभ्य समझते हैं। लोग उसके पास खड़ा होना पसंद नहीं करते। कई बार तो उसके कटुवचनों से पीड़ित व्यक्‍ति हाथापाई तक उतर आते हैं। ऐसे लोगों के लिए तुलसीदास ने कहा भी है-

खीरा मुख ते काटी के, मलीयत नमक लगाए

तुलसी कड़ुए मुखन को, चाहिए यही सज़ाए।

 

जिस प्रकार खीरे का मुख कड़वा होता है। उसका कड़वापन दूर करने के लिए उसका मुख काट कर, नमक लगा कर रगड़ा जाता है, तब जाकर उसका कड़वापन दूर होता है। इसी प्रकार कड़वा बोलने वाले व्यक्‍ति को भी यही सज़ा देनी चाहिए।

समाज में जिन भी महापुरुषों ने ऊंचे स्थान प्राप्‍त किए हैं, मान प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त की है, वे सभी मधुर भाषण करने वाले ही हुए हैं। उन्होंने अपने मीठे वचनों से पत्थर दिलों को पिघला दिया। महात्मा बुद्ध ने अपने कट्टर विरोधियों को भी कड़वे शब्द नहीं कहे। ईसा मसीह ने सूली पर टांगे जाने के समय भी ईश्‍वर से यही दुआ की थी कि प्रभु इन्हें क्षमा कर दे, इन्हें नहीं मालूम कि यह क्या कर रहे हैं। कौरवों के कड़वे वचन सुनकर भी श्री कृष्ण ने मीठे बोलों से उत्तर दिया। शंकर जी का धनुष भंग हो जाने पर क्रोधित परशुराम ने तो गुस्से भरी कई बातें कहीं, लक्ष्मण भी आपे से बाहर हुए, लेकिन श्रीराम मुस्कुराते रहे तथा मीठे वचनों से उन का उत्तर देते रहे। प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू की तुलना में महात्मा गांधी दुश्मनों से मधुर भाषण ही करते थे, इसीलिए महात्मा गांधी, श्री नेहरू से विश्‍व स्तर पर अधिक सम्मानयोग्य स्थान रखते हैं।

आज के युग में कई लोग ऐसे भी मिल जाते हैं, जो सिर्फ़ अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु ही मीठा बोलते हैं। उनका यह व्यवहार कृत्रिम होता है। वे ऊपरी मन से मीठा बोलने का सजीव नाटक करते हैं लेकिन दिल से कड़वे या दिल के काले होते हैं। इसीलिए शायद यह अक्सर कहते सुना जाता है कि ‘बच के रहना, वह मीठी छुरी है।’ साथ ही ‘भाई वह ज़ुबान का कड़वा ज़रूर है पर दिल का साफ़ है। उस का दिल पेट कुछ नहीं है।’ ऐसे व्यक्‍ति हमें अपने आस-पास आसानी से मिल जाते हैं। स्वार्थ के लिए मीठा बोलने वालों से सावधान रहना चाहिए। ऐसे व्यक्‍ति अधिक देर समाज में सम्मान प्राप्‍त नहीं करते।

बुज़ुर्ग अक्‍सर कहते सुने जाते हैं कि इतने मीठे भी न बनो कि लोग निगल ही जाएं, इतने कड़वे भी न बनो कि लोग थूक दें। प्रत्येक धार्मिक ग्रंथ एवं नीति शास्त्र मनुष्य के मीठा बोलने की आवश्यकता पर बल देते हैं। लेकिन आधुनिक समय में नई पीढ़ी मधुर भाषिणी नहीं है। वह घर पर अपने छोटे-बड़ों, स्कूल-कॉलेज में सहपाठियों व अध्यापकों, कार्यालयों में अपने सहकर्मियों व बॉस से कड़वे वचनों का आदान-प्रदान करते हैं। अक्खड़पन तथा दूसरों का निरादर करने वाले शब्द बोलना वे अपनी शान समझते हैं। यह बहुत ही ग़लत रुझान है। जो नई पीढ़ी को असभ्य बना रहा है। अपने श्रेष्‍ठ चरित्र के निर्माण हेतु मधु भाषण का गुण अवश्य होना चाहिए। तभी हम लोगों का मन जीत सकेंगे आपसी मेल-मिलाप एवं एकता पैदा कर सकेंगे। मधुर भाषण के लिए प्रकृति भी हमारा साथ देती है। बकौल शायर-

कुदरत को भी ना-पसंद है, सख्‍़ती इन्सान में

इसीलिए नहीं है हड्डी, शायद इस ज़ुबान में।

 

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