-तेजप्रीत कौर कंग
भारत एक स्वतंत्र देश है। हमारे संविधान में सभी को चाहे वह लड़का है या लड़की, स्त्री है या पुरुष एक जैसे अधिकार तथा हक़ दिए हैं। लेकिन हम यदि अपने अंदर झांक कर देखें तो यह बात नि:संकोच कही जा सकती है कि हम चाहे अपने आप को कितने ही नए विचारों वाला समझें फिर भी हम स्त्रियों के प्रति दूसरे स्तर का व्यवहार रखते हैं तथा जहां कहीं भी अवसर मिले उनका शोषण करते हैं।
आज भी हम लड़के के जन्म को खुशकिस्मती तथा लड़की के जन्म को बदकिस्मती की नज़र से देखते हैं। जहां लड़के के जन्म को वरदान समझा जाता है वहां ही एक से अधिक लड़कियों के जन्म को श्राप समझा जाता है। कई परिस्थितियों में तो आधुनिक टैस्टों तथा डॉक्टर की सहायता से लड़की को इस दुनिया में आने से पहले ही ख़त्म कर दिया जाता है। पहला बच्चा यदि लड़का है तो दूसरे बच्चे के समय यह टैस्ट करवाने की कोई ज़रूरत नहीं समझी जाती तो फिर यही टैस्ट उस परिस्थिति में क्यों ज़रूरत बन जाता है जब कि पहला बच्चा लड़की हो। इन कारणों के कारण ही हमारे देश में स्त्री-पुरुष अनुपात बिगड़ रहा है तथा लड़कियों की गिनती लड़कों से कम हो रही है। हमें इस बिगड़ रही स्थिति की ओर ध्यान देने की ज़रूरत है तथा लड़की को बचाने तथा उसकी रक्षा करने की ज़रूरत है।
लड़के की खबर सुन कर घर में खुशी का माहौल छा जाता है। लड्डू बांटे जाते हैं। मुबारक दी जाती है। लोहड़ी मनाई जाती है। उसका हर पहला त्योहार विवाह की तरह मनाया जाता है। लेकिन लड़की के जन्म पर इस तरह नहीं होता। घर की बात घर में ही रखी जाती है। न ही कोई मुबारकबाद देने आता है और न ही कोई लोहड़ी मांगने। यह भेदभाव क्यों? घर में लड़की का जन्म अन्दर ही अन्दर एक बार सब को हिला कर रख देता है। शुरू से ही उसे कहना मानने, दबाव में रहने, झुकने तथा चुप रहकर बात सुनने की आदत दी जाती है। इससे विपरीत लड़के को निडर रहने तथा हुकम चलाने की आदत दी जाती है। किसी और बच्चे को पीटने पर उसे बहादुर कहा जाता है। भाई-बहन की लड़ाई पर भाई का पलड़ा भारी रहता है। बहन को डांट कर चुप करवा दिया जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि लड़के बुरे होते हैं बल्कि लड़का तथा लड़की (बेटी या बेटा) तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तथा दोनों का होना ज़रूरी है। समाज के निर्माण के लिए दोनों का योगदान होना ज़रूरी है। बात तो दोनों में रखे जा रहे भेदभाव की है।
इस भेदभाव को हवा देने में माताओं का पूरा हाथ होता है। लड़के को दूध का गिलास भर कर तथा लड़की को कम दिया जाता है। लड़के की कटोरी में घी ज़्यादा तथा लड़की की कटोरी में घी कम डाला जाता है। स्कूल से आने पर लड़के को आराम करने के लिए तथा लड़की को घर के काम में सहायता करने के लिए कहा जाता है। लड़के का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है। उसको ख़र्च करने के लिए अधिक पैसे दिए जाते हैं। यदि लड़का कभी घर का कोई काम करने भी लगे तो उसको यह कह कर, “नहीं बेटा, लड़के यह काम नहीं करते।” वह काम उससे छुड़ा लिया जाता है। खेलना उसका अधिकार माना जाता है। यह पूछने पर कि लड़का-लड़की में यह भेदभाव क्यों? तो आम जवाब यही होता है “लड़कों से तो वंश चलता है, खा-पी कर ताकतवर बनेगा तो ही आने वाली पीढ़ी भी ताकतवर होगी।” लेकिन लड़की के बारे में कोई नहीं सोचता जिसने वंश आगे बढ़ाना है तथा आने वाली पीढ़ी को जन्म देना है, यदि उसकी देखभाल ही सही नहीं हो रही, उसे प्यार तथा संभाल नहीं मिल रही तो आने वाली सुन्दर पीढ़ी को किस तरह जन्म देगी तथा उसकी सही देखभाल किस तरह करेगी। परन्तु इस सच्चाई को प्रत्येक नज़र अंदाज़ कर देता है। कुछ शहरी पढ़े-लिखे या अमीर माता-पिता भले ही इन बातों से सहमत न हों और कहें कि अब यह भेदभाव नहीं होता। हमने अपनी लड़कियों को बराबर के अधिकार दिए हैं परन्तु मैं यहां साधारण जनता की बात कर रही हूं जो हमारे देश में बहुगिणती में हैं, जो अनपढ़, गरीब, लाचार हैं। जो शहरों में भी रहते हैं तथा गांवों में भी। उनके लिए यह बातें जानी-पहचानी हैं, नई नहीं।
साधारणतया यही कहा जाता है कि लड़कियां तो पराया धन हैं, उनको तो दूसरों के घर जाना है। यदि इस प्रकार है तो फिर हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उन्हें अपने घर में अधिक से अधिक प्यार तथा संभाल दें। यदि उनको अपने घर में सुखी तथा खुशहाल वातावरण मिलेगा तब ही वह ससुराल जाकर सुखी संसार सजा सकेंगी।
दहेज की प्रथा ही लड़कियों को बोझ बनाने के लिए ज़िम्मेवार है। समाज की अपनी बनाई यह प्रथा ही अब समाज की दुश्मन बन गई है। लड़की के जन्म लेते ही माता-पिता को उस के दहेज और उस के ऊपर होने वाले ख़र्चे की चिन्ता लग जाती है। समय के साथ-साथ लोगों की उम्मीदें तथा मांगें भी बढ़ रही हैं। वह मुंह खोलने में समय नहीं लगाते। हर एक माता-पिता के लिए इन मांगों को पूरा कर पाना असम्भव है। लड़की चाहे जितनी भी पढ़ी-लिखी एवं आत्मनिर्भर क्यों न हो, दहेज की आशा सभी से की जाती है। माता-पिता यह सोचकर कि पढ़ा-लिखा कर भी तो लड़की को दहेज देना ही है इसलिए यही अच्छा है कि कम पढ़ा-लिखाकर दहेज अधिक दिया जाए। वह पढ़ाई को दहेज से कम अहमियत देते हैं। लेकिन इसमें लड़की का क्या क़सूर है। उसमें प्रतिभा तथा क़ाबिलीयत होते हुए भी उसको अधिक पढ़ने के लिए उत्साहित नहीं किया जाता। “तुमने कौन सा आगे जाकर नौकरी करनी है, घर ही तो संभालना है,” यह कह कर उसकी पढ़ाई बीच में ही छुड़ा दी जाती है। पढ़ाई केवल नौकरी करने के लिए ही नहीं की जाती बल्कि पढ़ाई का मुख्य उद्देश्य व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास है जो सभी के साथ-साथ लड़की के लिए ज़रूरी है क्योंकि उसको एक पत्नी, बहू तथा मां बनना है। इसलिए माता-पिता का फ़र्ज़ बनता है कि अपनी लड़की को उच्च शिक्षा के लिए उत्साहित करें ताकि लड़की अपने पैरों पर खड़ी हो सके या इस क़ाबिल बन सके। पढ़ाई का यह दहेज सारी उम्र उसके काम आएगा। बेशक एक पढ़ी-लिखी लड़की ज़िन्दगी में किसी भी समय आने वाली कठिनाई का सामना अधिक दिलेरी से कर सकती है।
लड़कियों को कमज़ोर माना गया है। उनको अपनी रक्षा खुद करने में असमर्थ माना गया है। इसलिए आमतौर पर उससे घर के कार्य करवाए जाते हैं तथा बाहर निकलने के अवसर कम दिए जाते हैं। पर आज के युग में यह धारणा बदलने की आवश्यकता है। क्योंकि स्त्री हर क्षेत्र में पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही है। वह डॉक्टर है, इन्जीनियर है, पुलिस-अफ़सर है, डिप्टी कमिश्नर है, जज है, वकील है, पायलट है और तो और अब वह माऊंट ऐवरेस्ट पर भी पहुंच चुकी है और कई क्षेत्रों में वह पुरुषों से भी आगे निकल गई है।
बहुत बार यह भी देखा गया है कि कई परिवारों में लड़कियां लड़कों से नेक औलाद साबित होती हैं। वह अपने परिवार का नाम रौशन करती हैं तथा बूढ़े माता-पिता की सेवा करती हैं। आज भी हमारे देश में कई ऐसे कबीले हैं जहां समाज स्त्री प्रधान है तथा जहां लड़की लड़के को ब्याह कर लाती है। क्या ऐसे समाज में भी लड़की के जन्म को बदकिस्मती समझा जाता होगा।
आज हमें यह सोचने की आवश्यकता है कि हम इस खाई को कैसे भर सकते हैं। सबसे पहले हमें अपने ख़्यालों में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। हमारा बोलना, सोचना या कुछ करना हमारे बचपन में दी गई शिक्षा पर निर्भर करता है जो मां की गोद में ही शुरू होती है। यदि इन परिस्थितियों को बदलना है तो आरम्भ अपने घर से ही करना पड़ेगा। बचपन में ही बच्चों में सोचने के सही दृष्टिकोण तथा व्यवहार विकसित करने पड़ेंगे। इसलिए माता-पिता को बिना किसी भेदभाव के बच्चों को अच्छा वातावरण देना चाहिए ताकि वह आगे चल कर शोषक या शोषित न बन कर अच्छे साथी बन सकें।
हमें सोचना तथा समझना चाहिए कि यदि भगवान ने सबको चाहे वह लड़का है या लड़की, एक ही धरती तथा एक ही आसमान दिया है तो फिर प्रकृति के विरुद्ध होकर लड़का-लड़की में भेद करने वाले हम कौन होते हैं। बच्चे को केवल इस लिए स्वीकार न करना कि वह लड़की है, पाप है। वह भी भगवान का बनाया हुआ इन्सान है तथा उसमें भी जान है। बड़ी हो कर यही लड़की आप के दु:ख-सुख की साथी बनेगी। समाज में आपका नाम रौशन करेगी तथा आप उसके माता-पिता कहलवाने में गर्व महसूस करेंगे।