-विजय रानी बंसल

वर्जित सम्बन्ध यानी कि विवाहेत्तर सम्बन्ध! एक विवाहित का दूसरे विवाहित से चोरी छिपे लुका-छिपी का खेल। चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, पर-पुरुष या पर-स्त्री से चोरी छिपे वह सम्बन्ध रखने को लालायित जिसे समाज में वर्जित माना जाता है। इसे मजबूरी कहें या स्टेटॅस सिम्बल या फिर मात्र संयोग। शताब्दियों पुराने वैवाहिक सम्बन्धों को आधुनिकता के नाम पर कलंकित करने का साहस।

प्राचीन काल से ही विवाह को समाज की सबसे पवित्र संस्था माना जाता रहा है। दो शरीर ही नहीं वरन् दो आत्माओं का जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध जिसके टूटने या बिछुड़ने की सोच मात्र से ही रोम-रोम कांप उठता है। आज हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। आज की दौड़ भाग भरी व्यस्त ज़िन्दगी और उपभोक्तावादी संस्कृति के समय में मानवीय सम्बन्ध सिर्फ़ ज़रूरतों पर आधारित हो गए हैं। संवेदना, प्यार, दुलार, समर्पण, त्याग जैसी भावनाएं कहीं कोने में दबी आख़िरी सांसें ले रही हैं। आज के सम्बन्ध चाहे वे पति-पत्नी के हों, बाप-बेटे, मां-बेटी या फिर भाई-भाई के सभी में संवेदनाएं या प्यार नहीं वरन् ज़रूरतें प्रमुख हो गई हैं। आज की महिलाएं घर की चारदीवारी से निकलकर बाहर की दुनियां में क़दम रख रही हैं। वे महत्वाकांक्षी होने के साथ-साथ शिक्षित भी हो गई हैं और उन सब क्षेत्रों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर रहीं हैं जिन्हें अब तक सिर्फ़ पुरुषों का ही अधिकार क्षेत्र माना जा रहा था। स्त्री हो या पुरुष हर कोई अपना जीवन अपने तरीक़े से जीना चाहता है। वह हर क्षेत्र में स्वतन्त्रता चाहने लगा है। यही कारण है कि घर-घर में आज पति-पत्नी के बीच तनाव, घुटन, तू-तू मैं-मैं, कलह-क्लेश और परिणाम स्वरूप तलाक़ तक की नौबत आ गयी है। आज समाज का रूप विकृत हो गया है।

आज भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के बीच शीत युद्ध चल रहा है। पाश्चात्य संस्कृति हमारे संस्कारों पर हावी होती चली जा रही है। इस घुटन भरे माहौल में आदमी कहीं दूसरी औरत के आंचल की छांव तलाश रहा है तो कहीं औरतें दूसरे पुरुषों की बांहों में खुद को ज़्यादा महफ़ूज़ समझ रही हैं। यह जानते हुए भी कि यह सच्चा सुख नहीं है सिर्फ़ एक मृगतृष्णा है और सुख की तलाश में भटकन मात्र है। ऐसे सम्बन्ध समाज में मान्य नहीं, इज़्ज़त की निगाहों के हक़दार नहीं। इनका परिणाम केवल मानसिक घुटन, तनाव और पारिवारिक विघटन ही है। फिर भी न जाने क्यूं! वर्जित सम्बन्धों की छटपटाहट हर दिल में है क्योंकि दिल है कि मानता ही नहीं।

यह सोचने वाली बात है कि आख़िर आदमी दिल के हाथों इतना मजबूर क्यों है? यह जानते हुए भी कि यह सब मात्र एक छलावा है। आख़िर वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से विवाहेत्तर सम्बन्धों का दायरा फैलता ही जा रहा है। क्या स्त्री-पुरुष महज़ शारीरिक भूख को शांत करने के लिए ही एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं? या फिर स्त्री-पुरुष के जीवन से सुरक्षा की भावना ख़त्म होती जा रही है? वैसे देखा जाए तो विवाहेत्तर सम्बन्धों की परम्परा कोई नयी या आधुनिक युग की देन नहीं है। प्राचीन काल से ही स्त्री-पुरुष दोनों ही इस तरह के वर्जित सम्बन्ध बनाते आए हैं। परन्तु पहले एक बात ज़रूर थी और वह यह कि पहले इस तरह के सम्बन्धों में इतना खुलापन नहीं था और उन्हें गुप्त रखने की पुरज़ोर कोशिश की जाती थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस तरह के सम्बन्धों के आंकड़े आश्चर्यजनक रूप से निरन्तर बढ़ रहे हैं।

विवाहेत्तर सम्बन्धों की पृष्ठभूमि में छिपे कारणों की यदि जांच-पड़ताल करें तो बीसियों कारण सामने आ जाएंगे। यौन-शिक्षा, आर्थिक आत्म निर्भरता, तेज़ रफ़्तार से दौड़ती ज़िन्दगी, स्त्री या पुरुष में से किसी एक का लम्बे समय तक घर परिवार से दूर रहना, बीमारी की अवस्था में पत्नी की अनुपस्थिति में पर-स्त्री की सेवाएं मिलना या फिर पत्नी का पति पर अधिक ध्यान न देना, पति की नज़रों में पत्नी की कोई अहमियत न होना, किसी स्त्री या पुरुष से बार-बार सामना होना आदि अनेकों ऐसे पहलू हैं जिनकी वजह से पति-पत्नी के मध्य दूरियां बढ़ती जाती हैं और विवाहेत्तर सम्बन्धों को क़ायम करने में सहायक होते हैं।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि कमज़ोर व तनावपूर्ण दाम्पत्य जीवन में इस तरह के सम्बन्ध पनपने की संभावना अधिक रहती है। पति-पत्नी जब एक दूसरे की शारीरिक व मानसिक ज़रूरतों को समझ नहीं पाते हैं या फिर नज़र अन्दाज़ करते रहते हैं तो इससे एक-दूसरे का स्वाभिमान आहत होता है और वे पर-पुरुष या पर-स्त्री की ओर आकर्षित होने लगते हैं। परन्तु यह भी ज़रूरी नहीं है कि ऐसे सम्बन्ध केवल तनावपूर्ण दाम्पत्य जीवन में ही पनपते हैं। कई मामलों में इस तरह के सम्बन्ध पूर्ण सुखी और संतुलित दाम्पत्य जीवन में भी देखे गये हैं। इसके पीछे परिवर्तन की चाह, नवीन के प्रति आकर्षण ही है।

परिर्वतनशीलता प्रकृति का नियम है। ठहराव की स्थिति सदा ही खतरनाक होती है। यदि सुन्दर व आकर्षक झील का पानी भी ठहर जाता है तो उसमें भी काई जम जाती है और वह सैलानियों को आकर्षित कर पाने में असमर्थ हो जाती है। अतः जीवन में ताज़गी, नयापन ग़ायब हो जाने पर और ठहराव की स्थिति आ जाने पर विवाहेत्तर सम्बन्ध क़ायम हो जाते हैं। उच्चस्तीरय जीवन जीने की चाह और आधुनिक सुख-सुविधाओं को भोगने की लालसा महिलाओं को बार-बार धनवान पुरुषों की ओर धकेलती है। अपनी ज़रूरतों को पति की कमाई से ही पूरा न कर पाने की स्थिति में वे पैसे वाली मोटी मुर्गी की तलाश करती हैं और फिर हर सम्भव प्रयास द्वारा उस पुरुष को अपने मोहपाश में बांध ही लेती हैं।

आजकल एकल परिवारों की परम्परा बढ़ रही है और संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। पति की अत्यधिक व्यस्तता या फिर काफ़ी समय तक घर से बाहर दौरे पर रहने से पत्नियां अकेलेपन का संत्रास झेलती हैं जो उनमें ग़ुस्सा व ऊब पैदा कर देता है। ऐसे में यदि कोई पुरुष उनसे दो मीठे बोल, बोल लेता है तो वे बिना सोचे समझे उसकी ओर आकृष्ट होने लगती हैं। कभी-कभी अत्यधिक महत्वाकांक्षा भी स्त्रियों को इस दलदल में फंसा देती हैं। कामकाजी महिलाएं अक्सर पदोन्नति पाने के लिए अपने उच्चाधिकारियों से ग़लत सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं। पुरुषों के साथ बराबरी का दावा करने वाली कुछ महिलाएं इस तरह के सम्बन्ध सिर्फ़ पति की बराबरी करने के लिए ही बनाती हैं।

कारण चाहे कुछ भी हों परन्तु इसमें सन्तुष्टि कहीं भी नज़र नहीं आती है। यौन सुख पाने की मृगतृष्णा में स्त्री-पुरुष इस क़दर भटक गए हैं कि विवाहेत्तर सम्बन्धों की भूल-भुलैया में उलझ कर रह गये हैं। इस तरह के सम्बन्ध दीमक की तरह किसी भी परिवार की खुशहाल दीवारों में घुसकर उसे खोखला कर देते हैं और अन्ततः परिवार भरभरा कर ढह जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने और अनुशासित दाम्पत्य सम्बन्धों को तोड़ने की पहल पुरुष वर्ग ही करता है।

एकरसता से शायद वही ऊबता है और सम्बन्धों में नयापन या सरसता लाने के लिए वही पर-स्त्री के आंचल की छांव तलाशता है। परन्तु यदि हम ग़ौर से देखें तो पायेंगे कि आज के बदलते परिवेश और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभावस्वरूप स्त्रियां भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। ऐसी महिलाएं जिनके पति उनकी तरफ़ ध्यान नहीं देते या जिनके घर में हर रोज़ कलह-क्लेश का वातावरण रहता है, अक्सर शान्ति की तलाश में पर-पुरुषों की बांहों में लुढ़क जाती हैं। अपने को सभ्य और शिक्षित समझने वाली महिलाएं तो एक से ज़्यादा सम्बन्ध रखना स्टेटॅस सिम्बल समझती हैं। अतः इसका दोषारोपण केवल पुरुषों पर करना उचित नहीं है। वैसे भी इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि जब तक स्त्री की तरफ़ से प्रतिक्रिया स्वरूप स्वीकृति नहीं होती, पुरुष उस सम्बन्ध को आगे बढ़ाने का साहस ही नहीं कर पायेगा।

वर्जित सम्बन्धों के लिए स्त्री या पुरुष किसी एक पर दोषारोपण करना क़तई उचित नहीं है। यदि पुरुष सामाजिक नियमों को तोड़ सकता है, विवाह जैसी पवित्र संस्था का अपमान कर सकता है तो स्त्री क्यूं नहीं? वह क्यों उस सम्बन्ध को घुट-घुट कर ढोने को मजबूर हो जिसमें उसे घुटन तनाव, उपेक्षा अपमान और तिरस्कार के अलावा कुछ भी न मिल रहा हो। किन्तु हम इस बात के लिए कितना भी छटपटा लें सत्य यही है कि मर्द चाहे जो भी कर ले, औरतों के लिए ऐसे सम्बन्ध कदापि स्वीकार्य नहीं है। उन्हें इसके लिए कभी माफ़ नहीं किया जा सकता। वैसे भी हमारे देश में औरत को देवी का दर्जा प्राप्त है और उसे इस को निभाना ही होगा। इसके लिए उसे चाहे कोई भी क़ीमत क्यूं न चुकानी पड़े? विवाहेत्तर सम्बन्ध वैसे भी सुखों की गारंटी नहीं है। वह पुरुष जो पर-स्त्री के लिए अपनी पत्नी से विमुख हो सकता है, क्या गारंटी है कि अधिक सुख की चाह में उस औरत को छोड़कर किसी तीसरी को नहीं अपनायेगा?

यह तो एक ऐसा मायावी जाल है जिसमें एक बार उलझकर निकलना मुश्किल है। अतः हमें सम्बन्धों को न ही मात्र ज़रूरतों के आधार पर वरन् संवेदनाओं के आधार पर सुदृढ़ बनाना होगा। अपनी व्यस्त जीवन शैली को संयमित करके अपने परिवार के सदस्यों की भावनाओं, ज़रूरतों व समस्याओं को समझना होगा और पति-पत्नी को एक-दूसरे की क़दर करनी होगी और उसे अपना पूरक समझना होगा। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब विवाह नाम की पवित्र संस्था का कोई अस्तित्त्व नहीं रह जाएगा और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का आधार मानवीय मूल्य नहीं वरन् मात्र शारीरिक सुखों की प्राप्ति पर आधारित हो जाएगा।

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