आज मन बहुत उदास है। रह-रह कर आंखें भर आती हैं। कोठी के फाटक पर झूलती बोगन की सफ़ेद, पीले फूलों से भरी लतर पर अपनी धुंधलाई दृष्टि टिकाए लॉन में अकेली बैठी हूं। कुछ समय पहले तक क्यारियों में महकते अनगिनत इन्द्रधनुषी छटा बिखेरते सदा बहार फूलों से सजा रहता था यह। पर आज इसकी रेशमी घास पर घर का ढेरों सामान बेतरतीबी से बिखरा है, फाटक के बाहर दो-तीन ट्रक खड़े हैं और बहुत से लोग फूल-पत्तों को रौंदते हुए अंदर बाहर जा रहे हैं।

सूरज की गर्मी बढ़ने लगी तो उठ कर अंदर आ गई पर यहां भी सब अस्त-व्यस्त है। जगह-जगह गत्ते के डिब्बे, पेटियां और पुरानी अख़बारों के ढेर लगे हैं, हर ओर धूल ही धूल है और कहीं ऐसा कोना नहीं जहां बैठने की जगह मिल जाए। मेरे पति घर के अन्य सदस्यों के साथ सामान की सही व्यवस्था करने में व्यस्त हैं किन्तु मैं इन सभी झंझटों से अलग ड्राईंगरूम के एक कोने में गुमसुम-सी खड़ी हूं जहां से सड़क पार बना प्राईमरी स्कूल साफ़ दिखाई दे रहा है। जब हमारा यह घर नया-नया बना था हम दोनों बहनें इसी स्कूल में पढ़ती थीं। क्या मस्ती भरे दिन थे वे भी जो कभी लौट कर नहीं आ सकते।

उन दिनों घर के बाग़ में लगे मौसमी फलों के लिए हम भाई-बहनों का आपस में लड़ना-झगड़ना एका-एक याद आने लगा है। भैय्या मोटे और फिसड्डी थे सो पेड़ों से गिरे फल मेरे और छोटी बहन तनुश्री के ही हाथ लगते पर अपनी चतुराई के कारण कोई न कोई बहाना बना भैय्या की आंखों से टप-टप आंसू टपकने लगते जिन्हें देख मां पिघल जाती और हमारे हाथों के फल भैय्या के हाथों में थमा हमें डपटते हुए पढ़ने के लिए बैठा देतीं। पर मां से डांट खाने के बाद हमारा मन पढ़ने में न लगता। तब हम देर तक भैय्या की ही बातें करती उदास हो जातीं।

“हमसे कितना बड़ा है न भैय्या फिर भी कैसे रोता है छिः,” तनु कॉपी पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचते हुए कहती।

“तो इससे क्या रोना तो किसी को भी आ सकता है न, तुम नहीं रोती क्या,” मैं भैय्या का पक्ष लेती तो तनु और अधिक चिढ़ जाती।

“अच्छा एक बात बताओ, भैय्या शैतानियां करता है, सारा दिन हमें तंग करता है फिर भी डांट नहीं खाता, ऐसा क्यों?,” अपनी ठोढ़ी पर नन्हीं ऊंगली टिकाए तनु हैरानी से पूछती।

“डांट खाने को हम दोनों जो हैं” कोई कारण समझ न आने पर मैं मुंह बिचका कर कह देती।

“पर क्यों, डांट और मार खाने को हम ही क्यों, भैय्या क्यों नहीं?” उसका भोला स्वर फिर उभरता।

“इसलिए कि उसे फल, रबड़ी, मिठाई और मेवे जो मिलते हैं खाने को” फिर वही गोल-मोल सा उत्तर होता मेरा।

“हां दीदी ठीक कहती हो तुम, उसे तो ढेर सारा दूध और मक्खन भी मिलता है, वह भी हर दिन” तनु मुंह लटका लेती।

“तुझे भी तो मिलता है बिल्लो रानी फिर दुःखी क्यों है?” कहने को तो मैं कह देती पर सच तो यह था हमें अच्छा खाना, खिलौने तभी मिल पाते जब तक भैय्या हॉस्टल में रहते। पर जब भी वह छुट्टियों में घर आते सारा दुलार उन्हीं पर ही छिड़का जाता और हमारे हिस्से डांट और फटकार। तब बहुत छोटी थीं हम और बेटा-बेटी के इस अंतर को समझ नहीं पाती थीं, फिर भी हम तीनों का आपस में बहुत प्यार था।

इसी तरह बचपन की खट्टी-मीठी गोलियों का स्वाद चखते हम कब बड़े हो गए पता ही नहीं चला। फिर एक दिन विवाह के बाद सभी अपनी-अपनी गृहस्थियों में रम गए। भैय्या-भाभी तो इसी घर में मां-बाबा के साथ रहते थे पर मैं और तनु कभी-कभी ही आपस में मिल पातीं। वह मिलना किसी त्योहार से कम नहीं होता, घंटों सिर से सिर जोड़े हम बातें करतीं, घर का कोना-कोना झांक आतीं, पेड़ों के झुरमुट तले बैठीं अपने भोले बचपन को तलाशती और अकारण ही खिल-खिल करती नन्हीं गिलहरियों-सी एक दूसरे के पीछे भागती। पर एक दिन हम पर दुःखों भरी गाज गिरी और रंग-बिरंगे कंचों से चमकते वे सुहाने दिन पल भर में ही छिटक कर बिखर गए। दिल का दौरा पड़ने से बाबा असमय ही चल बसे और उनके देहान्त के बाद मां के जीवन की दिशा ही बदल गई।

सहसा एक कबूतर उड़ता हुआ मेरे सामने से निकल गया। शायद किसी कमरे के रौशनदान में घोंसला बना रखा है। बाबा ने भी तो बरसों पहले उमंग से, उत्साह से यह घर बनवाया था। सुन्दर, सफ़ेद संगमरमरी सा दिखने वाला यह घर उनके सपनों और अपेक्षाओं के सर्वथा अनुरूप था। हरे भरे पेड़ों, फलों और फूलों से सुरभित घर का यह बाग़ान अनायास ही सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेता। जब तक वे जीवित रहे इसकी संभाल करते रहे। पर उनके जाने के बाद क्या हुआ? पुराने फ़ैशन का होने के कारण घर में जगह-जगह तोड़-फोड़ करवा के भैय्या इसे नया रूप देने में लग गए। जल्दी ही रसोईघर तथा दोनों स्नानगारों में पत्थर और टाईलें लगवा दी गईं तथा ड्राईंगरूम के साथ लगी पैन्टरी की दीवार निकलवा कर खाने के कमरे को बड़ा करवा दिया। हद तो तब हो गई जब बाबा की देख-रेख में बने सुन्दर कटावदार डिज़ाइन वाले फर्नीचर को भी तुड़वा कर उसकी लकड़ी नई बनी अलमारियों के पल्लों और दरवाज़ों में इस्तेमाल कर ली गई क्योंकि अब वह फर्नीचर पुराने डिज़ाइन का हो गया था। वे दिन मां के लिए बड़े यातनापूर्ण थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था, “सुनिधि, लगता है ये हथौड़े और आरियां लकड़ी पर नहीं मेरे दिल पर चल रही हैं। कम-से-कम मेरे मरने का तो इन्तज़ार किया होता।”

आज इस क्षण मां के मन का वह दुःख व्यग्र करने लगा है, साथ ही यह महसूस होने लगा है कि अपनी मेहनत से बनाई गृहस्थी का मोह क्या होता है, पति के साथ का क्या महत्त्व होता है, तिनका-तिनका जोड़कर सजाए गए नीड़ में रहने का सुख क्या होता है? किन्तु जब अपने ही उस नीड़ के तिनके नोचने लगें तो बहुत पीड़ा पहुंचती है।

तभी रसोई घर में किसी चीज़ के गिरने से मेरी तन्द्रा भंग हुई। धीरे-धीरे चलती मैं वहां जा पहुंची। भतीजी के हाथ से एक सफ़ेद रंग का डोंगा गिर कर टूट गया है।

“मम्मी यह डोंगा…” उसके चेहरे पर घबराहट है।

“अरे कोई बात नहीं, अब ऐसी चीज़ों का फ़ैशन ही कहां रह गया है। अब जब एक टूट ही गया है तो सोचती हूं कि इसके साथ का दूसरा डोंगा महरी को दे दूं।”

कितनी सहजता से भाभी ने कह दिया है किन्तु उनकी ऐसी बातें सुन मैं अन्दर ही अन्दर आहत हो गई हूं। बरसों पहले ये दूध से सफ़ेद बगुले के खुले पंखों जैसे डिज़ाइन वाले सुन्दर डोंगे मां ने आसनसोल से ख़रीदे थे जो उन्हें बहुत प्रिय थे। हर बार प्रयोग में लाने के बाद वह स्वयं ही इन्हें धो-पोंछ कर इसे सामने वाली शीशे की अलमारी में सजा देतीं।

उस समय यह अलमारी सदैव अन्य कई सुन्दर चीज़ों से सजी रहती थी पर पिछले कुछ वर्षों से इसे घर की बेकार हुई चीज़ों से भर कर स्टोर के एक कोने में रख दिया गया था। अब तो इसके शीशे भी टूट गए हैं पर अतीत आज भी इसमें झिलमिलाता है।

घर का पुराना नौकर बहादुर टूटे डोंगे के टुकड़े समेट रहा है। मेरी दृष्टि रसोईघर में पड़े बड़े-बड़े पीतल के भगोनों और कड़ाहियों पर टिक गई है। ये वही बर्तन हैं जो बाबा के समय में होली, दीवाली जैसे त्योहार मनाते समय प्रीति-भोज के काम आते थे। एकाएक घर के पुराने रसोइये रमन की याद आते ही आंखें छलछला आई हैं। ये सामने पड़े कांसे के थाल, कटोरदान, गिलास सभी पर उस का एकछत्र अधिकार था। ऐसे मांज-धो कर चमकाता मानों सोने के बने हों। वह हम बच्चों को सुन्दर आसनों पर बिठाकर बड़े ही स्नेह से इन्हीं बर्तनों में थोड़ा-थोड़ा खाना परोस कर आग्रहपूर्वक खिलाता और तरह-तरह के मज़ेदार क़िस्से सुनाकर देर तक हंसाया करता। आज वही पीतल और कांसे के बर्तन बाहर बैठे रद्दी वाले को कौड़ी के मोल बेच दिए जाएंगे। आधुनिक समाज में ऐसी चीज़ें निरर्थक जो हो गई हैं। आज ऊपरी तड़क-भड़क की दलदल में फंसकर भावनाशून्य हो गए हैं लोग और आधारहीन हो गए हैं आपसी संबंध। जब अपनों के प्रति हृदय में कोई संवेदना ही शेष नहीं रह गई तो उनसे जुड़ी वस्तुओं का मूल्य ही क्या रह जाता है।

बाबा के देहान्त के बाद कुछ समय तक तो भैय्या-भाभी ने अतिरिक्त आदर-सत्कार दे, मां को बहुत सहारा दिया। फिर धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया और वे अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए। पर मां के पास तो करने को कुछ बचा ही नहीं था। उनका राज-पाठ तो पति के साथ ही समाप्त हो गया था और बहुत अकेली पड़ गई थीं वह। सच कहूं तो उनमें जीने की लालसा ही शेष नहीं रह गई थी। किन्तु कष्टों के जिस दौर से गुज़रना होता है उनसे कभी कोई बच नहीं पाया। एक रात मां नए बने स्नानगृह के संगमरमरी फ़र्श पर जो फिसल कर गिरीं तो फिर कभी नहीं उठ पाईं। कूल्हे की हड्डी का टूट जाना कोई मामूली बात नहीं, वह भी बुढ़ापे में। तब वह असहाय सी सारा-सारा दिन अपने कमरे में पड़ी शून्य में ताका करतीं। यहां इसी खिड़की के पास मां का पलंग बिछा रहता था। खिड़की से आते ठंडी हवा के झाेंके उन्हें दिलासा देते प्रतीत होते पर वह दिनों दिन मुरझाती गई और एक दिन अकथ पीड़ा और गहन एकाकीपन का बोझ उठाए इस निस्सार संसार से विदा हो गईं।

उस दिन मां के निधन पर एक दूसरे के गले लग कैसे फूट-फूट कर रोई थीं हम दोनों बहनें। तब भरे गले से तनु बोली थी, “दीदी कितना दुःख होता है न जब माता-पिता साथ छोड़ जाते हैं। उन जैसा प्यार और दुलार कौन दे पाएगा हमें?” 

“सो तो है पर तू ऐसा क्यों सोचती है। भैय्या-भाभी हैं, मैं हूं हम क्या तुम्हें प्यार नहीं करते।” उसके गालों तक बह आए आंसू पोंछती मैं बोली थी।

पर उस समय मैं स्वयं कहां जानती थी कि जिससे मैं प्यार भरे अपनत्व की बात कर रही हूं वही मुझे एक दिन यहां छोड़ अपने पति के साथ विदेश जाकर बस जाएगी। आज रोते मन से यादों की चौखट पर अकेली खड़ी कठोर वर्तमान का सामना कर रही हूं तो तनु की बहुत याद आ रही है। पर एक तरह से यह अच्छा ही है कि वह यहां नहीं है। यहां होती तो मां-बाबा द्वारा बनवाए इस घर को बिकता देख कितनी ठेस पहुंचती उसके कोमल मन को। बाबा मां से हमेशा यही कहा करते थे कि यह घर बार तो हमारे इकलौते बेटे नितिन का है और हमारे बाद वही इसकी संभाल करेगा। पर क्या भैय्या सहेज कर रख सके इस घर और यहां की हर वस्तु पर अंकित बाबा की स्मृति चिन्हों को। मां के देहांत के कुछ समय बाद ही भैय्या ने यह घर बेचने का निर्णय ले लिया। पैतृक संपत्ति तो उनके पास थी ही, साथ ही वह दिल्ली में रह रहे अपने साले के व्यापार में भी भागीदार बन गए। इसलिए उन्होंने दिल्ली में ही आधुनिक सुख सुविधाओं से युक्त सुन्दर घर ख़रीद लिया और आज कुछ ही देर में इस घर को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ कर जाने वाले हैं।

जाने कब से अतीत में खोई हुई थी कि भाभी की आवाज़ सुन तन्द्रा भंग हुई। वह खाने के लिए बुला रही हैं। भारी क़दमों से चलती उस कमरे में पहुंची जहां बहादुर ने झाड़ू लगाकर थोड़ी सी सफ़ाई कर दी है और कुछ पुरानी अख़बारें बिछा दी हैं। उन्हीं अख़बारों पर बैठ कर सब खाना खाने लगे हैं पर मेरे गले से निवाला नीचे नहीं उतर रहा। सामने घर का बड़ा बरामदा है जिसे देख अपने विवाह के बाद का वह दिन याद हो आया जब इसी बरामदे में ही टेबल कुर्सियां लगवा कर मां ने मेरे ससुराल वालों को अपने हाथ का बना खाना खिलाया था। गरम-गरम पूरियां, सूखे चने, आलू की भाजी और दही बड़े। ऊंगलियां चाटते रह गए थे सब वह खाना खाकर। पर आज कितना सूनापन है वहां। यादों का रेला एक बार फिर झकझोरता-सा आगे निकल गया और मैं बिना कुछ खाए पिए ही उठने लगी तो भाभी ने हाथ पकड़ पुनः अपने पास बिठा लिया।

“दीदी, यह क्या हो गया है आपको। देख रही हूं सुबह से ही परेशान निढाल हैं, आंखें भी सूजी हैं, शायद रोती रही हैं। प्लीज़ ऐसा मत कीजिए नहीं तो तबीयत बिगड़ जाएगी। वैसे भी आपके बी.पी. का कोई ठिकाना नहीं, कभी कम तो कभी ज़्यादा।” 

भाभी ने कहा तो भैय्या भी मेरे पास सरक आए और मेरे कन्धे पर हाथ रख भरे गले से बोले, “सुनिधि, तुम क्या सोचती हो मुझे मां-बाबा की याद नहीं आती? आती है, किन्तु परछाइयों के पीछे दौड़ते रहने से क्या हासिल होगा? जीवन को तो हर हाल में जीना पड़ता है और इस के लिए दुनियांदारी भी सीखनी पड़ती है। जीवन ठहराव नहीं गति का नाम है, इस को स्वीकारो।” भैय्या ने शान्त भाव से मन की बात कह दी है। सच ही तो है, जीवन में रिश्तों का अपना महत्त्व और गरिमा होते हुए भी जीवन के प्रति सब की धारणाएं और दृष्टिकोण अलग-अलग होते हैं। इसमें बुरा भी क्या है? पर जाने क्यों मैं स्वयं को अपने विगत से अलग नहीं कर पा रही हूं। “दीदी अब अधिक मत सोचिए और थोड़ा-सा खाना खाकर बग़ल वाले घर में आराम कर लीजिए।” भाभी ने फिर कहा तो बुझे मन से थोड़ा खाना खाकर उठ गई पर पड़ोस में जाने को मन नहीं हुआ। वैसे भी अब तक घर का अधिकतर सामान ट्रकों में लद चुका है। बच्चे फूलों तथा लतिकाओं वाले गमले उठवा कर एक जगह रखवा रहे हैं, जिन्हें सब से बाद ट्रक में रखा जाएगा।

“मां, दादी मां की यह भगवान जी वाली फ़ोटो भी तो ले चलनी है न?”अनार के नीचे पड़ी एक तसवीर को देख नन्हीं भतीजी भाभी से पूछ रही है। “अब इसका क्या करना है, महरी ले जाएगी” एक उचटती नज़र उस पर डालती भाभी बोली।

शिव पार्वती की बड़ी ही सुन्दर तसवीर है वह जो वर्षों पहले बाबा कलकत्ता से लाए थे। मां जब भी घर में कोई पूजा या कीर्तन करवातीं, इस तसवीर को अन्य देवी देवताओं की तसवीरों के बीच रखना न भूलतीं। सुनहरी फ्रेम में जड़ी यह तसवीर हमेशा मां के कमरे की शोभा बढ़ाया करती। पर आज न मां है, न उनका कमरा। आगे बढ़ मैंने तसवीर को आंचल में समेट लिया।

अचानक बिना कुछ किए-धरे ही बहुत थकान महसूस होने लगी है और मैं बिना हत्थे वाली एक कुर्सी पर बैठ गई हूं। लॉन में अभी भी टूटा-फूटा बेकार सा दिखने वाला सामान पड़ा है जिसे शायद घर के नौकर चाकर ले जाएंगे। सूर्य अस्ताचलगामी हो चला है और भैय्या चलने की तैयारी में हैं। बिछुड़ने से पहले भविष्य में एक दूसरे से मिलते रहने का वायदा करते हुए आपस में गले मिलकर रोना, बच्चों को आशीर्वाद देना और अपनी-अपनी सेहत का ध्यान रखने जैसी बातों की औपचारिकताओं को पूरा कर भैय्या परिवार सहित कार में बैठ गए और शीघ्र ही ट्रकों के पीछे चलती उनकी कार ओझल हो गई। पीछे रह गया ख़ाली हुआ घर, वीरान हुआ बाग़ान और गहन उदासी के साए, जिनके बीच मन अभी भी भटक रहा है। अचानक लॉन में पड़े एक कपड़े की ओर ध्यान चला गया। यह मां के हाथों का बना एक सफ़ेद मेज़पोश है जिस पर मां ने हरे रंग के धागे से कश्मीरी कढ़ाई की थी और यह मेज़पोश किसी मेहमान के आने पर ही लकड़ी की गोल मेज़ पर बिछाया जाता था। मैंने झुक कर उसे उठा लिया और शिव पार्वती वाली तसवीर उसमें लपेट ली। तभी डोंगे का ध्यान आया। रसोईघर में पहुंची और डोंगे को वहीं पड़ा देख मेरी जान में जान आई। दो क़दम पर ही गत्ते के डिब्बों के बीच बाबा का पुराना हैट पड़ा है, धुंधलाया और जगह-जगह से उधड़ा हुआ। पल भर में ही उसे छाती से लगा लिया।

घर छोड़ने से पहले एक बार फिर फाटक पर दृष्टि टिक गई जहां मां बाबा का मुस्कुराता चेहरा, तनु की मीठी सुगन्ध से सराबोर भोला चेहरा और भैय्या का हर पल शैतानी करता नटखट चेहरा साकार होता प्रतीत हो रहा है। मेरे पति जाने कब से मेरे पीछे आ खड़े हुए हैं और मुझ से अपने घर चलने की बात कहना चाह रहे हैं पर मेरे मन को अनुभव कर कुछ कह नहीं पा रहे। आगे बढ़ उन्होंने मेरे हाथ से मेज़पोश में लिपटी तसवीर, डोंगा और हैट ले लिया। “सुनिधि कुछ और लेना चाहो तो ले लो, सचमुच यह चीज़ें बड़ी अनमोल हैं,” उनके ऐसे सांत्वना भरे शब्द सुन मैं उनकी छाती से लग बिलख-बिलख कर रो पड़ी।

दूर सूरज डूबता दिखाई दे रहा है और मुझे लग रहा है यह सूरज का डूबना नहीं एक युग का अंत होना है। पर क्या डूबते सूरज के संग माता-पिता के वात्सल्य का आलोक कभी विलीन हो सकता है, नहीं न। किन्तु इस बात की अनुभूति केवल एक बेटी के मन को ही उद्वेलित कर सकती है।

 

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