-मिलनी टण्डन

साड़ी भारतीय नारियों का परम्परागत राष्ट्रीय परिधान है। यह हमारे संस्कारों से जुड़ी है। यह भव्यता और गरिमा देती है। सच तो यह है कि दुनियां के अन्य देशों में भी साड़ी अपनी पताका लहरा रही है। भले अत्याधुनिक भारतीय महिलाएं अन्य परिधानों की ओर ललक दिखा रही हों, साड़ी का कोई विकल्प नहीं। जब तक हम मां के आंचल की छाया चाहते रहेंगे साड़ी लोकप्रिय रहेगी। प्रवासी भारतीय महिलाओं ने पश्चिमी पोशाक पहन कर साड़ियों को अलमारियों में बंद कर दिया था पर अब चैनल्ज़ की न्यूज़ रीडर्ज़ सहित कई ऊंचे रुतबों वाली महिलाओं को साड़ी में देखकर उनके मन में साड़ी के प्रति ललक जाग उठी।

हमारा कथन अन्तर्राष्ट्रीय अनुसंधानों से भी सिद्ध हो गया है। यह महिलाओं को दो हाथों के साथ एक तीसरा हाथ भी देती है। मानवीय भावना और संस्कार से यह बड़ी गहरी जुड़ी है। यह पूरे भारत में प्रचलित है, भले ही इसे पहनने की शैली में थोड़ी भिन्नता हो। साड़ी की इसी विविधता ने इसे सदियों से बनाए रखा है। दुनियां में भी इसकी लोकप्रियता बढ़ रही है।

लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज की शोधकर्त्ता मुकुलिका बैनर्जी और डैनियल मिलर कहती हैं कि इसकी परतें शरीर को भली प्रकार ढकती हैं और सुरक्षा की भावना भी पैदा करती हैं। पल्लू खींच कर कमर में लपेट लेने से शक्ति का एहसास होता है। सिर ढकने से शालीनता और घूंघट से लाज का बोध होता है। उक्त शोधकर्त्ताओं ने एक पुस्तक लिखी है ‘द साड़ी’।

‘द साड़ी’ में लेखिका ने उल्लेख किया है कि यह परिधान इतनी भूमिकाएं अदा करता है, जितना दुनियां का कोई परिधान नहीं। यह बेजोड़ और अद्वितीय है। मां, बहन, पत्नी, प्रेमिका सभी इसे अपना सकती हैं। अध्यापिका, डॉक्टर, वकील, कार्यालय-कर्मचारी सभी के लिए यह सुविधाजनक है। सभी स्त्रियां अपनी रुचि के अनुसार इसे ढाल सकती हैं। वास्तव में साड़ी पहनने के ढंग से पता चल जाता है कि स्त्री किस प्रदेश की है और क्या कार्य करती है। अगर परत बना कर कंधे से टिका है पल्लू तो समझो महिला कामकाजी है, कमर में खुंसा पल्लू गृहिणी दर्शाता है और पल्लू खोल कर कंधे से हाथ पर फैला लिया तो समझो स्त्री शोख़, चंचल, स्वतंत्र और किसी मित्र के इंतज़ार में है। साड़ी नारी सिंगार का एक अद्भुत अंग है।