साहित्य सागर

ज़िंदगी

मैं रसोई गैस खुली छोड़कर रसोई के दरवाज़े-खिड़कियां और बत्ती वग़ैरह सब बन्द कर दूंगी। कुछ देर के बाद शीला को कह दूंगी कि खाना-वाना बना रखे और

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सीमाएं किसने लांघी

"आधुनिक तो होना चाहिए लेकिन अपनी सीमाएं नहीं लांघनी चाहिए। तुम्हें नहीं लगता कि सोमा आधुनिक दिखने की इच्छा में सारी सीमाएं लांघ देती है।"

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जल-समाधि

क्या कहा जल-समाधि उन्हें चूल्लू भर पानी नहीं मिला क्या? इतनी बड़ी नदी को अपवित्र करेंगे। यह जल समाधि नहीं आत्महत्या है। मैं अभी पुलिस को फ़ोन करती हूं।

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रुख़सत

उसे रुख़सत करके लौटा तो आंगन के फूल हो चुके थे बदरंग हवा थी बोझिल तस्वीरें उदास

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कविता

मजबूरी, लाचारी लिख हां, रुदाद हमारी लिख ग़़ै़ै़ै़ै़रों को इलज़ाम न दे अपनों की अय्यारी लिख सोच जो हल्की है तो क्या ग़ज़लें भारी-भारी लिख

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वेदना

ओ निर्दोष पंछी कसाई की मुट्ठी में भिंची तेरी कोमल ग्रीवा और घुटी दबी चीखों के बीच असहनीय पीड़ा को झेलती तुम्हारी देह की वह तड़प और कातर आंखें मुझे अब तक याद हैं

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जज़बात

आज भी जी भर आता है उस दहलीज़ से क़दम बाहर रखते हुए कितना कुछ ले आती हूं साथ कुछ धुले-धुले से जज़्बात मुस्कुराती हुई कुछ यादें और बहुत बुज़ुर्ग हो चुकी वो दो जोड़ी आंखें

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मैं क्या हूं

ज़िंदगी के आख़िरी पड़ाव में नज़र आई ज़िंदगी की संकरी गलियां, पथरीले रास्ते भीगी छत और गर्म लू से कई हादसे क्यूं आख़िर क्यूं सबकी उम्मीदें टिक जाती इक औरत पर

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अंधेरा

तुम क्यों बार-बार अंधेरे में, मेरे दिल के इक कोने से आवाज़ देते हो मुझे दौड़ती हूं चहुं ओर क्योंकि गूूंजती है तुम्हारी आवाज़

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दस्तक

ना हुई कोई आहट ना नज़र कोई आया क्यों लगा जैसे किसी ने बुलाया... यादों के बगीचे में कुछ पत्तियां सरसराईं खुशबू कुछ गुलाबों की मेरे होठों पे मुस्कुराई मानों दी किसी ने दस्तक

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