-के.के.अरोड़ा

कामकाजी महिलाओं के शारीरिक और मानसिक शोषण की बढ़ती घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में उच्चतम न्यायालय ने गृह मंत्रालय को जो नीति संबंधी निर्देश जारी किए हैं, उनमें महिलाओं को हर प्रकार के शोषण के ख़िलाफ़ पूर्ण सुरक्षा की गारन्टी दी गई है। संरक्षण विषयक नीति संबंधी इन निर्देशों में कहा गया है कि सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाओं, उपक्रमों विभागों संस्थाओं में काम करने वाली महिलाओं को यौन व्यवहारों के लिए कोई भी अधिकारी, सहकर्मी अथवा अन्य कोई बाहरी व्यक्‍त‍ि विवश नहीं करेगा। संस्थाओं में काम करने वाली महिलाओं को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से यौन इच्छाओं के लिए उकसाना, छूने का प्रयास करना, कामुक दृष्‍ट‍ि से देखना, द्विअर्थी बातचीत करना, अश्‍लील साहित्य अथवा चित्र दिखाना, फाइल, काग़ज़ आदि लेने-देने में अंगों का स्पर्श करना आदि ऐसे व्यवहार हैं, जो कि आपत्तिजनक हैं और महिलाओं को इन ‘दुर्व्यवहारों’ के लिए न्यायिक संरक्षण की व्यवस्था की गई है। नीति संबंधी इन निर्देशों में स्पष्‍ट कहा गया है कि संस्थान के अधिकारी का यह पहला कर्त्तव्य होगा कि वह अपने अधीनस्थ महिलाओं को ऐसे शोषण से पूर्ण सुरक्षा प्रदान करे।

इतने स्पष्‍ट नीति संबंधी निर्देशों के बाद भी राष्‍ट्रीय महिला आयोग और कामकाजी महिलाओं से संबन्धित अन्य सामाजिक संगठन इस विषय में इतने संतुष्‍ट नहीं। इनका मत है कि इन नीति संबंधी न्यायिक निर्देशों के बाद भी स्थिति में कहीं कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। इस विषय में आज भी हमारी स्थिति सौ दिन चले अढ़ाई कोस से अधिक कुछ नहीं। कामकाजी महिलाओं को जिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है- वे भी उन्हें हमेशा भयग्रस्त बनाए रखती हैं। राष्‍ट्रीय महिला आयोग ने महानगरी में कामकाजी महिलाओं की इस ‘असुरक्षा’ पर आधारित जो व्यापक सर्वेक्षण कराया था, उसके प्राप्‍त आंकड़े भी कम चौंकाने वाले नहीं थे। इस सर्वेक्षण में यह बात खुल कर सामने आई कि लगभग पचास प्रतिशत महिलाओं को किसी न किसी रूप में अधिकारियों की ‘वक्र’ दृष्‍ट‍ि का सामना करना पड़ता है। इनमें से ज़्यादातर महिलाएं तो किसी न किसी प्रकार इन व्यवहारों को इसलिए सहन कर जाती हैं क्योंकि वे मानती हैं कि जल में रह कर मगर से बैर मोल नहीं लिया जा सकता। छोटी मोटी बातों को टाल जाना वे अपनी आदत बना लेती हैं। कुछेक महिलाएं ही अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के विरूद्ध आवाज़ उठाती हैं। वे अपनी सुरक्षा और संरक्षण के लिए न्यायिक प्रावधानों को अपनाती हैं। इन न्यायिक प्रावधानों में अब उन्हें कितना संरक्षण और सुरक्षा मिलती है, वे इस विषय में कितनी सफलता प्राप्‍त करती हैं इस विषय में भी आंकड़े उत्साहजनक नहीं है। आश्‍चर्य यह है कि इस सर्वेक्षण के तथ्यात्मक आंकड़ों से भी यह बात खुलकर सामने आई है कि कामकाज के दौरान अधिकारियों अथवा प्रबन्धकों की कोपभाजन इन महिलाओं को बनना पड़ता है और वे शारीरिक अथवा मानसिक शोषण का शिकार होती हैं। इस विषय में इस प्रकार की ‘आपराधिक घटनाओं’ का ग्राफ़ दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। राह चलती लड़कियों, महिलाओं की छेड़छाड़ की घटनाओं से हटकर कामकाजी महिलाओं को अपने अधिकारियों से ‘असुरक्षा’ का यह व्यवहार एक ऐसा व्यवहार है जिस पर कठोर कार्यवाही होनी चाहिए।

उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी नीति संबंधी निर्देशों और भारतीय दंड संहिता की धारा 358, 509 के अन्तर्गत जो न्याय के संरक्षण दिए गए हैं उनके लाभ भी महिलाओं को इसलिए नहीं मिल पाते क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया इतनी कठिन, जटिल और कानूनी दांव-पेचों में उलझी हुई है कि सामान्य महिला तो इसे पूरा ही नहीं कर पाती। कोर्ट, कचहरी, वकील, तारीख़, ब्यान, गवाह, सबूतों के नाम पर अच्छे-अच्छे परास्त हो जाते हैं। फिर मामला जब कामकाजी महिलाओं का है तो उनकी स्थिति और भी ख़राब हो जाती है। लोकचर्चा, लोक निन्दा और बदनामी का भय बता कर भी हमेशा पीड़ित महिलाओं को ही चुप रहने के लिए विवश किया जाता है। यही कारण है कि महिलाएं ‘चुप’ रहती हैं और सब प्रकार के अन्याय सहन करती हैं। इस विषय में राष्‍ट्रीय महिला आयोग और दूसरे सामाजिक संगठनों का मत है कि इस प्रकार के व्यवहारों पर कानूनी प्रतिबंधों के साथ-साथ सामाजिक प्रतिबंध भी लगाने चाहिएं। क्योंकि इस प्रकार के शोषण की शिकार महिलाएं ‘अदालतों’ तक नहीं पहुंच पाती, इसलिए इन्हें संस्थाओं में ही सुरक्षा के आश्‍वासन मिलने चाहिए। चूंकि इस प्रकार के अपराध भी कुछ प्रभावशाली लोग ही करते हैं। इसलिए ऐसे अपराधी अपने प्रभाव से मामले को बिगाड़ देते हैं और सारा मामला अर्थहीन हो जाता है। इसलिए ऐसे सभी मामलों को विशेष अदालतों में देने का प्रावधान होना चाहिए। और इसकी सारी कार्यवाही गोपनीय करवाई जानी चाहिए।

ऐसे सभी मामलों की सुनवाई स्त्री न्यायाधीश की ‘सुपरविज़न’ में होनी चाहिए और तुरन्त न्याय के प्रावधान होने चाहिए। ऐसे अधिकारियों को भी अधिकार विहीन करने के कानूनी प्रावधान होने चाहिए जिनके चरित्र संदिग्ध हों।

वास्तव में ऐसे मामलों की कार्यवाही लम्बी चलती है तो अभिभावक भी इन मामलों को रफा-दफा करना चाहते हैं। अंत में हार कर शोषित महिला ही यह लिख कर देने को विवश हो जाती है- “मैं इस विषय में आगे कोई कार्यवाही नहीं करना चाहती और मैं स्वेच्छा से केस वापिस लेती हूं।” स्वेच्छा का यह अन्तर्भाव सभी न्यायाधीश समझते हैं जबकि वास्तव में ‘ख़ानदान की इज़्ज़त की दुहाई देकर’ महिलाओं को स्वेच्छा के लिए विवश किया जाता है। रोज़-रोज़ की छींटाकशी, ब्यानबाज़ी और व्यंगबाण, लोगों की सवालिया नज़रें पीड़ित करती हैं।

कानून साक्ष्य मांगता है और भावनाओं के आवेश में किए गए ये अपराध साक्ष्यहीन होते हैं। इस विषय पर महिला विधि विशेषज्ञों का मत है कि साक्ष्य के नाम पर पीड़ित महिलाओं को कुछ इस तरह से अपमानित किया जाता है कि वे अपने हाल पर रोने लगती हैं। लेकिन उनके ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने का काम अदालत में होता है।

इस विषय पर यह बात खुलकर सामने आई है कि आज कानून के हाथों कामकाजी महिलाएं पूरी तरह से सुरक्षित हैं। लेकिन कामकाजी महिलाओं को सुरक्षा का आश्‍वासन कौन दे? लेकिन कानून के साथ-साथ सामाजिक संरक्षण का यह आश्‍वासन ही एक ऐसा उपाय है। समाज कामकाजी महिलाओं को यथेष्‍ट सम्मान और प्रतिष्‍ठा दे और साथ ही साथ उसके शक्‍त‍ि स्वरूप को भी स्वीकारे ताकि उनमें असुरक्षा का भय बिलकुल पनप न सके।