सही अर्थों में किसी लड़की का अपने मायके के साथ रिश्ता तब तक ही क़ायम रहता है, जब तक उसकी मां जीवित रहती है। आजकल तो मां की मौत के बाद लड़कियों का तो अपने मायके जाने का अर्थ ही सीमित-सा हो गया है। मां के जीते जी ही बेटी अपने मायके को अपना घर कह सकती है। मां के बाद तो लड़की के लिए उसका मायके का घर भी पराया हो जाता है। पहले इस प्रकार का माहौल होता था कि मां के बाद बड़ी भाभी या भाभियां अपनी ननद के लिए मां बन जाती थी और ननदें अपनी भाभियों को आदर सत्कार और सम्मान देती थीं, पर आज अर्थ बदल चुके हैं। भौतिकवाद के इस युग में आज की भाभियां ननद को बहन-बेटी समझना तो दूर, ननद के रिश्ते को भी अपने ऊपर बोझ समझने लगी हैं। हैरानी इस बात की है कि भाभियां खुद ननद के रूप में अपने रिश्ते को पूरी ईमानदारी के साथ निभाने की कोशिश करती हैं। कहने का अर्थ यह है कि ननदें उतनी नहीं बदली हैं जितनी कि भाभियां बदल चुकी हैं।

आजकल की भाभियां अपनी ननदों को उसी स्थिति में सम्मान देती हैं जब ननदें मायके आने पर उपहारों का लेनदेन बराबर करती रहें और उनके ऊपर कोई बोझ न बनें।

यदि किसी लड़की के कुंवारी रहते हुए ही मां की मौत हो जाए तो उस दिन से उस लड़की का मायका उसके लिए पराया बन जाता है। शादी होने के बाद तो मायका घर पराया होना ही है। शादी होने तक भी उसे अपने मायके में पराया बनकर रहना पड़ता है।

यदि शादीशुदा ननद अपनी भाभी के लिए मां न होने की सूरत में मायके आने पर टैक्स के रूप में कोई न कोई उपहार साथ लेकर न आए तो भाभी की नज़र में उसकी इज़्ज़त नहीं रहती।

मां के होते हुए तो बात ही कुछ और होती है क्योंकि मां और बेटी ने ही मिलकर इस घर में औरतों के रूप में लंबा समय बिताया होता है। घर की बुनियाद रखी होती है। दोनों की सांसों ने मिलकर लंबे समय तक घर को जीवनदान दिया होता है। जब कभी मां कमज़ोर हो जाती है तो बेटी ही अच्छे ढंग से घर का चूल्हा-चौका संभालती है।

इसलिए जब भी मां के होते हुए विवाहित बेटी अपने मायके आती है तब पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं। मां को भी अपनी बेटी को नये रूप में देखकर बड़ी खुशी होती है। जब वह देखती है कि वह जिसकी मां थी आज खुद एक मां बन गई है। एक मां ही होती है जो चाहती है कि उसकी बेटी जब पहली बार मां बने तो उसके हाथों में बने। शायद यही कारण है कि पुराने समय में परंपरा थी कि बेटी की पहली संतान मायके में ही जन्म लेनी चाहिए। परंतु भाभियां तो सोचेंगी कि कौन दो महीने इसकी देखभाल करे। यदि डिलिवरी आधी रात को हो गई तो कौन अपनी नींद ख़राब करे और साथ में अस्पताल का बिल भी भरना पड़े। यदि बच्चा बड़े ऑपरेशन से हुआ तो अलग से ख़र्च बढ़ जाएगा। साथ ही आए गए की परेशानी अलग से झेलो। इसके विपरीत एक मां को नानी बनने की इतनी खुशी होती है कि वह नानी बनने की खुशी में सबकुछ भूल जाती है। यहां तक कि जब तक उसकी बेटी डिलिवरी के बाद से ठीक तरह से चलने फिरने के क़ाबिल नहीं हो जाती तब तक उसकी संतान को अपने गले से लगाकर इस तरह रखती है जैसे उसकी खुद की संतान हो।

जहां एक तरफ़ मां के होते हुए लड़कियों को अपने मायके के घर से अपनी पसंद की वस्तुएं बटोरने की इजाज़त होती है। वहीं अपने मायके जाते ही उसे उसके पति और बच्चों के लिए उनकी पसंद के पकवान भी तैयार मिलते हैं। इसके दूसरी तरफ़ मां के न रहने पर घर की बागडोर भाभियों के हाथ में आ जाती है। तब बेटियों का रसोई में जाना तो दूर फ्रिज से अपने आप पानी पीने पर भी उसे झिझक महसूस होती है। मां के होते हुए बेटी और उसके परिवार को, रिश्तेदार या मेहमान नहीं उन्हें परिवार का एक अंग ही समझा जाता है। परंतु मां के बाद तो ननद-भाभी केवल दोस्तों की तरह व्यवहार रखें तो ही रिश्ता क़ायम रह सकता है। मां के होते हुए बेटी मां के साथ अपना दुःख-सुख सांझा कर सकती है। पर भाई और भाभियां तो अपने में ही इतने मस्त रहते हैं कि वह बहन या ननद का दुःख-सुख जानकर क्या करेंगे।

मां के होते हुए बेटी जब चाहे अपने मायके आ जा सकती है। परंतु मां के बाद मायके आने के लिए भाई और भाभियों की इजाज़त लेनी पड़ती है। जब गर्मियों की छुट्टियों में भाई-भाभियों को खुद किसी हिल स्टेशन पर जाना हो तो ऐसी स्थिति में ननद का आना बोझ लगता है। फिर आजकल की भाभियों की तो सोच ही इस प्रकार है कि जो ख़र्च ननद पर होगा तो क्यों न उसी ख़र्चे में हिल स्टेशन घूमकर आया जाए और अपनी छुट्टियों को मज़ेदार बनाया जाए। हैरानी की बात है कि आज की भाभियां खुद तो अपने घर जाना चाहती हैं परंतु ननद को अपने घर पर लाने से बचना चाहती हैं। यदि ननद तोहफ़े देने वाली हो, उपहार देने वाली हो या ननद की अमीरी से उनका कोई स्वार्थ जुड़ा हो तो ऐसी ननदें भाभियों को ज़रूर पसंद आ जाती हैं।

यदि ननद छोटी है और भाभियां बड़ी हैं तो कुछ समय ननदों को अपने मायके घर पर भाभियों के साथ रहने का मौक़ा मिलता है ऐसी स्थिति में भाभियों का थोड़ा बहुत लगाव अपनी ननद के साथ होता है। पर किसी लड़की की शादी अपने भाई की शादी से पहले हो जाए तो ऐसे हालात में मां के न रहने पर बेटी को अपने मायके का सुख नहीं मिलता। जिसकी इच्छा उसके मन के अंदर ही रहती है।

मां के बिना बेटी की शादी से लेकर पहली संतान होने तक कोई भी परंपरा मन से नहीं निभाई जाती है। यदि दो भाई भी हों तो एक दूसरे पर अपनी ज़िम्मेदारी थोपकर किनारा कर लेते हैं। पिता तो शुरू से ही इन बातों में रूचि नहीं लेते। भाभियों को अपना समय और पैसा ख़र्च करना बर्बादी लगता है। अक्सर ऐसा होता है कि मां के बिना बेटी की दीवाली, होली सूखी ही निकल जाती है। यही कुछ कारण हैं कि यह कहावत प्रसिद्ध है कि मायका होता मां के होते।