-विद्युत प्रकाश मौर्य

कई साल के संघर्ष के बाद मैंने बैंक से कर्ज़ लेकर एक छोटा सा फ्लैट ख़रीद लिया। अब फ्लैट ख़रीद लिया तो इसकी खुशी भी है कि अब मेरा अपना पता है जिसे मैं अपना कह सकता हूं। साथ ही इस बात का ग़म भी साथ चलता रहता है कि फ्लैट अपना होकर भी पूरी तरह से अपना नहीं है। भला क्यों अपना नहीं है। अपना इसलिए नहीं है कि मैं इसकी ई. एम. आई चुका रहा हूं। जब तक ई. एम. आई. पूरी नहीं हो जाती, मकान पूरी तरह अपना नहीं हो पाएगा। ई. एम. आई. तो 20 साल बाद पूरी होगी। बीस साल बाद तो मैं बुढ़ापे के क़रीब आ जाऊंगा, रिटायरमेंट के क़रीब आ जाऊंगा। इस बीस साल में जीवन में कई उतार-चढ़ाव भी आ सकते हैं। पूरी दुनियां मंदी के दौर से गुज़र रही है। किसी भी नौकरी पर कभी भी ख़तरा मंडरा सकता है। ऐसे हाल में ई. एम. आई. का क्या होगा। सचमुच ये चिंता की बात है। कर्ज़ लेकर फ्लैट ख़रीदने की खुशी पूरी खुशी नहीं है। यह अधूरी खुशी है। ऐसी खुशी जिसमें कर्ज़ का बोझ मंडराता रहता है। किराए के मकान में हमेशा इस बात को लेकर तनाव रहता था कि कहीं वेतन मिलने से पहले ही खड़ूस मकान मालकिन किराया मांगने के लिए नहीं टपक पड़े। अब इस बात का बोझ मन पर रहता है कि बैंक वालों ने ई. एम. आई. निकाली कि नहीं। इसलिए मकान ख़रीदने के बाद जब भी दोस्तों को यह बताता हूं कि अपने मकान में आ गया हूं तो यह खुशी पूरी खुशी नहीं होती है। एक पुराना शेयर हैं… ग़ौर फ़रमाएं- हज़ार ग़म हैं दिल में, खुशी मगर एक है… हमारे होंठों पर किसी की मांगी हुई हंसी तो नहीं।

लेकिन ई. एम. आई. का मकान तो मांगी हुई हंसी की तरह है ये हंसी हमारे होंठों की हंसी नहीं है। ये वैसी प्रेमिका की तरह है जिसके साथ मंगनी तो हो गई है लेकिन अभी विवाह नहीं हुआ। विवाह तो तब होगा जब बैंक वाला, मकान के पेपर आपको वापिस देगा। इसी दुःख में मैं दुबला हुआ जा रहा हूं कि कर्ज़ में ली हुई चीज़ को कैसे अपना कहूं। इस लिए जब भी दोस्तों से अपने नए पते की चर्चा करता हूं कुछ न कुछ मलाल रह ही जाता है। ख़ैर मेरी एक बहुत पुरानी दोस्त है कुलप्रीत कौर जो चलाती तो पी. आर. एजेंसी है लेकिन विचारों से आध्यात्मिक है। जब उनको कर्ज़ में लिए फ्लैट की दास्तां सुनाई तो उन्होंने मुझे प्रत्युत्तर में दिव्य ज्ञान दिया है। बक़ौल कुलप्रीत दुनियां का हर आदमी कर्ज़ में डूबा है। भारत देश कर्ज़ में डूबा है। हर साल घाटे का बजट पेश करते हैं। सबसे धनी देश अमेरिका पर भी बहुत से लोगों का कर्ज़ है। हर भारतीय कर्ज़ के बोझ में पैदा होता है और कर्ज़ चुकाते-चुकाते इस दुनियां से कूच कर जाता है। हमारी हर सांस पर किसी न किसी का कर्ज़ है। ये ज़िन्दगी जिस माता-पिता की दी हुई है उनका कर्ज़ हम जीवन भर नहीं चुका पाते हैं। हमारी हर सांस पर ईश्वर का कर्ज़ है क्योंकि हम सबकी ज़िन्दगी उसकी दी हुई है। फिर कर्ज़ से कैसा घबराना… इसी कर्ज़ के बोझ में हमें मुस्कुराना सीख लेना चाहिए। इस दिव्य ज्ञान से मुझे थोड़ी तसल्ली मिली है। आपका क्या ख़्याल है…

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