खुशख़बरी सुनते ही डॉक्टर दीपा ने सोचा कि डॉक्टर स्वराज को फ़ोन किया जाए, “अस्पताल जल्दी पहुंचो, तुम्हारे साथ एक बहुत बड़ी खुशी बांटनी है।”

उसे पता था, वह आगे से कहेगा, “खुशियां तो होती ही बांटने के लिए हैं, पर थोड़ा सा पता तो लगे?” “बस तुम जल्दी आ जाओ, यह खुशी मिल कर ही बताई जा सकती है।” दीपा ने रिसीवर भी उठाया, नंबर भी डायल किया पर फिर कई कुछ सोचते हुए, खुद ही फ़ोन काट दिया।

डॉक्टर दीपा ने अपने कई जान पहचान वालों को यह खुशख़बरी सुनाने के लिए फ़ोन किए और ‘दीपा मैटरनिटी होम’ के सभी मरीज़ों तथा कर्मचारियों में लड्डू बांटे।

डॉक्टरी पेशे में आने के बाद, जन्म-मृत्यु की खुशी और ग़म, उसके लिए बड़ी मामूली और साधारण-सी बात बन गई थी पर आज उसे महसूस हुआ कि अपनों की खुशी और ग़म, दूसरों की खुशी और ग़म से अलग ही तरह का होता है।

खुशी से पागल वह कभी तनवीर को चूम लेती कभी उसकी बेटी को।

आज उसकी बचपन की सहेली तनवीर के घर, विवाह के कई सालों बाद बेटी ने जन्म लिया था। वह इस खुशी से पागल हुई अपने बचपन में लौट गई जहां उन्होंने इकट्ठे ही गुड्डे-गुड़ियों तथा गोटियों के साथ खेला था।

आज उसे रह-रह कर याद आ रहा था, ग्रामीण बचपन का वह लड़कपन, जहां खेलते, खिलाते कई बार लड़ना-झगड़ना भी हो जाता था और लड़ते-झगड़ते बचपन का वह भोलापन, फिर एक दूसरे को आलिंगन में लेकर कस लेता था।

धीरे-धीरे बचपन का यह मोह-मिलाप दोस्ती में बदल गया और यह दोस्ती जैसे उम्र भर की दोस्ती की सर्व मोहर ही बन गई।

हरदीप की ढिल्लों परिवार में शादी हो गई और वह पति की इच्छा के अनुसार ‘दीप ढिल्लों’ बन गई। जब उसके डॉक्टरी ससुराल के परिवार वालों ने अपनी बड़ी देर से दिल में रखी इच्छा को पूरा करने के लिए ‘मैटरनिटी होम’ खोलना चाहा तो उसका नाम ‘दीपा मैटरनिटी होम’ रख लिया और धीरे-धीरे उस को सारे डॉक्टर दीपा ही कहने लग पड़े।

हरदीप को याद था कि तनवीर को उसका पति और बहुत से लोग छोटे नाम से तनु कहते थे। लेकिन तनवीर को अपना यह नाम कभी भी पसंद ही नहीं आया।

हरदीप उसको पूरी तरह समझती और जानती थी, शायद इसीलिए वह, उसे हमेशा तनवीर ही कहा करती थी। जब पढ़-लिख कर वह सरकारी कॉलेज में पढ़ाने लगी तो सभी तनु को तनवीर ही कहने लगे।

शादी के छः सात साल बाद भी जब तनवीर के घर कोई बच्चा न हुआ तो तनवीर तो सोच में डूबी ही थी, दीपा की सोच भी गंभीरता की हद तक चली गई थी। सोच विचार करने के बाद उसने पति-पत्‍नी का लैबॉरटरी टैस्ट करवाना ज़रूरी समझा था।

लैबॉरटरी के टैस्टों में तनवीर तो बिलकुल ठीक थी और मां बनने योग्य थी, पर उसका पति डॉक्टरी रिपोर्ट में बाप बनने के योग्य नहीं पाया गया था। पर दीपा ने दोनों को बुलाकर कह दिया था कि रिपोर्ट में सब ठीक है। फिर उसने इस राज़ को डॉक्टरी हंसी में छुपाते हुए कहा था, “जाओ और साल के अंदर-अंदर लड्डू खिलाने का प्रबंध करो।”

पर तनवीर को उसने अलग से सब कुछ विस्तार में समझाते हुए कहा था, “चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं तुम ज़रूर मां बनोगी, यह ज़िम्मेदारी मेरी रही।”

एक दिन वह बड़ी गंभीरता से इसके बारे में विचार करती रही। आम औरतों की तरह तनवीर की भी इच्छा थी कि वह भी मां बने और नए सिरे से अपने आप को अपने बच्चे में जीवित देख सके।

दीपा को उसके रोम-रोम का पता था, इसलिए उसने तनवीर को कहा, “मुझे पता है तुम किसी का बच्चा गोद लेने के लिए तैयार नहीं होगी, मेरा भी यही विचार है कि किसी का बच्चा गोद लेने से तो तुम कृत्रिम बच्चा धारण कर लो।”

तनवीर ने इस बारे में शायद कभी सोचा ही न था। इसलिए वह गहरी सोच में डूब गई।

“पर किस मर्द का? उसके आगे-पीछे का, शक्ल सूरत, रंग-ढंग का कुछ तो पता हो?” वह गंभीरता के साथ एक सांस में ही काफ़ी कुछ पूछ गई।

“नज़दीकियों में, रिश्तेदारों में, बिरादरी-भाईचारे में से ढूंढ़ लेना कोई अच्छा लगता है,” दीपा ने राय दी।

तनवीर ने गंभीर होते हुए कहा, “यदि कोई ऐसा मिल भी गया तो क्या वह रुक जाएगा यहां तक का सफ़र तय करके? क्या वह मेरे ऊपर किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं जताएगा? क्या वह नक़ली से फिर असली बनने की इच्छा नहीं रखेगा? यह सब कुछ सोच कर मुझे नज़दीक के लोगों से बहुत डर लगता है।” फिर उसने न में सिर हिलाते हुए कहा था, “मैं किसी भी जान पहचान वाले से इस प्रकार नहीं करवा सकती।”

“मैं समझती हूं पर जो आदमी मुझे अच्छा लगता है और मेरी बात मान कर हमारी मदद भी कर सकता है, यदि उसने भी कभी इस प्रकार की इच्छा ज़ाहिर की तो – – – – ?” दीपा भी जैसे नया रास्ता तलाश करती गंभीर तथा शंकाग्रस्त हो गई थी।

“पर उसके और मेरे नज़दीक वालों में अंतर भी तो होगा। नज़दीक वाला तो किसी सुख-दुःख के मौक़े में इकट्ठे हुए लोगों में यह भी कह सकता है, “देख बच्चा मेरा उठाए फिरती है- वैसे आंख भी नहीं मिलाती।” दीपा सुनकर ज़ोर से हंसी, “लड़का तेरा और नैन-नक़्श मेरे – – – – ।” “हां, बिलकुल इसी प्रकार,” तनवीर दीपा से भी ज़्यादा ज़ोर से हंसी।

दोनों हंसी और फिर हंसती ही रही। हंसी की धूप में गंभीरता की छाया कुछ उठ सी गई।

दीपा ने कहा, “मेरी पसंद का आदमी है तो अच्छा पर अगर तेरे हुस्न पर बेईमान होकर उसने भी कभी ऐसी इच्छा ज़ाहिर की तो फिर – – – – ?”

“चल फिर की तो फिर देखेंगे पर जो मर्द तू पसंद करेगी, मेरा नहीं ख़्याल कि वह इतना गिरा होगा?”

“तू क्यों भूल गई है कि औरत के संबंध में सभी मर्द एक जैसे ही होते हैं?”

“नहीं दीपा, आदमी-आदमी में थोड़ा बहुत अंतर भी होता है।”

“अगर तुझे फ़र्क़ लगने लग पड़ा है तो नए सिरे से परख कर देख लेते हैं- वैसे तो मैं उस मर्द को मर्द ही न समझूं जो तेरे जैसी खूबसूरत औरत को देखकर बेईमान न हो जाए।”

तनवीर ने शोख़ी से मुस्कुरा कर दीपा की बाईं गाल पर दाएं हाथ से हल्की सी थपकी दी।

“दीपा एक बात बहुत ज़रूरी है कि उसका रंग-रूप, शक्ल-सूरत मुझ से मिलती हो। अगर सचमुच बात बन जाए तो, बच्चा देख कर कोई यह भी न कह सके कि – – – – ,” दोनों फिर ऊंची-ऊंची हंसी।

“मेरा यह भी दिल करता है कि वह सुंदर भी हो और समझदार भी हो।”

“मर जा, वह मेरे ही “होम” का चाइल्ड-स्पेशलिस्ट के तौर पर ‘विज़टिंग डॉक्टर’ है और सुन्दर इतना है कि कभी-कभार मेरा भी उसके साथ थोड़ा बहुत रोमांस करने को दिल करता है,” हंसी फिर ऊंची हुई।

“दीपा, यह सब होने से पहले मेरा उसको देखने को दिल करता है।”

“ठीक है मैं तुझे दिखा दूंगी पर अगर उसने भी तुझे देखना चाहा?”

“नहीं, शायद वह ऐसा न ही चाहे,” फिर कुछ देर सोच कर कहने लगी, “मुझे लगता है, जैसे इस सिलसिले में मर्द का काम कुछ ऐसा है जैसे कोई किसी को फ़ालतू वस्तु दे कर भूल जाता है पर औरत ने तो सब कुछ धारण करके अपने पूरे शरीर में रचा कर, नए सिरे से उसको जन्म देना होता है।”

“बात तो तुम्हारी भी ठीक है पर फिर भी यदि उसने भी सोच लिया कि कोई फ़ालतू वस्तु नहीं, ज़िंदगी का हसीन तोहफ़ा किसी को दे रहा हूं तो फिर?” दीपा ने पूछा।

दीपा की बात सुनकर तनवीर चुप-सी हो गई। काफ़ी समय सोचती रही और फिर धीरे से बोली, “यदि उसने ज़िद्द की तो थोड़े मरीज़ आते हैं तुम्हारे पास। किसी मेरे से मिलती जुलती को दिखा देना। किसी की भलाई के लिए डॉक्टरों को तो इतना झूठ जायज़ ही है।”

“जिस प्रकार तुम्हारे पतिदेव से कहा था कि सब कुछ ठीक है, ‘गो अहैड’।” वह दोनों फिर मुस्कुराईं। दीपा ने कहा, “इन छोटे-छोटे झूठों को हम डॉक्टर लोग ज़िंदगी का सच कहते हैं। वैसे यदि देखा जाए तो यह झूठ सच से भी कहीं बड़े होते हैं।”

लगातार तीन महीने पूरे दिनों में स्कैनिंग करने के बाद कृत्रिम कर्म को दोहराया जाता रहा।

चौथे महीने के लक्षणों के साथ एक उम्मीद बंधी और टैस्ट करने के बाद यह उम्मीद यक़ीन में बदल गई।

दीपा से टैस्ट की रिपोर्ट सुनकर तनवीर को खुशी हुई पर जब दीपा ने संभाविक ख़तरों को देखते हुए सारा समय मुक़म्मल बेड रेस्ट का हुक्म भी दाग़ दिया तो तनवीर को यह बहुत ही कठिन-सा लगा।

लगातार बिस्तर पर बैठे रहने या लेटे रहने से ख़ालीपन ने उसको अंतर्मुखी सी बना दिया। उसके पास थोड़े से ही काम रह गए थे- पढ़ना, सोचना या संगीत सुनना।

जब वह कुछ पढ़ती तो नावल, कहानियों का नायक उसे स्वराज जैसा लगता। जब वह कुछ सोचती तो डॉक्टर स्वराज के नैन-नक़्श अपने सारे शरीर में रच गए महसूस करती। संगीत सुनती तो भी उसे ऐसा लगता जैसे उसके कानों में उस दिन वाला गीत गूंज रहा हो और वह अन्तर्ध्यान सी हुई चुटकियों से गीत को ताल दे रही हो।

यह गीत स्वराज ने दीपा के बच्चे की जन्मदिन की पार्टी में गाया था। तनवीर को शायद वह दिन इसीलिए बहुत याद आ रहा था क्योंकि उसने स्वराज के साथ पहली बार इतनी नज़दीकी महसूस की थी।

बहुत सारे लोग दीपा ने कभी भी नहीं बुलाए थे। पर इस बार उसके कहने पर उसने स्वराज को भी बुला लिया था। स्वराज के साथ मिलाते हुए दीपा ने कहा था, “मेरे बचपन की और सबसे प्यारी सहेली तनवीर और तनवीर यह डॉकटर स्वराज।” यह डॉक्टर स्वराज कह कर तनवीर ने जैसे एक भ्रम सा बना दिया।

इतनी सी जानकारी के बाद वह खुद तो इधर-उधर ही हुई रही थी और वो दोनों बड़ी शिद्दत के साथ एक दूसरे से बातें करते रहे। यह नज़दीकी आम से कहीं अधिक थी। स्वराज के रोमांटिक स्वभाव के बारे में उसको दीपा के ज़रिए इतना तो पता लग चुका था कि वह खूबसूरत औरतों में बड़ी दिलचस्पी रखता है। उनके साथ घुल मिल जाने को और कुछ हंसी मज़ाक के साथ अपने प्रति आकर्षण पैदा करने में वह काफ़ी माहिर है।

पर तनवीर को हैरानी यह हो रही थी कि स्वराज की किसी ख़ास कोशिश के बिना ही वह अपने आप ही उसकी तरफ़ आकर्षित हुए जा रही थी और ज़रूरत से ज़्यादा उसके क़रीब आ रही थी। वह महसूस कर रही थी कि उसका देखना-सुनना, गुफ़्तगू और सारे अंदाज़ किसी तरह भी साधारण नहीं थे। वह खुद भी सिर से पांव तक हिल गई थी और यही हालत उसे स्वराज की भी महसूस हो रही थी।

वह अपनी नीली आंखों को खोलते हुए कह रहा था, “तनवीर मैं शादी-शुदा भी हूं और मेरी बीवी खूबसूरत भी है पर फिर भी कोई और खूबसूरत चेहरा देख कर दिल करता है कि मेरा उसके साथ कोई सामीप्य हो। चाहे किसी भी तरह या किसी भी रिश्ते से मैं उसके साथ नज़दीकी बना लूं और दिल की हर बात उसके साथ कर सकूं।” सुनकर तनवीर का दिल किया था कि वह स्वराज के कंधे पर अपना सिर रख दे।

उस दिन पार्टी में जब उसने गीत गाया था तो तरल-सी बनी, गीत को सुनती, अपने दाएं हाथ से जांघ पर थाप देती रही थी और गीत के अंत पर जब सभी लोगों ने तालियां बजानी बंद कर दीं तो उसकी थाप तब भी जारी थी।

तनवीर का पति एस.डी.ओ. था और उसका किसी दूर ज़िले में तबादला हुआ था। वह हफ़्ते के आख़िर में आता। बाक़ी के सारे दिन तनवीर को अकेले ही काटने पड़ते। इस पूरे समय में वह पहले बहुत सा समय अपने पति के बारे में सोचती रहती थी और यह उसे अच्छा भी लगता था। पर पिछले कुछ समय से वह पति से ज़्यादा स्वराज के बारे में सोचने लगी थी। ऐसा करते हुए वह कई बार अपने आप को बहुत बड़ी ग़लत मानसिकता का शिकार हुई समझती और कभी-कभी स्वयं ही अपने आप को ठीक समझ लेती। बड़ी ही अजीब सी ऊहा-पोह में से वह गुज़र रही थी। स्वराज के बारे में सोचते उसे अच्छा भी लगता और कभी-कभी ऐसे सोचते हुए वह परेशान सी होकर अपने आप को क़सूरवार सी समझने लग पड़ती।

वह हर पन्द्रह दिनों के बाद चैक-अॅप के लिए जाते वक़्त सोचती कि शायद दीपा, स्वराज की कोई बात करे। वह कई बार खुद ही ऐसा वातावरण पैदा कर देती जहां स्वराज की बात करनी ज़रूरी हो जाए परन्तु इस तरह कभी भी कुछ नहीं हुआ।

उस को कई बार चिढ़ सी भी आती कि दीपा, स्वराज की कोई बात करने में हिचकिचाती क्यों है?

चैक-अॅप करवाने के बाद तनवीर बिना वजह ही अस्पताल में चक्कर काटती रहती। बस ऐसे ही दरवाज़े-खिड़कियों के पास खड़ी होकर ख़्यालों में डूबी रहती। उसकी उड़ती हुई नज़रें इधर-उधर स्वराज को ढूंढ़ती और अंत में हारकर थक जाती किन्तु स्वराज कभी न मिला।

एक दिन उसने बड़े ही ध्यान से अस्पताल के कार्ड के ऊपर उसके ‘विज़टिंग डेज़’ और समय पढ़ा और मन ही मन निश्‍चि‍त तौर पर उसी दिन और उसी समय अस्पताल में आने के बारे में सोच लिया।

वह पहले की तरह उस दिन सीधी दीपा के पास नहीं गई। बस एक कोने में खड़ी वह स्वराज का इंतज़ार करती रही।

स्वराज आया और आते ही मरीज़ बच्चों को देखने लगा। तनवीर उसे लगातार देखती रही और जब स्वराज बच्चों को देखता-देखता एक कमरे से दूसरे कमरे की ओर गया और वह एक कोने में खड़ी होकर कुछ सोचती रही और उसका हाथ जैसे अपने पेट को टटोलने लगा।

जब स्वराज किसी नए पैदा हुए बच्चे को चैक करने के लिए उसके कमरे में गया तो तनवीर अंदाज़ा लगाकर कमरे के रास्ते में इस तरह खड़ी हो गई जैसे मिलने पर सब कुछ स्वाभाविक लगे।

और ऐसा ही हुआ। स्वराज सामने आया उसे देखकर वह मुस्कुराई तो अपनी तरफ़ से धीमा सा ही पर उसे पता था कि यह खुलकर मुस्कुराने से कहीं अधिक था।

स्वराज के चलते तेज़ क़दम भी अचानक रुक गए। वह मुस्कुराया। तनवीर को उसकी मुस्कुराहट बिजली की तरह चमकदार लगी थी।

स्वराज ने कहा, “कहां गुम हो गई थी, आप से फिर कभी मुलाक़ात ही नहीं हुई।”

“आप को क्या बताऊं कि मैंने आपका कितना इंतज़ार किया। पल तो बहुत बड़ा होता है मैंने आप को एक पल में कई-कई बार याद किया।” आंखें बंद करके उसने ऐसा ही सोचा। आंखें खोलकर वह स्वराज की तरफ़ देख कर मुस्कुराई और ऐसे ही झूठ का सहारा लेते हुए बोली, “हमारे विवाह की दूसरी वर्षगांठ थी। कुछ दिनों के लिए मैं अपने पति के साथ बाहर चली गई थी। वह पहाड़ों पर घूमने के बहुत शौक़ीन हैं।” दीपा की हिदायतों के अनुसार दूसरी वर्षगांठ का झूठ बोलकर उसने अपने परिचय को और भी अपरिचित सा बना दिया।

“आज कैसे आना हुआ?” स्वराज ने सांसारिक शब्दों में जैसे बात को ही आगे बढ़ाया था।

तनवीर ने स्वराज की आंखों में गहराई से देखा, “मैं, मां बनने वाली हूं तुम्हारे बच्चे की और बस तुम्हें मिलने आई हूं और तुम पूछ रहे हो कि कैसे आना हुआ?” उसकी आंखों ने कहा किंतु वह सिर्फ़ इतना ही कह सकी, “बस दीपा को मिलने आई थी और अचानक ही आप से भी मुलाक़ात हो गई।”

“और कोई सेवा मेरे लायक़?” रोज़ाना ज़िंदगी में ऐसे शब्द आम ही बोले जाते हैं। स्वराज ने भी बोल दिए।

“बस शुक्रिया डॉक्टर!” जवाब भी रोज़ाना दुनियावी ज़िंदगी जैसा ही था।

“मैं राऊंड लगा कर आता हूं, फिर मिलते हैं,” स्वराज ने कहा और फिर वह जल्दी से चला गया और तनवीर वहीं खड़ी सोचती रही, “और कोई सेवा मेरे लायक़ का अर्थ क्या हो सकता है, “क्या उसे अपनी पहली की हुई सेवा का पता है? अगर पता है तो इसके अलावा और कौन सी सेवा हो सकती है?”

फिर वह अपने आप से संबोधित हुई, “तू उसकी छोड़ और अपनी बात बता कि, ‘बस शुक्रिया डॉक्टर’ कहने की क्या ज़रूरत पड़ गई थी? इसका अर्थ यह भी तो हो सकता है कि तू उसकी उस मेहरबानी के साथ ही संतुष्‍ट है और तुझे उसकी तरफ़ से और कुछ नहीं चाहिए।”

स्वराज जा चुका था। बस वह वहीं खड़ी शब्दों को अपने ही बदलते अर्थ देती और अलग-अलग नज़रिए से कई कोण-त्रिकोण बनाती रही।

कई बार वह सोचती कि यह क्या होता जा रहा है उसे? इतना अच्छा उसका पति। इतना भरपूर प्यार करने वाला। हर तरह का सुख आराम। हर तरफ़ से ही तो वह संतुष्‍ट थी। यदि कोई कसक थी तो बस बच्चे की कमी की ही थी पर अब वह उसकी पूर्ति की तरफ़ बढ़ती भी अपने आप को संतुष्‍ट महसूस क्यों नहीं कर रही थी?

हर प्रकार की बहुतायत उसके पास थी किन्तु फिर भी उसे कुछ ख़ालीपन जैसा हमेशा ही क्यों खटकता रहता था? तब उसे कई बार पाप जैसा एहसास भी होता जब पति के साथ सोई वह स्वराज के बारे में सोचने लगती। पति के साथ बातें करते-करते वह स्वराज की यादों में किसी और ही दिशा में उलझ जाती। उसे महसूस होने लगता कि वह अपने पति के साथ पहले की तरह जुड़ी नहीं रह सकी थी और उसका बहुत कुछ वहां से टूट कर जैसे स्वराज के साथ जुड़ गया था और दिन प्रति दिन जुड़ता जा रहा था।

यह महसूस करके वह घबरा-सी जाती। कई बार वह सोचती कि उसका पति खुश था कि वह इतने वर्षों बाद बाप बनने वाला है। वह खुद भी खुश थी कि वह मां बनने जा रही है पर जिस के साथ वह खुशी बांटना चाहती थी, उसे इस बारे में कुछ भी नहीं पता था। यह सोच कर वह और भी दुःखी और उदास सी हो जाती।

रिश्तों के बारीक धागे, उसे गले में पड़ी माला की तरह चुभते। अपना ही सिर कंधों पर उठाया बेकार बोझ लगता और उसका दिल करता कि वह पर्दे के इस चबूतरे को अपने ही हाथों से तहस-नहस कर दे।

पहले जिस बात के कारण वह दीपा को समझदार समझती थी अब उसी कारण, उसको कई बार उस पर गुस्सा आ जाता। यह तो ठीक है कि उसने ही दीपा को पहचान न करवाने के बारे में कहा था पर अगर वह ऐसा कर भी देती तो कौन सा सातवां आसमान टूट पड़ना था। कम से कम इस पहचान का कोई आधार तो होता? उस आधार के सहारे उसके साथ बात तो की जा सकती थी। शायद मैं अकेली ही उसके बारे में न सोचती। कभी-कभी थोड़ा बहुत वह मेरे बारे में सोचता और शायद बात थोड़ी बहुत आगे बढ़ती।

उस दिन दीपा के बच्चे की पार्टी में उन्होंने कितनी बातें की थीं। पर वह तो काल्पनिक ही थीं- बस इधर-उधर की। उनमें सांझी धरती तो कोई भी नहीं थी। ऐसा सोचते उसे किसी सांझी धरातल की ज़रूरत महसूस होती।

एक दिन पता नहीं कैसी हवा का झोंका था उसके सिर पर कि उसने मुंह ज़ोर होकर दीपा से कह ही दिया, “मेरा बहुत दिल करता है स्वराज से मिलने के लिए। मेरा दिल करता है, उसके साथ बहुत सारी बातें करूं। उसका धन्यवाद करूं कि उसके प्रयत्‍नों ने मुझे दुनियां में खड़ी होने के योग्य बना दिया है। मैं तरस रही हूं उसके हाथों को थोड़ा सा छूने के लिए। जिसके अस्तित्त्व को मैं अपने सारे जिस्म में लिए फिरती हूं।” दीपा सबकुछ सुनती रही और फिर बहुत ही सख़्त मिजाज़ में ऐसा करने से रोक दिया। उसने माथे पर सिलवटें डालते हुए कहा था, “तुम ठीक तो हो? अपना हर क़दम सोच समझ कर और संभल कर रखने वाली और मेरे समेत कई लोगों को नसीहत देने वाली, आज डगमगा कैसे गई।”

“तुम क्यों नहीं समझती दीपा कि स्वराज की मेहरबानी के आगे जब मेरा मन पूरी तरह समर्पित हो जाता है तो मैं अपने आप को संभाल नहीं पाती।”

“मर्द भी किसी पर की हुई मेहरबानी को कहां भूलते हैं। वे भी झट से कैश करवाने के लिए तैयार हो जाते हैं,” दीपा ने भी बड़े ही व्यंग्यात्मक तरीक़े से कहा।

“सच में ही मेरा दिल करता है कि स्वराज मुझे पूरी की पूरी कैश करवा ले।”

“मुझे समझ नहीं आ रही कि यदि तुम्हारा हाल ऐसा ही रहा तो तुम्हारी गृहस्थी का क्या होगा?” दीपा ने तनवीर का कान पकड़कर खींचते हुए कहा, “वैसे तो कई बार मेरा वास्ता, तेरे से भी अनोखी और अलग क़िस्म की औरतों से पड़ता है।”

“जैसे?” तनवीर ने बड़ी ही हैरानी के साथ पूछा।

“जैसे, किसी का पति सुन्दर नहीं है पर वह आर्टिफिशियल इन्सैमिनेशन से खूबसूरत बच्चा पैदा करना चाहती है।”

“जैसे, कोई औरत शादी के कुछ दिनों बाद ही अपने मर्द से ही कॅन्सीव् हो जाती है। पर वह सब कुछ ख़त्म करके, पहला बच्चा अपने प्रेमी का पैदा करना चाहती है।”

“जैसे- औरत बच्चा ही नहीं पैदा करना चाहती।”

तनवीर एकदम चौंकी- “सच ऐसा भी?”

दीपा ने मुस्कुरा के कहा, “सिर्फ़ ऐसा ही नहीं, अभी तो और बहुत ‘उदाहरण’ हैं अगर तू सुनना चाहे तो – – – – ?”

“बहुत हैं डॉक्टर दीपा, इतने ही बहुत हैं। फिर तुम क्या कहती हो?” उसने हैरानी के साथ पुछा।

“कहना क्या है, मुझे ऐसी औरतों के साथ कभी हमदर्दी नहीं हुई।”

“कमाल है भई- औरतें भी यहां तक पहुंच चुकी हैं?” तनवीर ने हैरानी सी ज़ाहिर की।

“हां, मैं तो एकाध ऐसी औरत को भी जानती हूं जो किसी पर- पुरुष से कृत्रिम तरीक़े के साथ खूबसूरत बच्चा पैदा करने की लालसा के कारण इस तरह उलझी कि वह मर्द उसको आज तक “ब्लैक मेल” करके नोच रहा है।” दीपा की बात सुन कर तनवीर सिर से पांवों तक कांप गई।

दीपा कह रही थी, “मुझे ये भी पता था कि तेरे जैसी भावुक क़िस्म की औरतें ऐसे मर्दों के साथ भी मानसिक तौर पर जुड़ जाती हैं, इसलिए मैंने तेरी पहचान तक भी स्वराज को नहीं बताई और तुम्हें उससे मिलने से भी रोकती रही।” अनुभव से प्राप्‍त किया सत्य तनवीर को बुरा न लगा।

दीपा ने बात जारी रखी, “वैसे स्वराज ने भी तुमसे मिलने की इच्छा कई बार ज़ाहिर की थी। कई बहानों से तेरे बारे में पूछता भी रहता था। कैसी है, क्या करती है? मेरे बारे में क्या महसूस करेगी? क्या वह बच्चे का असली पिता मुझे मान सकेगी? क्या उसका मेरे प्रति लगाव स्वाभाविक नहीं होगा? इस बच्चे के दुःख-सुख को मैं कैसे महसूस करूंगा। क्या यह कृत्रिम रिश्ता सच भी बन सकेगा? तेरी तरह ही वह एक नहीं अनेकों सवाल अकसर पूछता रहता था। बस मैं ही टाल-मटोल करती रही। आख़िर मैंने भी उसकी ज़िद्द के आगे हारते हुए कह दिया कि बच्चे के जन्म के बाद उसे तुमसे ज़रूर मिला दिया जाएगा।”

सुनते-सुनते तनवीर का कच्चा शरीर कांप गया और वह उदास हो गई।

“दीपा, यदि स्वराज ने भी नक़ली से असली बनने की कोशिश की तो – – ?”

“तुम भी तो यही चाहती हो?”

दीपा की सच्ची बात सुन कर तनवीर से कुछ भी बोला न गया और वह हैरान हुई दीपा के चेहरे की ओर लगातार देखती रही।

दीपा लगातार बच्ची को देख रही थी। बेटी उसे बहुत प्यारी लग रही थी। उसने बच्ची को तनवीर के पास से उठाया और अपनी बांहों में लेकर उसके नक़्श और भी नज़दीक से देखने लग पड़ी। बच्ची ने आंखें खोली तो वह देख कर और भी हैरान हुई कि बच्ची की आंखें बिलकुल स्वराज जैसी गहरी नीली थीं।

उसने यह बात बड़े चाव से तनवीर को बताई। तनवीर हां में सिर हिलाते हुए ऐसे मुस्कुराई जैसे उसको इस सब का पहले से ही पता था और कहने लगी, “उस दिन तेरे बेटे की जन्मदिन वाली पार्टी में मैंने जब उसकी आंखों को बड़े ध्यान से देखा तो मुझे पता नहीं क्या हो गया। मेरा दिल करे कि मैं इन को देखती-देखती इनकी गहराइयों में ही डूब जाऊं।” सच में उसकी आंखों का नीलापन देखते-देखते मैं आवेश की अवस्था में पहुंच गई थी। भावावेश में मैं कह गई, “आपकी आंखें बहुत प्यारी हैं – – , दिल करता है इनकी फ़ोटो उतार कर जेब में डाल लूं और जब दिल चाहे निकाल कर देख लूं।” और पता है वह आगे से हंस कर कहने लगा? उसने कहा, “फ़ोटो की क्या ज़रूरत है आप हुक्म तो करके देखें, हम अपनी आंखें ही आपके नाम कर देते हैं।”

“मैं हैरान हूं कि तुम पहली मुलाक़ात में ही इतना कैसे खुल गई?” दीपा वास्तव में ही हैरानी के साथ पूछ रही थी।

“मैं खुद हैरान हूं दीपा। उसे तो कुछ पता नहीं था। जबकि मुझे सबकुछ पता था- बस ऐसे ही मैं उसके ऊपर जैसे अपना अधिकार समझने लग पड़ी थी। मेरे पागलपन की पराकाष्‍ठा थी कि उस दिन स्वराज के हाथ से रूमाल पकड़ कर मैंने अपने हाथ साफ़ किए और फिर रूमाल उसे वापिस करने की जगह अपने पर्स में डाल लिया।” अब भी तनवीर ने उसी रूमाल से अपने माथे को पोंछा और रूमाल तकिए के नीचे रख लिया।

“यदि तुम चाहो तो आज उन्हें मिल सकती हो, मेरा भी वायदा पूरा हो जाएगा,” दीपा ने बहुत ही स्वाभाविक रूप से पूछा।

उत्तर देने की बजाय तनवीर स्वयं भी जैसे सवाल बन गई, “दीपा, उस आदमी की तरह स्वराज भी मुझे ब्लैकमेल कर सकता है?” उसने बहुत ही सहम कर पूछा।

दीपा ने हंस कर कहा, “तुम दोनों ही जज़्बाती तौर पर ‘मिलने’ के लिए तैयार बैठे हो, फिर ‘ब्लैक’ की क्या ज़रूरत?” तनवीर भी हंसी।

“बता न फिर, करूं स्वराज को फ़ोन?” दीपा ने तनवीर को झंझोड़ते हुए पूछा।

तनवीर ने एक लंबी आह भरते हुए कहा, “सच मानों दीपा, उसे मिलने को बहुत दिल करता है पर मुझे यह भी पता है कि उसे देख कर मैं संभली नहीं रह सकती। उसकी समुद्र जैसी गहरी नीली आंखों में मैं फिर से डगमगाने लगूंगी।”

दीपा ने मोबाइल फ़ोन पर स्वराज का नंबर मिलाते हुए तनवीर को कहा, “उसे बुला लेती हूं पर बताऊंगी कुछ नहीं।”

तनवीर के होंठों पर हल्की सी मुस्कुराहट फैल गई। यह मुस्कुराहट स्वराज के आगमन की कल्पना करते हुए स्वयं ही आ गई। फिर यह मुस्कुराहट धीरे-धीरे आलोप होती गई और उसके मस्तक पर पसीना चमकने लगा। उसने दीपा का हाथ पकड़ कर मिन्नत की, “प्लीज़ दीपा, स्वराज को फ़ोन मत करना।” इतने शब्द बोलते ही उसका गला भर आया।

उसने अपनी बेटी को बांहों में लेकर सीने से लगाया, चूमा और फिर उसकी नीली आंखों को देखने लग पड़ी।

देखते ही देखते उसे लगा कि जैसे वह अपनी बेटी की नहीं, स्वराज की आंखों में गहराई में देख रही हो।

ऐसा करते हुए वह नए सिरे से फिर स्वराज की नीली आंखों में गोते खाने लगी। उसने उदास सी होकर एक लंबी आह भरी।

उसने बेटी को दोनों होथों में लेकर इन आंखों को एक दूरी से देखने की कोशिश की और लगातार देखती रही। दूरी के कारण यह आंखें उसे और भी खूबसूरत लगीं।

उनकी ओर लगातार देखते हुए उसकी अपनी आंखें भर आईं और यह भरी आंखें बूंद-बूंद बन कर बरसने लगीं। उसकी आंखों का खारा-बादल जब पूरी तरह साफ़ हो गया तो उसे ऐसा लगा जैसे उसने स्वराज के सारे एहसानों का कर्ज़ उतार दिया हो। उसने तकिए के नीचे से रूमाल निकाल कर अपनी आंखें पोंछी तथा रूमाल कचरे की टोकरी में फेंकना चाहा पर वह ऐसा न कर सकी और पता नहीं क्या सोच कर उसने रूमाल फिर तकिए के नीचे रखते हुए अपनी बेटी की आंखों को चूम लिया।

उसे लगा जैसे स्वराज ने सच में ही उम्र भर के लिए अपनी आंखें उसके नाम लगा दी हों।

उदास खड़ी दीपा सब कुछ देख कर और भी उदास हो गई।

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