-डॉ. राज बुद्धिराजा
जब-जब भी मैं गढ़-गंगा की तरफ़ जाती हूं तो मुझे ऐसे व्यक्ति की याद आ जाती है जिसे लोग ‘भगत जी’ कहा करते थे। वे मुंह-अंधेरे उठते, अष्टाध्यायी के सूक्त याद करते, पास-पड़ोस के बच्चों को संस्कृत पढ़ाते, भिक्षावृत्ति करते और अपने परिवार का पेट भरते। वैसे भगत जी का गढ़-गंगा से रिश्ता बहुत बाद में जुड़ा। गंगा की लहरें उन्हें लील गई थी।
बात बहुत पुरानी है। मेरे पड़ोसवासी बाबू जी सवेरे-शाम कीर्तन करते समय आस-पास के लोगों को बुलाते और करताल हाथ में लेकर नाचा करते। उनकी बैठक लोगों से भर जाती लेकिन मैंने कभी उस बैठक में झांका तक नहीं। दूध लेकर लौटते समय एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि हमारे यहां कल भगत जी आने वाले हैं तुम ज़रूर आना। उनकी उम्र का लिहाज़ करते हुए जब मैं उनके यहां गई तो प्रौढ़ व्यक्ति शीतल पाटी पर आलथी-पालथी लगाए बैठे थे। घुटने तक सफ़ेद धोती, आधी बांहों वाली बंडी, मोटे शीशों वाला चश्मा और आध इंची बाल मुझे आज भी याद है। बाबू जी भक्ति-भाव से उन्हें खाना खिलाने लगे और मैं उठकर अपने घर आ गई। बाबू जी रोज़ सवेरे मुझे रोक लेते और मुझे भगत जी के बारे में बताते कि उनकी पत्नी बहुत सीधी हैं। उनका बेटा भी गऊ है जो मिल जाता है वही खा लेता है। कभी बताते कि उनका बेटा आवारा हो गया है। कहता है कि ये पन्ना-पोथी छोड़ो और नौकरी कर लो। रोज़-रोज़ मुझे भीख मत खिलाया करो। मैं कहती “ठीक ही तो कहता है।”
फिर कुछ दिन बाद बाबू जी ने मुझसे कहा कि भगत जी का बेटा बाग़ी हो गया है। बम्बई भाग गया है कहता है फ़िल्मों में काम करूंगा। मैंने फिर कहा “निखट्टू की औलाद ऐसी ही होती है।”
“राम, राम, राम .. भगत जी को निखट्टू कहती है।”
“हां, बाबू जी! जो आदमी कमा नहीं सकता। अपनी बीवी के लिए सूती धोती तक नहीं ला सकता वो निखट्टू नहीं तो और क्या है?”
इस बार बाबू जी चुपचाप अपने घर चले गए। कुछ दिनों के लिए मैं दिल्ली से बाहर चली गई। लौटने पर बाबू जी ने बताया कि भगत जी बहुत दुःखी हैं। उनकी बीवी ने भी बग़ावत कर दी है। कहती है मैं दूसरी शादी करूंगी। मैंने रटा-रटाया वाक्य कह दिया, “ठीक ही तो कहती है।” अंगारे उगलते हुए बाबू जी अपने घर चले गये।
एक दिन बाबू जी ने बहुत प्यार से मुझे अपने घर बुलाया। आगरे का पेठा और दाल-मोठ खिलाई। फिर अंदर जाकर पीतल की एक झांझर उठा लाए।
“किसके दहेज़ में देनी है, बाबू जी,” मैंने कहा।
“दहेज़ में देने के लिए नहीं, बजाने के लिए लाया हूं,” और उनकी उंगलियों की छाप से झांझर बज उठी। वे बोले, “भगत जी जल-समाधि लेने वाले हैं। हम सब उनके चेले उनके पीछे गाते-बजाते जाएंगे, गढ़-गंगा जाएंगे, हम सब अगले हफ़्ते।” मैं चौंक उठी, “क्या कहा जल-समाधि उन्हें चूल्लू भर पानी नहीं मिला क्या? इतनी बड़ी नदी को अपवित्र करेंगे। यह जल समाधि नहीं आत्महत्या है। मैं अभी पुलिस को फ़ोन करती हूं।” वे रोए, गिड़गिड़ाए कि मैं वहां संगत में नहीं जाऊंगा। तुम पुलिस को फ़ोन मत करो। मैं निश्चिंत हो कर घर लौट आई। इस बात को कई दिन गुज़र चुके थे।
एक दिन बाबू जी मेरे घर आ धमके। बोले “तुम ठीक कहती थी कि वह आत्महत्या है।” वे बहुत देर तक मुझसे बात करते रहे जिसका मतलब था कि भगत जी ने एक सेर पेठा ख़रीदा और गढ़-गंगा की ओर बढ़ चले। उनके पीछे-पीछे भगत जी की जय कहते हुए चेले-चपाटे भी लहरों में उतर गये। भगत जी ने बताया कि मैं एक-एक टुकड़ा पेठा डालता जाऊंगा, मछलियां आती जाएंगी और फिर वे मुझे खा लेंगी। मैं दस साल के बाद फलां आदमी के यहां फिर से जन्म लूंगा और तुम सब से एक बार मिलूंगा। तुम चिंता मत करना।
मुझे काटो तो खून नहीं। आख़िरकार उस प्रपंची ने आत्महत्या कर ही ली। मैं गहरी सोच में डूब गई। पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का बहाना करके उस निखट्टू ने चेले-चपाटों को मूर्ख बनाया और गढ़-गंगा को अपवित्र कर दिया।
रोज़ी-रोटी के लिए जब मैं लंबे अर्से के बाद विदेश में रह कर लौटी तो मुझे लेने के लिए बाबू जी हवाई अड्डे आए और बोले कि बेटी पन्द्रह साल हो गये उस धोखेबाज़ ने अब तक जन्म नहीं लिया।
जिसके यहां जन्म लेना था उसकी पत्नी स्वर्गवासी हो गई। मैं हवाई अड्डे से लेकर घर तक के पूरे रास्ते में मौनी बाबा बनी रही। और एक बार में गढ़-गंगा की तरफ़ गई। यही वो गंगा है जहां उस प्रपंची ने “जल-समाधि” ली थी।