कैसी आई आधुनिकता !
साथ में लाई समलैंगिकता !
हासिल कुछ न होगा इन रिश्तों से ,
फैलेगी सिर्फ़ और सिर्फ़ अश्लीलता !!
यह पंक्तिया आज के नये प्रचलन समलैंगिक रिश्तों पर पूरी उतरती हैं। मेरे विचार में मुहब्बत और अपनापन हर एक इन्सान के लिए बहुत ज़रूरी है और साथ मे ज़रूरी है एक साथी का जिस्मानी, रूहानी साथ भी। और जब अपनी मर्ज़ीं से ऐसे रिश्ते (प्यार मुहब्बत वाले) बनाने में मुश्किलें आती देखी, तब उपजे समलैंगिक रिश्ते। क्योंकि हमारे समाज में किसी के भी साथ “ हर तरह” का रिश्ता बनाने की अनुमति नहीं है। और जब ऐसे रिश्ते बनते हैं तो उँगलियां तो उठनी ही हैं। सो उत्पत्ति हुई समलैंगिक रिश्तों की।
क्योंकि सेम सेक्स वालों को एक साथ बैठते, घूमते-फिरते या इकट्ठे रहते देखकर उँगलियां कम ही उठती हैं। आमतौर पर यह सोच लिया जाता है कि आखिर लड़कों का लड़कों के साथ और लड़कियों का लड़कियों के साथ दोस्ती या प्यार (भाई-बहनों वाला) के इलावा और क्या रिश्ता हो सकता है? जो लोग दबे-घुटे परिवेश में पलते हैं, उनके लिए यह सीधा तरीक़ा है अपनी जज़्बाती इच्छाओं को पूरा करने का क्योंकि ऐसे रिश्ते बना कर वह खुद को आज़ाद समझने लगते हैं उन्हें यह रिश्ते हर तरह से सूट करते हैं। न तो समाज का ख़तरा, न घर–परिवार की टैंशन और न शादी के बाद होने वाले बच्चों की। लड़के-लड़कियां एक-दूसरे जैसा वेष धारण करके अपने आपको स्त्री या पुरुष साबित करने की कोशिश करते हैं लड़कियां तो पुरुष वेष में फिर भी जच जाती हैं पर लड़के सिर्फ़ हँसी का पात्र बनते हैं।
यहाँ हम इस पहलू पर भी विचार कर सकते हैं कि वर्षों से दबी-घुटी पुरुष प्रताड़ना सहती नारी खुद पुरुष बन कर अपने आप को झूठी तसल्ली दे रही है पर क्या यह सही है? नहीं हमारे सामने अमृतसर, बटाला और जालंधर वाले केसों की उदाहरणें हैं कि कैसे जब यह बेबुनियाद रिश्ते टूटते हैं तो पीछे रह जाने वाले हँसी और दया के पात्र बनते हैं। ज़्यादातर ऐसे रिश्ते किसी न किसी लालच में ही बनते हैं। अमृतसर के समलैंगियों में लालच ही तो प्रमुख था ।
ऐसे रिश्तों को बनाने में समाज का या यूं कहें माँ-बाप का भी कसूर है। क्यों वह अपने बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते, अपना प्यार नहीं दे पाते जो घर से बाहर प्यार की तलाश में उन्हें जाना पड़ता है? क्यों वह बच्चों की हरेक गतिविधी का ध्यान नहीं रखते? क्यों उनमें आ रही तबदीलियों को नहीं समझते? क्यों वह लड़कियों को हर समय दबाते हैं और पुरुषों को बलशाली बनाते हैं? और कुछ सवाल समलैंगिकों के लिए भी हैं क्यों वह अपना वजूद भूल जाते हैं? और कौन-सा ऐसा सुख पुरुष को स्त्री बनने पर मिलता है जो उसे पुरुष होने पर नहीं मिल सकता। और कौन-सी ऐसी स्त्री है जो स्त्री के वेष में रहकर ही पुरुषों का मुक़ाबला नहीं कर सकती? ऐसे कई सवाल हैं जो इन रिश्तों ने खड़े कर दिए हैं।
इन रिश्तों की कोई बुनियाद, कोई नींव नहीं होती। ऐसे रिश्तों से न तो समाज चलता है न देश। हो सकता है कुछ लोगों को यह रिश्ते रास आए हों, पर क्या इसमें सबकी भलाई है। ऐसे तो सृष्टि के नियम ही बदल जायेंगे। कुछ लोग कहते हैं कि विदेशों में ऐसा आम चलता है तो फिर यहाँ क्या प्रॉबलम है? उन लोगों से सिर्फ़ एक सवाल है कि क्या विदेशों का संसकार रहित जीवन हमारे संसकारों को, हमारी संस्कृति को सूट करता है।
अरे! यह भारत है भारत! यहाँ की संस्कृति ने सिर्फ़ और सिर्फ़ सुविचारों की उत्पत्ति की है, कुविचारों की नहीं और जो नियम हैं वह नियम ही रहेंगे। ‘साथ-साथी’ का ही होता है अगर ऐसे बेजोड़, बेमेल रिश्ते पनपने लगे तो-
तो क्या?
पतन पक्का है।
-अनुराधा