-गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी

शायरों और लेखकों के प्रति जन साधारण की धारणा भ्रमिक है। आम लोग शायरों को पागल समझने की भूल करते है या जान बूझकर उनको पागल की संज्ञा देते हैं। वास्तव में शायर या लेखक जो सृजन करता है उसको दूसरे को सुनाने की चेष्टा करता है ताकि सुनने वाला उसकी कृति की सराहना करे। जिससे उसके मन को शान्ति मिल सके। उसको स्वयं को तो अपनी रचना पर गर्व होता है परन्तु लोगों के पास इतना समय कहां होता है कि वे उसके मनोभावों को सुन सकें, परख सकें और अवलोकन कर सकें। वह अपनी रचना को सुनाने के लिये व्याकुल हो उठता है परन्तु लोग उसके पास खड़ेे होने से भी कतराते हैं। कई तो ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जब वह निराश और उदास हो जाता है।

इस बात को लेकर व्यंग्य भी चलते रहते हैं। कहते हैं कि एक आदमी दूसरे आदमी के पीछे भाग रहा था। एक तीसरे व्यक्ति ने पूछा, भाई उस आदमी के पीछे आप क्यूं भाग रहे हैं, उत्तर में उसने तीसरे व्यक्ति को कहा, वह आदमी अपनी कविता सुना कर चला गया, मेरी बारी आई तो भाग खड़ा हुआ। सुनकर वह तीसरा व्यक्ति ज़ोर से हंसा। कवि ने कहा हंसते क्यूं हो भाई मेरी कविता सुनो। आप एक सभ्य आदमी हैं, मेरा अनुमान है कि आप नहीं भागोगे। कवि ने उसके कोट केे बटन को एक हाथ से पकड़ लिया और कविता सुनाने लगा। उसने कविता स्मरण की हुई थी इसलिए आंखें मूंद कर कविता सुनाने लगा। आदमी की जेब में एक तीखा ब्लेड था। उसको धीरे से इस्तेमाल करके उसने बटन के धागे काट दिये। वह दुम दुबाकर भाग खड़ा हुआ। कवि ने आंखें खोलकर देखा उसके हाथ में बटन तो था परन्तु आदमी भाग गया था। शायरों की यही बेबसी है कि उनको कोई तरजीह नहीं देता।

एक बार एक शायर ने किसी आदमी को अपनी नज़्म सुनानी चाही। पास में एक कुआं था। उस व्यक्ति ने नज़्म सुनने की बजाये कुएं में छलांग लगा दी। एक अजनबी को प्यास लगी थी। उसने देखा कुएं में एक आदमी अन्दर रस्सी को पकड़ कर पानी में तैर रहा है। अजनबी ने कहा कि कुएं से बाहर आ भाई मुझे रस्सी चाहिए। पानी निकालना है मुझे प्यास लगी है। कुएं के अन्दर से आदमी कहने लगा कि बाहर तो आ जाऊंगा पहले यह बता कि कविता सुनाने वाला चला गया है या यहां ही बैठा है।

इस प्रकार कई प्रकार की व्यंग्य चर्चाएं, शायरों के प्रति प्रचलित हैं।

शायरों को मूर्ख कहने का कारण यह भी है कि पुराने शायर राजे महाराजों के कसीदे पढ़ने में ही मशगूल रहे। सुरा और सुन्दरी की तारीफ़ों के पुल बांध कर वे महफ़िलें जमाते रहे हैं। साकी, शराब और शबाब के साथ कबाब तक ही उनकी शायरी महदूद रही है। इन महफ़िलों में महिलाओं के लिए उचित स्थान नहीं था। ये शायर लालची और भक्षक क़िस्म के थे जो झूठी सराहना करके राजे महाराजाओं से धन लूटते थे। ऐसी शायरी में जन-चेतना, सामाजिक जागृति का अभाव था। इसलिये आशिक़ मिज़ाजी की इस शायरी को पागलपन की संज्ञा देना कोई अनर्थ नहीं था।

अब प्रश्न यह है कि आजकल की कविता नज़्म-ग़ज़ल, कहानी तो ऐसी नहीं है फिर भी लोग शायर/लेखक को पागल क्यों कहते हैं? क्योंकि लिखने के लिए पर्याप्त समय बर्बाद होता है। मुफ़्त में कोई प्रकाशित नहीं करता। पब्लिशर्स की लूट का शिकार होना पड़ता है। जब दीवान छप जाए तो किसी विद्वान की पर्चा लिखने के लिए खुशामद करनी पड़ती है फिर उस दीवान का विमोचन किसी सुन्दर रेेस्तरां में निश्चित किया जाता है। पेपर पढ़ने वाले को पैसे भेंट किए जाते हैं। आए हुए कवियों और श्रोताओं के लिए चाय, ठंडा और भोजन का प्रबन्ध किया जाता है। इतना कुछ करने के बाद भी लेखक आने से कतराते हैं। बड़ी मुश्किल से टेलीफ़ोन करके बार-बार आने केे आमन्त्रण दिये जाते हैं।

दीवान केे छपने की प्रक्रिया से लेकर विमोचन तक पचास साठ हज़ार ख़र्च हो जाते हैं और आए हुए मेहमान उस दीवान को मुफ़्त पाने की चेष्टा करते हैं इसलिए उन्हें उनकी प्रतियां भी दी जाती हैं।

इस महंगाई में अपना और अपने बच्चों का पेट काटना कहां तक उचित है। इसलिए इसको लोग पागलपन नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे। इस समारोह में आने वालों को खुश करने के लिए स्मृति चिन्ह भी भेंट किये जाएंगे जबकि अपने बच्चों के लिए एक खिलौना भी नहीं ख़रीदा जाएगा। यह पल भर की प्रशंसा उसके आर्थिक जीवन को बदहाल करने के लिए काफ़ी है ऐसे में कौन भला उसे अक्लमंद कहेगा।

अब कई महफ़िलों, मुशायरों में जाम से जाम टकराये जाते हैं। ये शायर अपने आपको मिर्ज़ा ग़ालिब, मीर तक़ी ‘मीर’, और जिगर मुरादाबादी समझते हैं। शराब तो दिमाग़ का सन्तुलन बिगाड़ देता है, क्या ऐसी महफ़िलों में कोई अपनी जोरू, बहू या जवान बेटी को शामिल होने की अनुमति देगा। ऐसी परिस्थिति में शरीफ़ घराने की औरतें जाने से झिझकती हैं। जब आधा समाज ऐसे आयोजन में भाग नहीं लेगा तो ऐसे कार्यक्रम मूर्खों के कार्यक्रम ही कहलायेंगे। प्लेटो तो कहता है कि साहित्यकार कायर होते हैं, जो स्वयं आन्दोलन से टकरा नहीं सकते दूसरों पर समस्याएं थोप देते हैं। परन्तु इस तस्वीर का दूसरा पक्ष भी है। साहित्य का अर्थ है हित के साथ। दूसरों के परोपकार के लिए। सामाजिक भलाई के लिए और राष्ट्रीय उत्थान के लिए कवि, शायर, लेखक जो अपनी क़लम को निरन्तर लेखन में बांधता है वह उत्कृष्ट कृतिकार बन जाता है।

लेखक या कवि भी सामाजिक प्राणी है वह समाज में विचरण करता है, समाज की नब्ज़ को पहचानता है। वह साधारण आदमी नहीं है जो किसी बुराई को देखकर आंखें मूंद ले। वह समाज की पीड़ा को आत्मसात करता है। कोई विचित्र घटना को देखकर उसका मन विचलित हो उठता है।

वह समाज में फैले भ्रष्टाचार, अन्धविश्वास, नारी शोषण, कुशासन, आतंकवाद, किसानों की आत्महत्या और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों को उजगार करके समाज को दिशा निर्देश देता है। इस कार्य के लिए कई बार उसे आर्थिक बोझ, परिश्रम और स्वयं कष्ट का उपभोगता बनना पड़ता है। परन्तु वह अपने स्वार्थ को त्याग कर अपने सीधे मार्ग पर चलता रहता है। उसे हानि लाभ की चिन्ता नहीं होती। वह निस्वार्थ भावना से समाज की सेवा में जुटा रहता है। जैसे नदी अपना जल नहीं पीती, वृक्ष अपना फल नहीं खाते, उनका जीवन दूसरे के प्रति समर्पित होता है। साहित्यकार भी दूसरे के लिए जीते हैं। जैसे अच्छे पुरुष समाज, देश और धर्म पर क़ुर्बान हो जाते हैं। उन पर देश कल्याण का भूत सवार रहता है।

गुरु तेग बहादुर ने धर्म और मानव जाति की रक्षा के लिए बलिदान दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सर्वस्व देश पर न्योछावर कर दिया था। वीर हक़ीक़त अपने धर्म पर क़ुर्बान हो गया था। भगत सिंह आज़ादी के लिए फांसी के फंदे पर झूल गया था। यही जुनून, यही जज़्बा, यही जोश साहित्यकार में विद्यमान रहता है। अब उसे पागल कहें या विशिष्ठ पुरुष यह आपकी समझ पर निर्भर करता है। जो साहित्यकार है वो राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और प्राकृतिक कड़ियों का लेखाकार है। यदि लेखक न होता तो भूतकाल के ज्ञानवर्धक तथ्य कैसे पहुंचते। हमारे ऋषियों मुनियों के रचे ग्रन्थ हमें कैसे प्राप्त होते। चार वेद, छ:शास्त्र, अठारह पुराण हम कहां से ढूंढते।

वेद व्यास का गीता ज्ञान, वाल्मीकि की रामायण, तुलसीदास का रामचरितमानस हमारी धरोहर हैं। महाभारत जैसा वीर काव्य कहां मिलता। काली दास की शकुन्तला कहां प्राप्त होती। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र हमारे हाथ कैसे लगता। क्या इन महान व्यक्तियों को पागल की संज्ञा दी जा सकती है। ये तो हमारे लिए पूज्य हैं। श्री गुरु ग्रंथ साहिब भी लेखकों के माध्यम से हमारे पास आया है। नल दमयन्ती, अनिरुद्ध, अरुन्धति, शकुन्तला, दुश्यन्त के क़िस्से मनोरंजन के स्थान पर पुराने गौरव को ज़िन्दा रखने के संकेत है।

छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, अस्तित्त्ववाद, मानववाद के कवियों में सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, मुंशी प्रेमचन्द, मलिक मुहम्मद जायसी, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, जयशंकर प्रसाद की कालजयी रचनायें, हरिवंश राय बच्चन की कविताएं सब के मन को अधीर करती हैं।

यदि चीन में कन्फ़्यूशियस न होता तो मानवाधिकार की बात कौन करता, जर्मनी में मार्क्स न होता तो सामन्ती पिंजरों को कौन तोड़ता। यदि फ्रांस में रूसो न होता तो फ्रांस की क्रान्ति कैसे आती। अगर यूनान में सुकरात प्लेेटो और अरस्तु न होते तो यूनान में न्याय कैसे स्थापित होता।

स्मरण रहे कि साहित्य ही है जो विभिन्न प्रकार के रस उपलब्ध करा के मनोरंजन की दुनियां को समृद्ध बनता है। और हमें ज्ञान से परिपूर्ण बनाता हैैै। साहित्य में श्रृंगार रस, वीर रस, रौद्र रस, वात्सल्य रस विद्यमान रहता है। श्रृंगार रस में हमें मनोरंजन और आत्मिक सुख मिलता है। रेडियो, टेलीविज़न पर जो हम गीत, ग़ज़लें, नाटक और फ़िल्में देखते है वे सब शायरों, लेखकों और साहित्यकारों की देन है। रौद्र रूप में हमें सिंह की गर्जना प्राप्त होती है।

वीर रस की कविताएं सुनकर हमारा खून खौलता है, हम दुश्मन पर टूट पड़ने को तैयार होते है। वात्सल्य में हमारा अनुरूप पनपता है। कृष्ण सुदामा की दोस्ती, राधा कृष्ण का प्रेम संयोग और वियोग की झलक मिलती है।

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी आलेखों ने जन-क्रान्ति को जन्म दिया।

हमारी वीरांगनाएं रचित गीत कानों में अब भी घूमते हैं जब वह कहती है कि खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।

क्या हम बेकल उत्साही, दुष्यंत कुमार, मुनव्वर राणा, बशीर बद्र, जिगर जालन्धरी, साहिर लुधियानवी, जावेद अख्तर, निदा फ़ाज़ली, गोपालदास नीरज आदि कवियों को भुुला सकते हैं।

पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी की ओम जय जगदीश की आरती सारी दुनिया में गायी जाती है।

एक साहित्यकार को जुनून की हद तक गुज़रना पड़ता है, अपने आपको भुलाकर ज़माने की तलख़ परिस्थितियों का मुक़ाबला करना पड़ता है। जिस प्रकार एक साधक को भगवान तक पहुंचने के लिए आत्मा को खोकर सिर्फ़ उस पर आश्रित रहकर शब्द हक़ीक़ी तक पहुंचना होता है। यह स्थिति एक मोमिन की होती है। पागलपन की पराकाष्ठा होती है।

इसी प्रकार की अवस्था लेखक और शायर की होती है। वह समाज का दर्पण है, चित्रकार है और विधिवेत्ता है। उसे पागल की संज्ञा देना सरासर ग़ल्त है। उसे देव तुल्य सम्मान देना ही उचित है। तभी तो कहते हैं कि जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि।

हमारा पंजाब भी अन्य राज्यों की तरह इस काव्य कला में प्रवीण है।

डॉ.हरमोहिन्द्र सिंह बेदी, सुरेश सेठ, डॉ.तरसेम गुजराल, डॉ.अजय शर्मा, डॉ.धर्मपाल साहिल, डॉ.गीता डोगरा, प्रोफेसर मोहन सपरा, डॉ.लेखराज, डॉ.दर्शन त्रिपाठी, सैली बलजीत, डॉ.केवल कृष्ण, यशपाल शर्मा आदि अनेक साहित्यकार कवि और नाटककार साहित्य सृजना में जुटे हुए हैं। हमें अपने साहित्यकारों पर नाज़ होना चाहिए और उनका सत्कार करना चाहिए।

2 comments

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