दीप ज़ीरवी

नारी

न पूज्य बनो न पुजारी हो तुम नारी ही रहो, बस नारी हो तुम। सजधज न कुन्तल बिखराओ यह नयन चपल मत मटकाओ। फ़ैशन की होड़ को रोको तुम इस अंधी दौड़ को रोको तुम।

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बचपन यह प्यारा किधर जा रहा है

जागती आंखों में सदैव स्वप्न पला करते हैं। बालपन किसी भी समाज की नींव रहा है आज के दौर का अवलोकन करें तो बुद्धि विस्मित रह जाती है कि यह सब क्या हो रहा है।

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हम भी खड़े हुए

न तो मेरे पास काला धन था, न किसी मंत्री/ मुख्यमंत्री का बेटा/ दामाद था मैं, न तो मुझे झूठ बोलने की प्रैक्टिस थी, न बूथ कैप्चरिंग का कोई तजुर्बा था ऊपर से स्वयं सोच-समझ कर अपना फ़ैसला स्वयं लेने की बुरी-लत। इस सब के रहते चुनाव में लीडर-लीडर कैसे खेलूंगा??

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राष्ट्र निर्माण या चरित्र निर्माण

हम अपनी जड़ से कोसों दूर जा निकले हैं। आज नैतिक मूल्यों को बुद्धू बक्सा (टी.वी.) ही चबा निगल रहा है। क्या ड्रामे और क्या धारावाहिक सब में विवाहेत्तर संबंधों में उन्मुक्तता रखने, बरतने वाले बोल्ड एवं ब्यूटीफुल चरित्रों का बोल-बाला दिखाया जा रहा है।

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ओ बटोही

ओ बटोही कविता पथ के कहां चला शब्दों का रथ ले भाव प्रवण कविताएं तेरी चपल-चपल ललनाएं तेरी गोरी के नूपुर-सी गुञ्जित भोर सुहानी जैसी सुरभित

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आज की बहू कभी सास भी तो होगी

अब देखिए न, खूसट (?) सास को इतना तजुर्बा हो तो हो पर वो बातें कहां मालूम जो पढ़ी-लिखी (!!) बहू को मालूम हैं। ये किट्टी पार्टियां, ये सिनेमा, शॉपिंग ज़रूरी (!) हैं। ऐसे में बूढ़ों की देखभाल की सिरदर्दी कौन झेले, ये ननद के नखरे, देवरों की अकड़ कौन झेले।

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बापू की हत्या 30 जनवरी 1948 को नहीं हुई थी

– दीप ज़ीरवी मोहन दास कर्मचन्द गांधी व गुजरात, गुजरात व भारत एक दूसरे से भिन्न नहीं है यह शाश्वत सत्य है, जैसे यह सत्य है वैसे ही यह भी सत्य है कि बापू की हत्या 30 जनवरी 1948 को नहीं हुई थी। ! ! ! आश्चर्य मत कीजिए। किसी भी व्यक्ति को मारने के लिए केवल उसका देहांत ही ...

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फ़र्क़ बहुत है अलबत्ता

– दीप ज़ीरवी हिन्दी चलचित्र सत्ते पे सत्ता में एक गीत था कि …. दुक्की पे दुक्की हो या सत्ते पे सत्ता ग़ौर से देखा जाए तो बस है पत्ते पे पत्ता कोई फ़र्क़ नहीं अलबत्ता वह फ़िल्म थी, वह चलचित्र था भी हास्य प्रधान किन्तु भाषा हास्य अथवा उपहास का विषय नहीं, सौहार्द एवं गंभीर चिन्तन की मांग करती ...

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