-दीप ज़ीरवी

मौसम का मेवा किसे अच्छा नहीं लगता हम भी तो इन्सान हैं जी! हमें भी मौसम के मेवे अच्छे लगते हैं। जैसे ही चुनावी दंगल के ढोल ताशे बजने लगे हमारी खोपड़िया में लीडर-लीडर खेलने का चाव कुलबुलाने लगा। हमने अपनी अक्ल के घोड़ों को बहुत समझाया। भई फट्टे में टांग अड़ाना कोई अक्लमंदी तो नहीं है लेकिन वे नहीं माने उलटे दुलत्ती झाड़ने लगे। क़लम घिस्सू बन कर जीवन का पन्ना काला कर डाला, एक बार लीडर-लीडर खेल कर देख लो फिर तुम भी अपने चारों तरफ़ अपनी उपमा में चालीसा लिखने वाले क़लम घिस्सुओं की भीड़ जमा पाओगे।

यह सुन मन, मन-मन के बूर वाले लड्डू तैयार करने में जुट गया।

लेकिन हम चुनाव कैसे लड़ सकते हैं। हमने कोई स्कैंडल तो किया नहीं, हमें न तो यू.पी. के लट्ठों की-सी मशहूरी मिली है न हम बिहार के लठैतों से मिल बैठे हैं कभी। अजी हम तो कम्बख्त पढ़ भी चुके हैं, कहीं अनपढ़ रहे होते तो कम से कम चुनाव लड़ने की एक शर्त तो पूरी कर पाते हम, तिस पर मुई फ़ैमिली प्लानिंग भी कर बैठे हैं हम! अगर आठ दस बाल गोपाल होते तो निराली छवि होती। हमारी तो सिर्फ़ पाव-दर्जन संतान है। हम किस मुंह से चुनाव के मौसम में मौसम का मेवा खा पाएंगे। यही सोच-सोचकर हम बेहाल हो रहे थे।

हम किसी मंत्री, मुख्य मंत्री के बेटे, दामाद भी तो न थे तो किस आधार पर खड़े होते हम लेकिन हमें खड़ा तो होना था न…।

भारत में बेशक हम जन्म के पहले से ही खड़े होने की प्रैक्टिस कर लेते हैं। जन्म से पहले अस्पताल में मां के साथ खड़े रहते हैं, फिर स्कूल में प्रवेश के लिए लम्बी प्रतीक्षा सूची में डटे मिलते हैं, स्कूल के बाद कॉलेज और कॉलेज के पश्चात नौकरी के आवेदक बन कर खड़े रहते हैं। राशन की क़तारों में खड़े रहते हैं अंततः शमशान में अंतिम क्रिया अंतिम संस्कार के लिए भी खड़े रहना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार बन चुका है किन्तु चुनाव में खड़े होने के लिए एक अदद गुण तो चाहिए न!

न तो मेरे पास काला धन था, न किसी मंत्री/ मुख्यमंत्री का बेटा/ दामाद था मैं, न तो मुझे झूठ बोलने की प्रैक्टिस थी, न बूथ कैप्चरिंग का कोई तजुर्बा था ऊपर से स्वयं सोच-समझ कर अपना फ़ैसला स्वयं लेने की बुरी-लत। इस सब के रहते चुनाव में लीडर-लीडर कैसे खेलूंगा?? कैसे खेल पाऊंगा उस हमाम में कपड़े पहन कर जहां शेष सभी नंगे होंगे।

हमारी सोच की नाखुन ने हमारी अक्ल को खुजाया। कैसे? किस आधार पर खड़ा होना है चुनाव में! मैं दुविधा में था कि एक नाटे क़द वाली ऊंची शख़्सियत के दर्शन हुए जो मुझ से कह रहे थे!

तेरी तरह मैं भी तो ग़रीब मास्टर का बेटा था। यही मेरे पास भी नहीं था। मेरे पास था मेरी मां का आशीर्वाद और अपनी योग्यता पर विश्वास। जय जवान जय किसान!

मैं उस महामना को प्रणाम करने को झुका ही था कि मुझे अपने चेहरे पर गीला-गीला अनुभव हुआ।

उठो! स्कूल जाने में देर हो रही है। हमारी श्रीमती जी हमें पानी की छींटों की शरारत से जगा रही थी। मैं सोच में था कि कोई खड़ा होने देगा मुझे भी उन की तरह!

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