-जसबीर चावला

 

सभी हिन्दु एक से नहीं होते, न एक से मुसलमान होते हैं। दरअसल एक जैसी कोई दो मूरतें भगवान् ने नहीं बनाई। एक ही पेड़ पर हर पत्ता अलग है। प्रकृति में सूक्ष्मता से वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर पाया है, एक सा होते भी कुछ न कुछ फ़र्क़ रहता ही है। तभी तो लोकोक्‍तियां भी है- ‘‘पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती।’’ हर कौम में अच्छे-बुरे होते हैं, होते थे और आगे भी सभी सौ फीसदी अच्छे तो नहीं होंगे। अच्छाई पर बुराई राज़ करने लगती है पर अंतत: जीत अच्छाई की ही होती है। यही हमारा भारतीय जन मानस का विश्‍वास है, यही हमारा ध्‍येय-वाक्य है- ‘‘सत्यमेव जयते’’। पौराणिक काल में सुर-असुर संग्राम होते रहे। कभी दानव, कभी दैत्य जीतते रहे। भगवान् परशुराम ने तीन बार धरती क्षत्रियों के अन्यायों से मुक्‍त की। धर्म की रक्षा के लिये महाभारत लड़ा गया। राम ने सत्य के बल पर महाप्रतापी रावण को पराजित कर दिया। ग़रज़ यह कि हर काल में अच्छे-बुुरे, पाप-पुण्य, न्याय-अन्याय का संघर्ष सिर्फ़ भारतवर्ष ही नहीं, पूरी दुनिया का इतिहास जांच-पड़ताल कर देख लें, होता रहा है। हर देश में अच्छे-बुरे इन्सान होते हैं, हर जाति में, हर समाज में बल्कि एक ही घर-परिवार में अच्छे-बुरे इन्सान होते हैं। प्रश्‍न यह उठता है कि आदमी अच्छा या बुरा होता है अथवा परिवेश-प्रणाली दोषी होती है। क्यों एक ही जगह कोई शरीफ़ होता है, दूसरा बदमाश? या यह हमारी नज़र है, मूल्यांकन का तरीक़ा है कि एक को हम दोषी ठहराते और दूसरे को बरी कर देते हैं। एक ही समस्या के ये विविध आयाम हैं जो एक अकेले व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के अध्ययन से लेकर समाज विज्ञान, शासन प्रणाली, राजनीति शास्त्र से होती हुई न्यायिक व्यवस्था और अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी संगठन तक की गुत्थियों को समेटते चलती है। दीगर बात यह कि इन सबका केंद्र-बिन्दु है। मानव और मानव की शारीरिक अवस्थाओं के साथ-साथ मानसिक धरातल पर चलने वाले परिवर्तन उसे अच्छा या बुरा बनाते हैं। सौ फीसदी अच्छा अथवा सौ फीसदी बुरा मानव कहीं नहीं मिलता। एक ही आदमी कभी अच्छा बन जाता है कभी बुरा। अच्छाई और बुराई की जंग उसके अंदर भी चलती रहती है। कानून और पुलिस, सामाजिक क़ायदे और रीति-रिवाज़ उसके बाहरी व्यवहार को नियंत्रित कर सकते हैं पर अंदरूनी विचार और विवेक धर्म तथा नैतिकता के साथ ही दृढ़ किये जा सकते हैं। भगवान् बुद्घ के उपदेशों ने क्रूरतम राजाओं को दयालु बना दिया, हत्यारों को सेवक बना दिया, ठगों को सच्चरित्र बना दिया। इसलिये महात्मा गांधी प्रार्थना किया करते थे- ‘‘सबको सन्मति दे भगवान्’’। अच्छी बुद्घि बुरे को भले में तबदील कर सकती है। यह कहना कि हिंदू होते ही फ़सादी हैं, अल्प-मत ईसाइयों को जला डालते हैं अथवा यह कि मुसलमान जेेहादी होते हैं, इस्लाम की ख़ातिर क़ाफ़िरों का क़त्ल करते हैं अथवा और किसी जाति के बारे समुदाय विशेष के बारे ऐसी सार्वजनिक सरलीकृत घोषणा बेबुनियाद होती है। अच्छे और बुरे का भेद कर ही घटना की पड़ताल करनी चाहिये। जैसा कि पीट सीगर लिखते हैं-‘‘When good people in any country cease their vigilance and struggle, then evil men prevail’’ अर्थात् जब किसी देश में अच्छे अपनी सतर्कता तथा संघर्ष में ढीले पड़ जाते हैं, बुरे स्थितियों पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं, पढ़े-लिखे, विवेकी, विद्वान जब अपनी अग्रणी भूमिका से जी चुराने लगते हैं अथवा अपने सामाजिक दायित्वों से कतराने लगते हैं, तो गुंडे-बदमाश भ्रष्टाचारी सर्वेसर्वा बन समाज पर क़ाबिज़ हो जाते हैं। यह सच है कि नेतृत्व देने के लिये निडर और धर्म-परायण व्यक्‍तियों की ज़रूरत होती है जैसा कि गुरू गोबिन्द सिंह जी ने ख़ालसा के रूप में आदर्श इन्सान की परिकल्पना की थी और अमृत-दान कर मर जीवड़े तैयार किये थे परंतु शत-प्रतिशत शुद्घ (खालसा) चरित्र मानव इतिहास के पृष्ठों में अल्प-जीवी ही होते हैं। लंबे समय तक आदर्श अवस्था बनाये रखना, सामाजिक घातों-प्रतिघातों से बचाकर पूर्णत: न्याय-संगत सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था क़ायम रखना आम जनता की भागीदारी के बिना संभव नहीं होता। जब तक सभी नहीं, तो अधिकांशत: उस आदर्श के लिये समर्पित न हों, उसके लिये प्रयत्नशील न हों, चंद मुट्ठी भर महा-पुण्यात्मा भी सुधार नहीं ला सकते। आज हम भाग्यशाली हैं कि प्रजातांत्रिक प्रणाली में अपने वोट का मत देने के अधिकार का प्रयोग कर अच्छी या बुरी सरकार बनाते हैं। भ्रष्ट या उत्तम, जैसी भी है अपनी सरकार है। हमारा दायित्व है हमने उसे रचने में भाग लिया है और आज़ादी मिलने के बाद आज तक का लेखा-जोखा करने पर घाटा नुक़सान अथवा फ़ायदा जो भी हुआ है उस पर विचार करना किसी एक पार्टी या अफ़सरशाही का काम नहीं बल्कि हर नागरिक का दायित्व है। सातवीं कक्षा में मैथलीशरण गुप्‍त जी की पंक्‍तियां पढ़ी थीं:-
                                                 ‘‘हम कौन थे क्या हो गये
                                                   और क्या होंगे अभी
                                                   आओ विचारें आज मिल कर
                                                    ये समस्याएं सभी।’’

आज नाती-पोते सातवीं कक्षा तक पहुंचने वाले हैं पर समस्याएं जस की तस खड़ी हैं। इधर हम इंतज़ार ही करते रहे कि सभी मिल कर आज करेंगे… कल करेंगे। मिलने वाली तो बात आ नहीं पाई, उल्टा यही देखने को मिला कि लोग टूट रहे हैं, एक-दूसरे से बिखर रहे हैं। आज़ादी से पूर्व की पीढ़ी में जो गर्मजोशी, ईमानदारी और देश भक्‍ति की भावना थी वह अगली पीढ़ी से घटते-घटते ख़त्म होने की कगार तक पहुंचने वाली है। स्वतंत्रता प्राप्‍ति हुई पर आम इन्सान आज़ाद नहीं हुआ। ऐसे लगा गोरे चले गये अपने एजंट बैठा गये। वे अपने देशवासी हैं अच्छे हैं, बुरे हैं पर हैं हम में से। वे किसी बाहरी देश के आक्रांत नहीं हैं। हमारी राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था की उपज है। उनमें भी पांचों उंगलियां बराबर नहीं। थोड़े हैं जो भ्रष्टाचरण से परहेज़ करते, जनता की सेवा के लिये समर्पित हैं। यहां हमें विचार उनमें जो बुरे हैं उन्हें बदलने की करनी चाहिए। कुछ ऐसी प्रणाली और शासन-प्रबंध को अपनाना चाहिए जो बेशक अंग्रेज़ों की दी हुई नौकरशाही और कानून आचार संहिता से भिन्न हो परंतु कारगर हो। आज हम गौर करें तो साफ़ नज़र आयेगा कि हमारी बहुत-सी सामाजिक गड़बडिय़ां सिर्फ इसलिये हैं क्योंकि हम पश्‍चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं। हम अपनी प्राथमिकताओं को समझ कर योजनाबंदी करने की बजाय यह ज्‍़यादा महत्वपूर्ण समझते हैं कि अमरीका अथवा ऐसे विकसित देश क्या कर रहे हैं?  उनकी वित्त व्यवस्था का जो मॉडल है, उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाओं का जो मॉडल है वह हमारे देश पर हू बहू कैसे लागू हो सकता है? हमारे देश में सामाजिक न्याय दिलाने का ज़िम्मा कोई अरब या इटली वासी कैसे ले सकता है अगर कोई परीक्षा पास करने की ख़ातिर उत्तर लिखना हो तो सफल विद्यार्थी की तरह हम भी वे कारण गिना सकते हैं- मुगल सल्तनत का पतन क्यों हुआ अथवा भारत में अशिक्षा, बेरोज़गारी के क्या कारण हैं? जनसंख्या विस्फोट, प्राकृतिक आपदायें, अनेक संस्कृतियां, नई वैज्ञानिक तकनीकों का अभाव इत्यादि-इत्यादि। पर हम प्रौढ़ इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि जो काग़ज़ों पर है वह हक़ीक़त में नहीं है। चीन देश का ज्वलंत उदाहरण हमारे सामने है। भारतवर्ष के बाद आज़ाद होकर भी, भारत से अधिक जनसंख्या वाला देश होकर भी, भारत से निकट भौगोलिक तथा जलवायु की परिस्थितियों वाला देश होकर भी अमरीका के टक्कर पर है। वहां के सक्षम नेतृत्व ने अपनी खूबियों को संजोया, मांजा और कमियों को दूर किया, प्राथमिकताओं को सही क्रम में रख योजना बनाई और वस्तुत: उस पर अमल किया। माओ ने क्या कहा था, जब बहुराष्ट्रीय कंपनी बाटा ने जूतों के लिये पेेशकश की थी- ‘‘हमारी पहली ज़रूरत चावल है। पहले देश के हर इन्सान को भरपेट अन्न की व्यवस्था हो जाये (अर्थात् अनाज का उत्पादन यथेष्ट हो जाये) फिर हर नागरिक के लिये जूते-कपड़े का इंतज़ाम भी कर लेंगे और चालीस सालों तक चीन लोहे की दीवार बना रहा न बाहर से कोई विदेशी कंपनी अंदर, न यहां का सस्ता श्रम बाहर’’। वही चीन आज इतना स्व-निर्भर है, सक्षम है कि बराबरी का सौदा कर सकता है। अपने किस माल को कहां, किस क़ीमत पर बेचना है और किस क्षेत्र में विदेशी पूंजी को लगाना है, वह अपनी शर्तों पर तय करता है न कि अमरीका में पढ़े उसके नौकरशाह करते हैं। यह तुलना अपने में हीन भावना पैदा करने के लिये नहीं बल्कि इसलिये है कि अपनी अच्छाइयों का भरसक विकास होना चाहिये और जो अपनी कमियां हैं उन्हें सलीके से दूर करना चाहिये। अब कौन नहीं जानता कि हर साल भारतवर्ष में बाढ़ का प्रकोप होता है जो हज़ारों करोड़ों रुपयों की जानमाल को क्षति पहुंचाता है। हर साल अख़बारों में यह क़वायद कि हवाई सर्वेक्षण, केंद्रीय समिति द्वारा क्षति का आकलन और फिर प्रभावित राज्य को राहत की राशि पढ़ते-पढ़ते आंखें बूढ़ी हो चली हैं पर ऐसा एक दिन नहीं आया कि सब संबंधित राज्य मिलकर विचार करें, नदियों को जोड़ें और सम्मिलित रूप से बाढ़ की विभीषिका से निपटने का एक कारगर मसौदा तैयार करें तथा उसे पांच-दस साल में पूरा कर जनता को खुशहाल करें। यहां तो सूखे और भूखमरी का भी सौदा होने लगता है, कमीशन तय होने लगते हैं। ऐसा नहीं है कि भारतवर्ष में पंचवर्षीय योजनायें नहीं बनी। पहली में कृषि, फिर उद्योग, फिर दुग्ध क्रांति, संचार-क्रांति और क्या-क्या नहीं हुआ पर ज़मीनी हक़ीक़त और रपटी हक़ीक़त में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ रहा। आंकड़े कुछ बताते हैं, हालात कुछ बताते हैं। ऐसा इसलिये है कि जनता की भागीदारी नहीं है। प्रजातांत्रिक ढांचे में प्रजा से परहेज़ है। आम आदमी अनपढ़-गंवार का इलज़ाम ढोता फिरता है। जबकि इसकी ज़िम्मेवारी पढ़े-लिखे उच्च वर्ग पर है। अगर उसे अपने देश का समझते हैं तो उसकी दयनीय हालत पर हमें शर्म महसूस करनी चाहिये। इसलिये अमीरी का एकतरफ़ा बढ़ते चले जाना सारे मुल्क को एक खाई में तब्दील कर देता है। विदेशी पत्रिकाओं में तो छप जायेगा संसार का सबसे अमीर आदमी भारतीय है… फिर…. कि भारतवर्ष में अरबपतियों की संख्या संसार में सबसे ज्‍़यादा है… पर क्‍या इनसे देश की विशाल जनसंख्‍या जो भूखे, अधनंगे किसानों, मज़दूरों की है उनकी हालत में सुधार होगा? अगर देश में चार चक्का वाहनों (कारों) की संख्या दस गुना और बढ़ जाती है तो शहरों की सडक़ें चौड़ी करने से तो पेट्रोल का उत्पादन होगा नहीं। वह तो आयात ही करना होगा और अपनी खनिज संपदा मिट्टी के भाव बेच कमायी महंगी विदेशी मुद्रा तेल-ईंधन में फूंक जायेगी। तो प्राथमिकता क्या है? तेल कि कार? फिर यह जानते हुए कि इससे जो प्रदूषण पैदा हो रहा है, वह कैंसर तथा अन्य बीमारियां फैला रहा है जिनके इलाज के लिये न तो इतने अस्पताल हैं, न चिकित्सा पर ख़र्च करने के लिये अधिक पैसा है। तो हम यह कब विचार करेंगे मिलकर कि नैनो चाहिये कि भूमिहीन किसान को राेज़ी-रोटी का कुछ स्थाई जुगाड़ चाहिये? यह विचार करने को कब हम लोग मिलेंगे कि किसान अगर आत्महत्या करने को बाध्य हो रहा है तो कर्ज़ माफ़ करने से उसका जीवन नहीं लौटेगा बल्कि उस प्रणाली में जो खोट है, जिसके फंदे में उसका ग़रीब गला घोंट दिया जाता है, उसे दूर करने से किसानों को जीवन मिलेगा। शोषण का एक तरीक़ा बंद कर दूसरा खोलने से अच्छा है पहला जारी रहे ताकि जो मर रहा है वह अपने बचाव का रास्ता सोच सके। इसलिये योजनाओं को हर पांच साल बाद नये पैकेट, नये भवन, नये अफ़सरों, नई प्रचार पुस्तिकाओं तथा नये विज्ञापनी नारों में ढालने से ज्‍़यादा कारगर है पुर्नमूल्यांकन करना। कहां गड़बड़ी हुई, कोताही हुई, भूल हुई कि लक्ष्य-प्राप्‍ति शत-प्रतिशत नहीं हो पाई। उसे जारी रखते हुए हक़ीक़त में वे परिणाम सामने आने चाहिये। इसके लिये ज़रूरी है उसे व्यवस्था में शामिल किया जाये जिसके लिये योजना बना रहे हैं। भारतवर्ष की दशा सुधारने के लिये गोलमेज़ बैठक करेंगे और उसमें भारत का कोई आदमी ही नहीं है, तो क्या-किसको मिलेगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। विदेशी सफ़र, भत्ते, सुख-सुविधायें और कमीशन डकारने से ज्‍़यादा और क्या होगा? विज्ञापन, टी.वी चैनलों और मीडिया के रंगा रंग आयोजनों के बाद देश तो उसी गड्ढे में फंसा मिलेगा जहां 1857 के सैनिक छोड़ गये थे। तो जिसका इलाज करने का हम दम भरते हैं, तमाम नाटक करते हैं उससे पूछ तो लें दर्द हो कहां रहा है? यह संवाद तो कभी 1947 से लेकर अब तक स्थापित नहीं हो पाया। न उस बेचारे को यह अधिकार दिया कि झटपट पूछ ले। अगर चीख-चिल्लाहट गुस्सा-झल्लाहट प्रकट करता है तो डपट, बेइज्‍़ज़ती, लाठीचार्ज से लेकर गोली-फांसी तक का इंतज़ाम है। अच्छे-बुरे तो हर जगह हैं। एक बार में छप्पन मारने वाले भी हैं और घुटने टेक पूंछ हिलाने वाले रिश्‍वतख़ोर भी हैं पर जब मिलकर विचार करेंगे तो यह समझते देर नहीं लगेगी कि मिज़ोरम-मणीपुर पर चीन की आंख क्यों है और क्यों कश्मीर कन्याकुमारी से नहीं जुड़ना चाहता? अभी तो हमने अपनी जनता को ठीक ढंग से चलना तक नहीं सिखाया। बायें किधर होता है और कुचले न जाने से इसका संबंध है कौन बतायेगा? कौन बतायेगा कि कार्बन डाईआक्साइड गैस कमरे में भर जायेगी तो मौत हो जायेगी? यह तो हमको स्वीकारना ही पड़ेगा कि सारे देश में प्रशिक्षण का नितांत अभाव है। एक वर्ग है जो हर प्रकार की शिक्षा सुविधाओं अवसरों का भरपूर उपयोग कर विदेश की खुशहाली में मस्त है। दूसरा है जो दुनिया-भर की तकलीफ़ों से जूझता, भाग्य के भरोसे छटपटा रहा है। दोनों में अच्छे-बुरे हैं पर दूर-दूर हैं। अच्छे-अच्छे मिल जायें तो बुरे को भी अच्छा बना दें। पर मिलें कैसे? आपस में मिलना, एक संवाद स्थापित होना पहले से भी मुश्किल हो गया है। टी.वी. के सैंकड़ों चैनलों ने आदमी को आदमी से काट दिया है। आस को पड़ोस से, दीवार सटी होने के बावजूद दूर धकेल दिया है। एक वर्ग है जिसका हर आदमी कूड़ा पैदा कर रहा है। उसका काम है कचरा फैलाना। इधर एक है जो अभिशप्‍त है कूड़ा बटोरने को, उसकी रोज़ी-रोटी उसी में है। वह कहां-कहां से कचरा और रद्दी उठाये क्योंकि देखते-देखते यह भारत-भूमि कचरे से लद जाने वाली है। अपना कचरा विदेशों का कचरा और ऊपर से कचरे का कचरा। क्यूंकि जिस उपभोक्तावाद की चपेट में हम घिर गये हैं, वैश्‍वीकरण की जिन बुराइयों को हम आत्मसात् करते जा रहे हैं वे हमारी आदत में शुमार होते जा रहे हैं। उनसे जल्दी पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जायेगा अगर हम अभी तुरंत उस भगाने को कमर नहीं कसते। हमारी नालियां, हमारे बाज़ार, हमारे तीर्थ, नदियां-पहाड़ सब कचरे से ढक जाने वाले हैं। वंचित पूरी की पूरी जनसंख्या मिलकर भी धनाढ्यों और तथाकथित उच्च मध्यवर्गीय बुद्घिजीवियों का कचरा ढो नहीं पायेगी और फिर ढोकर कहां ले जाये? इतनी जगह कहां है? जिसे सफ़ाई करनी है आख़िर वह भी तो हाड़-मांस का प्राणी है। उसे भी तो रहने, कचरा फैलाने की जगह चाहिये। वे ऐसे रोबोट कैसे बन जायें कि बस सफ़ाई करे और मिनी-पैक में स्वत: बंद हो जायें। फिर रीमोट की तरंग मिलते ही हरकत में आ जायें। मिट्टी का खिलौना कहा जाता है मानव। क्योंकि कुछ पता नहीं कब इसकी डोर ऊपर वाला खींच ले। आज हर खिलौने के हाथ जेबीफ़ोन का खिलौना है। बातें करना, गाने सुनना… संभव है सब पर इतनी बातें किसके बारे में हैं? देश किस तरफ़ जा रहा है? इन सबका सामूहिक लाभ किसे मिल रहा है? जब ये सुविधायें नहीं थी तब आदमी खुश था या अब? इसमें कोई शक नहीं कंप्यूटरों ने काम आसान किये हैं, पर किनके लिये? इन नई वैज्ञानिक तकनीकों के ज़रियेेे कौन शिकंजा कस रहा है? क्यों हर दूसरे नहीं तो तीसरे दिन अख़बार में ख़बर पढ़ने को मिलती है कि दो वर्षीय मासूम लड़की के साथ किसी ने बरज़ोरी कर दी। महिला ने बेटियों-संग खुदकुशी कर ली। यह किसका आतंक है जो भीतर ही भीतर हमारे जीवन-मूल्यों को खोखला बनाता जा रहा है? यह विदेशी पोर्न फ़िल्मों, तस्कर की हुई नशीली दवाओं का जाल कौन फैला रहा है? कौन हमारी भोली जनता को अपनी नैतिक अच्छाइयों और राम, कृष्ण, बुद्घ, नानक सिखाई सच्चरित्रता को त्याग विदेशी गुंडागर्दी और बदचलनी के रास्ते ज़बरदस्ती खींच रहा है? यह हम कब विचार करेंगे कि आज की समस्याएं किसी प्राचीन ऐतिहासिक मॉडल पर आधारित नहीं हैं। उस समय के महान् अवतारों ने उनका इलाज उस समय के हिसाब से किया था। उस समय की राजनैतिक व्यवस्था का मॉडल भिन्न था। एक प्रजातांत्रिक पद्घत्ति में हमें बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये मिलकर जुटना होगा, मिलकर विचार करना होगा।