-गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी

सर्वप्रथम धर्म का विश्लेषण करना ही उचित है। धर्म का आकार और स्वरूप बहुत बड़ा है। धर्म का क्षेत्र बहुआयामी है। धर्म की व्याख्या करना बड़ा रोचक भी है और कठिन भी है। धर्म की एक विचारधारा है जिसका प्रभाव समाज में निरन्तर होता रहता है। धर्म की व्याख्या प्रत्येक विद्वान ने अपने ढंग से की है। कोई कहता है कि धर्म अपने आराध्य देव की पूजा है। कोई कहता है कि प्रभुसत्ता से आत्मा का जुड़ाव धर्म है।

मेरी नज़र में धर्म का तात्पर्य कर्तव्य–निष्ठा है धर्म का अर्थ अनुशासन है धर्म सहकारिता और सहनशीलता का यथार्थ है। धर्म परोपकार और सदाचार का मिश्रण है। धर्म मनुष्य मात्र की सेवा है और समाज कल्याण का उत्तर दायित्व है। मानवता से विमुख कोई धर्म नहीं हो सकता। क्योंकि Service of mankind is the best service of God.

परन्तु धर्म के स्थान पर सम्प्रदाय ने जन्म ले लिया है। अलग-अलग टोलियों में समाज बंट गया है। इन संगठनों ने अपने-अपने अलग-अलग भगवान निश्चित कर लिये हैं। सम्प्रदाय का मतलब है धर्म के विषय में अपनी सोच को कट्टरता के दायरे में समेट लेना। सम्प्रदायों में मानव का मानव न होकर हिन्दू, सिक्ख, ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैनी की संज्ञा को प्राप्त कर लेना।

सम्प्रदाय का मतलब है कट्टरता। सम्प्रदाय का अर्थ है असहिष्णुता, सम्प्रदाय से तात्पर्य है अपने धर्म को ही विशेष मानना तथा दूसरे धर्मों को नीचा दिखाना, सम्प्रदाय का अर्थ है दूसरों के प्रति घृणा की भावना रखना। सम्प्रदाय का मतलब है संकीर्णता और तंगदिली। सम्प्रदाय केवल अपने लोगों का हित सोचता है उसमें मानवता के गुणों का समावेश नहीं होता, एक समुदाय दूसरे सम्प्रदाय पर आक्रमण करता है नीचा दिखाता है, जिससे मानवता ग्रस्त और घायल होती है।

धर्म में आस्था का भी बोलबाला है। आस्था क्या है? आस्था रीति-रिवाज़ों और पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही लकीर को पीटती है। आस्था में नवीनता या समय की उपयोगिता को अस्वीकार किया जाता है। आस्था एक अंधविश्वास है, अन्धानुकरण है, बिना तर्क का आडम्बर है। आस्था में नये प्रयोग अमान्य हो जाते हैं। आस्था में गूढ़ विश्वास होने से धर्म केे क्षेत्र में कोई अन्य समाधान स्वीकार्य नहीं होता। आस्था रूढ़ियों का पिटारा है। आस्था में बुद्धि का कोई कार्य नहीं होता। आस्था अटूट होती है और मूढ़मति के कारण ठीक और ग़लत में निर्णय नहीं ले सकती। आस्था निर्बल प्राणियों का हथियार है। आस्था में आत्मबल नहीं होता यह तो केवल मानव की अच्छी कल्पना की उड़ान है। फिर भी आस्था में संसार डूबा हुआ है। प्रत्येेक प्राणी इस आस्था में लीन है कि ईश्वर ही सब कष्टों का निवारण करेगा।

धर्म जब समुदाय और सम्प्रदायों में परिवर्तित हो जाते हैं तो धर्म के ठेकेदार उन्हें अपने रंग में रंगने लगते हैं। अलग पहरावे हो जाते हैं अलग-अलग झंडे हो जाते हैं। केसरी, नीले, पीले, काले, सफ़ेेद वस्त्र पहनकर अपने-अपने ढंग से प्रतिबन्ध लगाते हैं और एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बनकर व्यवहार करते हैं।

दुनिया के सारे धार्मिक ग्रन्थ एक इश्वरवाद की घोषणा करते हैं। वेदों, पुराणों में एक ईश्वरीय सत्ता का व्याख्यान है। बाइबल कहती है कि God is one। कुरान कहता है कि केवल एक अल्लाह दुनिया को बनाता है। श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में एक ओंकार का ही वर्णन है। कितने आश्चर्य की बात है कि सभी सम्प्रदायों ने भगवान को बांटकर अपने क़ब्ज़ेे में करने की चेष्टा की है। कोई कहता है मन्दिर में भगवान है। मुस्लिम कहते हैं कि मस्जिद में अल्लाह निवास करता है। ईसाई मानते हैं कि चर्च में गाॅड है। सिक्ख भाई मानते हैं कि वाहिगुरु गुरुद्वारे में विद्यमान है। ये सभी धर्म के ठेकेदार स्वयं भी भ्रम में हैं और अन्य लोगों को भी भ्रमित करते हैं। जबकि मन्दिर का मतलब है मन के भीतर। गुरुद्वारे का मतलब है गुरु का द्वार। मस्जिद का मतलब है नमाज़ का स्थान। चर्च से भाव है ईसाइयों का उपासना स्थल। परन्तु ये सब निर्मित स्थान मनुष्य के खुद के बनाये हुये हैं। परमात्मा किसी का ग़ुुलाम नहीं है जो इन धर्मस्थलों पर क़ैैद होगा।

वह तो स्वयंभू हैं सर्वशक्तिमान हैै और कण-कण में विद्यमान है। उसे कोई अपनी परिधि में बांध नहीं सकता। वह तो हर प्राणी में निवास कर रहा है, उसे धर्म स्थलों में बांधना मूर्खता है।

कबीर साहब कहते हैं “कस्तुरी कुंडल बसै, मृग ढूंढ़ै वन माहि, ऐसे घट-घट राम हैं दुनिया देखे नाहि।”

वेे मुसलमानों को फटकार लगाते हुये कहते है, “कांकर पाथर जोरि कैै मस्जिद लई बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।”

गुरु नानक जी कहते हैं कि भगवान के लिए धूप, दीप और ज्योति प्रज्वलित करके उसे प्रसन्न करना आडम्बर और दिखावा है। वह तो ज्योति निरंजन है, स्वयं ज्योति स्वरूप है। उसे कौन ज्योति दे सकता है जिसको सूरज, चांद, सितारे प्रकाशमान कर रहे हैं और उसके आगे नतमस्तक हैं।

वो खुदा इन मन्दिरों या अन्य धार्मिक स्थलों पर निवास नहीं करता। वो नहा धो कर तिलक लगाने या जंगल-जंगल घूमने पर नहीं मिलता। बुल्ले शाह जी कहते हैं कि जे रब्ब मिलदा नहातयां धोतयां मिलदा डडुआं मच्छियां, जे रब्ब मिलदा जंगल बेले मिलदा गऊंआं वच्छियां, बुल्ले शाह रब्ब ओहना नूं मिलदा नियतां जिनां दीयां सच्चियां। अर्थात् परमात्मा उन मन्दिरों, मस्जिदों या दूसरे धर्मस्थलों में कदापि नहीं है। परन्तु अपनी सुविधा और सरलता के लिये इन षड्यंत्रकारियों ने करोड़ों की संख्या में मन्दिर और पूजा स्थल बना रखे हैं जहां लोग एकत्रित होकर भगवान को पाने की चाह रखते हैं।

इकबाल ने तो लिखा था मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना परन्तु यहां तो प्रत्येक धार्मिक स्थल युद्ध का अखाड़ा बना हुआ है। पिछले दशकों में धर्म के नाम पर बहुत जानी और माली नुक़सान हुआ है।

जितनाी धर्म स्थल बनाने में पैसों की बर्बादी होती है, उतने में ग़रीब लोगों को भुुखमरी से बचाया जा सकता है। अमीर लोग इतने इन धर्म स्थलों पर मेहरबान हैं कि सोने के पहरावे और मुफ़्त हीरे, मोती दान करते हैं। तिरुपति बाला जी मन्दिर हो या साईं बाबा का मन्दिर, दक्षिण में महालक्ष्मी मन्दिर हो या उत्तर भारत का वैष्णो देवी मन्दिर पता नहीं इन धार्मिक स्थानों पर कितने टन सोना, हीरे-जवाहरात और नोटों के अम्बार जमा है। यदि ये अकूत धन देश के काम आ जाए तो देश में ग़रीबी का नामोनिशान नहीं रहेगा। यदि लोग मन्दिरों के स्थान पर समाजसेवी संस्थाओं को दान करें। अस्पताल और स्कूल कॉलेजों पर धन व्यय करें तो देश समृद्ध और खुशहाल होगा। परन्तु लोग अन्धविश्वासी और रूढ़िवादी हैं, भेड़ चाल चलते हैं।

“गतानुगतिको लोक: न लोक: पारमार्थिक:” लोग परमार्थ की बात नहीं करते। एक-दूसरे के पीछे-पीेछे काम करने लगते हैं आराध्य देव की शरण में।

अब अयोध्या में राम की आराधना में साढ़े पांच लाख दीये जलाकर दीवाली मनाई गई क्या राम का साक्षात्कार किसी को हुआ। एक तरफ़ पटाखों का प्रदूषण दूसरी तरफ़ इन दीयों के धुएं का प्रदूषण और इन दीयों का जब जल प्रवाह होगा तो क्या सरजू नदी में गन्दगी नहीं फैलेगी।

मन्दिरों के स्थान पर सुन्दर-सुन्दर पर्यटन स्थल बनाये जाएं। कला भवन, संस्कृति भवन, अनाथालय और विश्राम गृह स्थापित किये जायें, दिव्यांग घर निर्मित किये जायें, विद्यालय और चिकित्सा केन्द्र खोले जायें तो भगवान अति प्रसन्न होगा। मन्दिरों में न भगवान आएगा न उसे आने की ज़रूरत है। सूरदास, तुलसीदास, मीरा, पन्ना ने कोई मन्दिर नहीं बनवाया स्वयं की शक्ति से भगवान को पाया है। मन के चिन्तन से भगवान मिलता है।

“बुल्लेया रब्ब दा की पाना इधरों पुटणा उधर लाणा।”

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