– सुभाष “साहिल”
देश या संसार के वर्तमान हालात पर नज़र डालें तो आज लगभग हर मनुष्य इस समाज या इस संस्कृति में अपनी इक पहचान बनाने को तत्पर है। इन उत्कंठाओं की दौड़ में हर इन्सान इतना जागरूक हो गया है कि अपने अधिकारों को भली-भांति पहचानने, जानने लगा है।
आज प्रगति की इस अंधी दौड़ में अगर किसी को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं है तो आधुनिक उत्कंठाओं का बोझ उसे कुचल डालेगा।विडम्बना यह है कि अपने अधिकारों के लिए लड़ते हुए इन्सान यह भूल चुका है कि अधिकारों से भी ज़रूरी एक संस्कार है जिसके दम पर हम विकसित होने का दम भर सकते हैं।
हर किसी को अपने अधिकारों का प्रयोग करना चाहिए, लेकिन इस प्रयोग में यह देखना भी उसका कर्त्तव्य है कि उसके अधिकारों से कहीं दूसरों के अधिकारों का दमन तो नहीं हो रहा।
विशेष तौर पर महिलाएं जो कि आज तक केवल अपने कर्त्तव्यों को ही निभाती आई हैं उन्हें अपने अधिकारों के लिए भी लड़ना सीखना चाहिए। यद्यपि आज की नारी शिक्षित है और पुरुष के साथ बराबरी का अधिकार रखती है लेकिन अधिकतर परिस्थितियों में यह अधिकार केवल काग़ज़ों तक ही सिमट कर रह गया है।
हर किसी को अपने अधिकारों के साथ कर्त्तव्य को भी निभाना चाहिए और महिलाओं को अपने कर्त्तव्य निभाते हुए अपने अधिकारों को धरातल पर प्राप्त करने के लिए संघर्ष को एक कर्त्तव्य समझ कर करना चाहिए।
“चमकती है लौ एक चांद तारों के साथ।
एक ज़िंदगी अभी दूर तन्हाइयों में है।।
इक दिन धरातल पर उसको भी तो लाना होगा।
मेरे दर्द का इक टुकड़ा अभी तक रुबाइयों में है।।”