-चित्रेश

भारतीय सांस्कृतिक चेतना का मूल आधार है- स्वस्थ एवं सुखी जीवन की कामना। अपने क्रियात्मक स्वरूप में यह जीने की एक सुन्दर और सुविचारित शैैली प्रदान करती है। दरअसल हमारे सामाजिक-पारिवारिक जीवन में उमंग और उल्लास लेकर आने वाले जो ढेरों पर्व और उत्सव हैं, वह सब इसी व्यवस्था की छोटी-बड़ी कड़ियां हैं। हम पाते हैं कि हरेक ऐसे आयोजन किसी मिथकीय घटना अथवा पौराणिक प्रसंग से जुड़े हैं। सब के अपने-अपने कर्म-काण्ड और विधि-विधान तो हैं ही मगर फाल्गुन शुल्क पूर्णिमा को मनाई जाने वाली होली की महिमा इस मायने में एकदम न्यारी है। इस रंगीले-सजीले पर्व को मनाने के पीछे किसी एक प्रसंग की प्रधानता नहीं बल्कि मान्यताओं और पुराकथाओं का पूरा रंग-बिरंगा गुलदस्ता मौजूद है।

होली मनाने का प्राचीनतम संदर्भ मनु महाराज से सम्बन्धित है। इसीलिए होली को “मन्वादितिथ” भी कहते हैं। माना जाता है लाखों वर्ष पहले इसी दिन मानव जाति के आदि पुरखा मनु महाराज अवतरित हुए थे। यह घटना पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्त्व संघर्ष का प्रस्थान बिन्दु है। अब मानव के लिए पृथ्वी छोटी पड़ने लगी है। अन्तरिक्ष के आगे भी उसने अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है। इसी विजय अभियान के आदि मुहूर्त की हर्षोल्लास भरी सामाजिक अभिव्यक्ति है, सबको एक रंग में रंगकर समतावादी दर्शन साकार करने वाला यह पर्व।

वैदिक काल में इसकी मान्यता “नवसस्येष्टि-पर्व” के रूप में थी। होली ऐसे समय आती है जब रबी की फ़सल तैयार होने वाली होती है। गेहूं-जौं की बालियों पर पीलापन आने लगता है। चना अधपका होता है। सरसों-मटर जैसी फ़सलें खलिहान की राह देख रही होती हैं। तत्कालीन कृषि पर आधारित अर्थ-व्यवस्था में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण समय होता था। “नवसस्येष्टि-पर्व” इसी के श्रद्धापूर्ण अगवानी से सम्बन्धित था। इस पर्व में सर्व प्रथम नए अन्न को अग्नि को समर्पित किया जाता है। इसके बाद लोग ‘होलक’ का प्रसाद ग्रहण करते थे। कल्पद्रुम के अनुसार- “तृणाग्नि भ्रष्टार्द्ध पक्वशमी धान्य: होलक:।” (घास-फूस की अग्नि में सेंके गए अधपके अन्न को होलक कहा जाता है) मान्यता है, होलक देह में बल, बुद्धि, स्फूर्ति और पुरुषत्व की वृद्धि करता है। आज भी होलिकाग्नि में चना, गेहूं, जौं आदि अधपके अन्न को भून घर ले आने का प्रचलन, इसी परम्परा की अविच्छिन्न कड़ी है।

उत्तर वैदिक काल तक आते-आते होली के स्वरूप में परिवर्तन आ गया था। इन दिनों यह लम्बे समय तक चलने वाले “मदनोत्सव” के समापन का रूप ले चुका था। स्त्री-पुरुष “मदनोत्सव” में कामदेव की प्रतिमा के समक्ष सामूहिक नृत्य-गान करके खुशियां मनाते थे। मान्यताओं की उथल-पुथल में कर्मकाण्ड के स्तर पर यह कड़ी ज़रूर टूट गयी है, लेकिन लोक-जीवन से एकदम जुदा नहीं हुई है। क्योंकि पिछले हज़ारों साल के बीच एक भी ऐसा समय नहीं आया, जब फूलों-वनस्पतियों में उभरती रंगों की छटा से लोक-मानस को होली का संदेश न मिला हो।

बसंत ऋतुराज है कामदेव को समर्पित समय। इसकी धड़कनों को फाल्गुन के मस्त महीने में सुना जा सकता है। नई कोपलों और मुस्कराते पुष्पों से सिंगार गर्विता प्रकृति में देखा जा सकता है। इन दिनों टिटक-टिटक कर चलती पछुआ ब्यार और किशमिशी ठंड की मादक-सी गुदगुदी से क्या बूढ़े, क्या जवान, सब पर एक खुशनुमा सुरूर छाने लगता है। इसकी पहचान फाग-मल्हार, जोगीरा-कबीरा की मांसलता, गांव-गलियों में चल पड़ने वाली चुहुलबाज़ियों, हंसी-मज़ाक और छेड़छाड़ में की जा सकती है। यह सब कामदेव के पुष्पबाण का ही असर है। वैसे भारतीय चिंतन धारा में “काम” की मान्यता त्याज्य में नहीं, बल्कि जीवन के मुख्य पुरुषार्थों में एक है। “अर्थ-काम धर्म-मोक्ष” के बीच की उपस्थिति एक सुनिश्चित जीवन का अंश है। मगर काम का आधिक्य आत्मा की शुद्धता और सामाजिक मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है। निश्चय ही यह स्थिति जीवन के अन्य उद्देश्यों को पीछे धकेल देती है। इसीलिए शिव जी ने आज के दिन अपना तीसरा नेत्र खोलकर सीमा के आगे जा रहे कामदेव को भस्म कर दिया था। कहते हैं, इसी का प्रभाव आज तक चला आ रहा है और होली के साथ ही लोक जीवन में बसंत पंचमी से उत्तरोत्तर बढ़ती श्रृंगारिकता का अवसान हो जाता है।

होली मनाने की विविध मान्यताओं के बीच लोक मानस में सबसे गहरे पैठी प्रह्लाद की पुराण कथा है। सबको पता है कि हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने की कई कोशिशें की, लेकिन सफल न हुआ। अन्त में यह ज़िम्मेदारी उसने अपनी बहन होलिका को सौंप दी। होलिका के पास वरदान में प्राप्त एक ऐसा वस्त्र था, जिसके शरीर पर रहते आग में जलने का भय न था। भाई के आग्रह पर होलिका ने प्रह्लाद को लेकर आग में प्रवेश किया। उसी समय तेज़ हवा के झोंके से होलिका का दैवी वस्त्र उड़कर प्रह्लाद पर चला गया। इस प्रकार प्रह्लाद का बचाव हो गया। होलिका जल मरी। हम इसी की स्मृति में आज भी आसुरी शक्तियों का होलिका दहन करते हैं और सब पर अच्छाई का रंग चढ़ाते हैं।

होली के हुड़दंग को लेकर भी एक पुराकथा मौजूद है। सतयुग के राजा पृथु के राज्य में टुड्ढा राक्षसी का बड़ा आतंक था। वह बच्चों को पकड़कर खा जाती थी। राजा के सैनिक जब उसका कुछ न बिगाड़ सके, तो वे वशिष्ठ के पास गए। वशिष्ठ ने ध्यान लगाकर देखा तो पाया कि टुड्ढा को भगवान् शंकर ने उधमी और शरारती बच्चों के अलावा किसी के मारे न मरने का वरदान दे रखा है। ऐसी स्थिति में वह हुड़दंगी बच्चों से ही डर सकती थी। राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि राज्य के सारे बच्चों एक साथ हो-हल्ला मचाएं। उछलें-कूदें, मौज मनाएं। यही हुआ और राक्षसी डरकर जंगलों में भाग गई। बाद में हर वर्ष बच्चे एक दिन हुड़दंग मचाने लगे। यही हुड़दंग-दिवस धीरे-धीरे होली में बदल गया।

ब्रज क्षेत्र में भी टुड्ढा राक्षसी की कथा प्रचलित है। इधर के लोग कहते हैं, बच्चों की ख़ास दुश्मन टुड्ढा भी हिरण्यकश्यप की बहन थी। एक दिन ग्वालों ने इसे पकड़ लिया और पीट-पीटकर अधमरा करके घास-फूस के ढेर पर डाल दिया। जब तक वह मर नहीं गई ग्वाल घास-फूस के ढेर के चारों तरफ़ नाचते रहे। इस क्षेत्र में होलिका दहन के अवसर पर आयोजित होने वाले चरकुला नृत्य को इसी सिलसिले से जुड़ा बताते हैं।

वैसे ब्रज की होली राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंग का एक अंश है। कहते हैं “सब जग होली, बृज में होला।” वास्तव में यहां की होली अपने स्वरूप और चरित्र में बहुत व्यापक है। नन्दगांव और बरसाना की लट्ठमार होली का दर्शन करने तो लोग हज़ारों रुपए ख़र्च करके दूर-दूर से आते हैं।

इस निराली होली के सूत्र भी एक पौराणिक कथा से जुड़े हैं। इस कथा के अनुसार श्री कृष्ण जी अपने नन्दगांव से दूल्हा बने राधा जी के गांव बरसाने की तरफ़ चले हैं। साथ में ग्वाल बाल भी हैं। सब राधा जी की सखियों से चुहल की योजना बनाते हैं। उधर राधा जी सब जान लेती हैं। वे चुपचाप मंत्रणा कर, ललिता और चन्द्रावलि नामक सखियों को श्रीकृष्ण के अंतरंग सखाओं सुदामा और मधुमंगल के वेश में बारात भेज देती हैं। यह दोनों सखियां श्रीकृष्ण और बलराम का अपहरण करके राधा जी के दरबार में ला खड़ा करती हैं। सारी सखियां मिलकर भौचक्के से खड़े दोनों भाईयों को खूब अगीर-गुलाल लगाती हैं। कमली-छड़ी से दोनों जनों की पिटाई भी होती है। श्री कृष्ण राधा जी से हार मान लेते हैं, इसके बाद उनका मधुर मिलन होता है। इसी आख्यान की कड़ी है लट्ठमार होली! बस कमल छड़ी का स्थान लम्बी लाठी ले चुकी है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त चलने वाले “होलाष्टक” के बीच इस होली के “पांडेलीला” जैसे कई अनुष्ठान सम्पन्न किए जाते हैं।

होली के कई संदर्भ शिव-पार्वती और सीता-राम से भी जुड़े हैं। इसी दिन विक्रमी सम्वत का साल पूरा होता है। इस प्रकार पुराने की विदाई और नए का स्वागत भी रंगोत्सव का एक निहितार्थ है। यह एक ऐसा पर्व है, जिसे शिव के समान अपरम्पार कहा गया है। ज़ाहिर है, इसे अपरम्पार बनाने में इससे सम्बंधित पुरानकथाओं, रंगा-रंग मान्यताओं, पवित्र अनुष्ठान, परम्पराओं, नृत्यगान और स्थानीय परिवेश के रीति-रिवाज़ों का महत्वपूर्ण स्थान है, जो परिवर्तनों और मूल्यों के विखण्डन के ढेरों झंझावातों से जूझते हुए लोक मानस में आज तक इसे तमाम संदर्भों और आकर्षणों के साथ जीवंत बनाए चले आ रहे हैं।

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