-गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी

दुखी परिवार नर्क है और सुखी परिवार स्वर्ग है। यह ज़रूरी नहीं है कि निर्धन परिवार ही अपनी समस्याओं से दु:खी और कष्टमयी हो, अमीर परिवारों में भी मानसिक तनाव, धन के लिये झगड़े तथा आपसी रंजिश पाई जाती है, अपने-अपने स्वाभिमान को लेकर एक दूसरे के प्रति क्रोध, आक्रोश, घृणा, वैमनस्य और प्रतिशोध के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। परिवारों में दु:ख का कारण परिवारों में टूटन बिखरन और अलगाव की वृद्धि होती जा रही है। संयुक्त परिवार की हमारी पुरातन विरासत और सभ्यता समाप्त होती जा रही है। माता-पिता, दादा-दादी को तिलांजलि देकर आज के नवविवाहित जोड़े अपनी अलग खिचड़ी पका रहे हैं, अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। तालमेल, भाईचारा और रिश्तेदारी सब ख़त्म हो गई है। भाई-भाई आपस में नहीं बोलते। बहन-भाई में मनमुटाव है, माता-पिता का आदेश कोई नहीं मानता। बच्चे मां-बाप को आंखें दिखाते हैं। बच्चे कई प्रकार के व्यसनों में फंसे हैं। पति-पत्नी में प्यार-मोहब्बत नाम की कोई चीज़ नहीं, एक उत्तरी ध्रुव है तो दूसरा दक्षिणी ध्रुव। अहम्, अहंकार, लालच और बेईमानी ने घर में डेरा जमा लिया है। पैसे के लिए मारामारी, शौहरत के लिये मारामारी में लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये हैं।

प्रतिस्पर्धा की इस आग में सभी झुलस रहे हैं। मध्यम वर्ग के लोग भी कोठियों, कारों के सपने देखते हैं, जिससे आर्थिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और दु:ख का कारण बनता है। लग्ज़री सामान घर में लाने के लिये बेकार में व्यथित रहते हैं। सादा जीवन, सादा खान-पान और सादी जीवन शैली भूल गये हैं।

पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे। दादा-दादी, ताया-ताई, चाचा-चाची और माता-पिता तथा उनकी सन्तानें एक ही घर में रहती थी। घर में बुज़ुर्गों का बड़ा मान और आदर था। सब बड़ों का हुक्म मानते थे। बुज़ुर्गों के पांव छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते थे। ताया-ताई, चाचा-चाची, देवरानी-जेठानी एक दूसरे के लिये जान छिड़कते थे। संयुक्त परिवार में आपस में प्रेम और सहानुभूति के अतिरिक्त कर्त्तव्य परायणता और अनुशासन का बसेरा था। सारा परिवार मिल-जुल कर कार्य करता था। दादा जी के घर आने पर सारे परिवार को सांप सूंघ जाया करता था। किसी की मजाल नहीं थी कि उनके आदेश की अवहेलना कर सके। बच्चे चाचू-चाचू करके चाचा से चिपट जाते थे। घर में सब मिल-जुल कर रहते थे। सादा जीवन और रहन-सहन के कारण थोड़े में भी गुज़ारा हो जाता था। मर्यादा, विवेक और सत्यता परिवार के गहने थे। खून के रिश्तों में कोई दरार नहीं थी। दु:ख-सुख में परिवार के लोग मिलकर साथ निभाते थे। आधुनिक संदर्भ में आलीशान कोठियों में एकल परिवारों को वह सुख नहीं जो संयुक्त परिवार में कच्चे मकानों में विद्यमान था। आज हम विचलित हैं, पीड़ित हैं और कष्टमयी हैं क्योंकि अपने स्वार्थ के कारण संयुक्त परिवार को त्याग कर शहर में जा बसे हैं। परन्तु वहां का मौसम वहां का माहौल हमें रास नहीं आया है। प्रदूषण, सड़ांध और गन्दी हवा से हम रोगग्रस्त हो रहे हैं। गांवों की हरियाली, खेत-खलिहान और शुद्ध वातावरण को और जलप्रपातों को भुलाकर त्रास्दी की ओर बढ़ रहे हैं।

परिवारों में घुटन का कारण यह है कि आज सभी सदस्यों का चलन घुटा-घुटा सा है। भाई-बहन, माता-पिता अपने-अपने ढंग से जी रहे हैं। अपना राज़ सांझा नहीं करते, रहस्य रखते हैं। चोरी-छिपे मोबाइल पर अपने प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम प्रसंगों पर लीन रहते हैं। शर्म, हया और आचरण का जनाज़ा निकल गया है। यहां न दादा, न ताया-चाचा उन्हें रोकने वाला है। नतीजा प्रेम विवाह फिर तलाक़ या झांसे में फंसकर बलात्कार हो रहे हैं।

पति पत्नी के कार्य में हाथ नहीं बटाता। उसकी मूछों को लाज लगती है। पत्नी छोटे बच्चे को अपनी छाती का दूध नहीं पिलाती, क्योंकि सुन्दरता और हुस्न पर असर पड़ता है। संयुक्त परिवार में बेरोज़गार का भी निर्वाह हो जाता था। क्योंकि सांझे परिवार में काफ़ी ख़र्च बच जाता था।

आज की हालत यह है कि पति-पत्नी खिंचे-खिंचे रहते हैं। एक दूसरे के चरित्र पर संदेह करके घर में नर्क जैसा माहौल क्रीएट करते हैं। मुस्लिम परिवारों में तीन तलाक़ देने की चाहत किसी अन्य स्त्री के प्रेम-पाश के बंधन में आने का परिणाम है।

आदमी और स्त्री की फ़ितरत दिखावा करती है। आदमी किसी अपरिचित स्त्री के साथ तो बड़ी मीठी-मीठी बातें करता है। उसकेे साथ सहानुभूति प्रकट करता है, बड़ी नम्रता और शालीनता से पेश आता है। उसके माता-पिता, पति और बच्चों के प्रति सद्भावना प्रकट करता है। उसके लिये हर जोखिम उठाने के लिये तैयार हो जाता है, परन्तु पत्नी को घर की मुर्गी दाल बराबर समझकर उस की ज़रा सी भूल पर डांटता फटकारता है। उससे सीधे मुंह बात नहीं करता। नशा करने पर जब वह शराब पीने से मना करती है तो उसे थप्पड़ जड़ देता है। खुद के बच्चों से उतना प्यार नहीं करता जितना वह दूसरे बच्चों से करता है। यदि वह उतना ही अधिमान अपने घर को दे तो घर स्वर्ग बन सकता है। उसे ज्ञात होना चाहिये कि पत्नी गृह लक्ष्मी होती है। बुज़ुर्ग भगवान् के तुल्य होते हैं उनकी दिन-रात पूजा करनी चाहिये। पत्नी को भी अपना पत्नी धर्म निभाना चाहिये तभी घर स्वर्ग बन सकता है। परिवार के सारे सदस्य आपस में घी शक्कर की तरह होने चाहिये तभी घर स्वर्ग तुल्य हो सकता है।

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