सैली बलजीत

उसे गाड़ी की फ्रन्ट सीट पर  स्टेअरिंग के सामने कांच की दूसरी तरफ़ नज़रें गढ़ाए हुए लगभग तीन घण्टे हो चले थे। सामने से आने वाली ट्रैफ़िक पर वह बराबर नज़र टिकाए हुए, कन्धे पर रखे गमछे से बार-बार माथे पर टपक रहे पसीने को भी बराबर पोंछ रहा था, आषाढ़ की चिलचिलाती धूप से वह बेचैन हो चला था, उसे सबसे ज़्यादा चिन्ता इसी बात की थी कि जितनी जल्दी हो सके वह जालन्धर पहुंच जाए … लेकिन अभी जम्मू से उसे चले हुए तीन घण्टे ही हुए थे और वह इत्मीनान से कहीं बैठ कर सुस्ताने की इच्छा लिए हुए भी कहीं रुका नहीं था रास्ते में … पठानकोट से पहले कई ऐसे अड्डे आते हैं … जहां खाने-पीने की व्यवस्था के साथ-साथ नहाने का भी प्रबन्ध है … उसकी आंखों के सामने माधोपुर और सुजानपुर के आसपास नहर के किनारे पर बने हुए कितने ही खूबसूरत ढाबों के अक्स उतर आए थे … सबसे बढ़कर उसे गाड़ी के पीछे लदी लाश से आ रही सड़ांध ने परेशान किया हुआ था इस वक़्त अगर वह घर में होता तो अपने बच्चों के संग टेलीविजन देख रहा होता … सरकारी छुट्टी का सारा मज़ा किरकिरा हो गया था … सच ही पुलिस में ड्राइवरी करने की नौकरी उसे बहुत ही बेहूदा लगने लगी थी। हुक्म ही ऐसा था कि बड़े साहिब को इनकार करना नौकरी के साथ खिलवाड़ करने वाली बात थी … उसे तो इतना ही आदेश मिला था कि वैष्णो देवी की यात्रा से लौटते श्रद्धालुओं में से गोलीबारी का शिकार हुए किसी लावारिस आदमी की लाश को ठिकाने लगाना है वह साब का हुक़्म सुनकर एक बार तो जड़-सा हो गया था, उसे थाने में आते ही एक काग़ज़ का पुर्ज़ा थमा दिया गया था … जिस पर उस मरने वाले आदमी का पूरा ब्योरा दर्ज़ था शहर के नाम के सामने जालन्धर और उसके आगे कोई अता-पता अंकित नहीं था।

उसके सामने एक ही लक्ष्य था इस वक़्त कि लाश को जालन्धर के पुलिस थाने के थानेदार तक पहुंचाना और वापिस लौट आना … पठानकोट से पहले लखनपुर के नाके पर उसने सरकारी गाड़ी को खड़ा कर दिया था … काग़ज़-पत्रों की जांच करवाने वह नीचे उतर गया था सीट से … लाश के नाम पर तो एक बार हर आदमी अचंभित रह गया था लगभग आधा घण्टा लग गया था। वहां औपचारिकताएं निपटाते हुए … उनके साथ ही नाके पर तैनात एक पुलिस कर्मी गाड़ी के पीछे चढ़कर लाश देखने लगा था। जो लकड़ी के एक बड़े से बक्से में बंद करके सील कर दी गई थी … एक साथ सड़ांध का ज़ोरदार भभका हवा में फैल गया था उस ड्यूटी वाले पुलिस कर्मी ने नाक पर रुमाल रख लिया था। उसके दिल में आया था कि कहीं आगे चलकर जमकर खाना खाया जाए भूख भी खूब तेज़ हो चली थी।

उस ड्यूटी वाले संतरी ने उसे पूछा था, ‘कहां लेकर जाना है इस डैॅॅॅड बॉडी को?’

उसने फर्राटे से कहा था, ‘जालन्धर … सभी कुछ तो लिखा है काग़ज़ पत्र में। ड्यूटी है सरकारी … क्या करें … वरना लाशों को ढोना कौन गंवारा करता है?’

‘उसी हादसे वाले लोगों में से है ना … जो परसों वैष्णो देवी की यात्रा के दौरान मिलीटॅण्टों की गोलियों का शिकार हुए थे…?’

‘बिल्कुल वही हैं … जो लाशें पहचान में आई हैं, उनमें से यही एक लाश है … लावारिस … इसे जालन्धर पहुंचाना मेरी ड्यूटी है।…’

‘लावारिस लाश को वहीं-कहीं ठिकाने लगा देना था, … दाह संस्कार करके..’

‘नहीं भाई, सरकारी कामों में बहुत कुछ देखा जाता है … सरकारी काम ऐसे थोड़े चलते हैं … वरना किसे पड़ी है जम्मू से जालन्धर तक इसे पहुंचाने की…’ ‘मरने वाला मर्द है या औरत…’

‘क्या बताऊं?’ बस समझ लो इन दोनों से कोई भी नहीं…’

‘क्या मतलब…?’

‘ठीक तो कह रहा हूं … मरने वाला यह शख़्स ‘हिजड़ा’ है…’

वह लगभग मुस्कुराने लगा था इस बात पर, … ‘जालन्धर जाकर इसे कहीं थाने में पहुंचाना है … फिर आगे की कार्रवाई वही करेंगे थाने वाले…’ वह वहां से जब चला तो धूप और सिर पर आ गई थी।

उसने गाड़ी स्टार्ट करने से पहले एक पतली-सी लकड़ी ढूंढ़कर डीज़ल वाली टैंकी के अंदर घुसाते हुए बचे हुए डीज़ल का जायज़ा लिया था … उसे इस बात की शंका हुई थी कि वापसी के समय गाड़ी में अवश्य ही डीज़ल डलवाना है माधोपुर अभी पीछे छूटा था। उसे सुजानपुर वाले ढाबेे की करारे तड़के वाली दाल पर डाली गई मीट की तरी स्मरण हो आई थी। एकाध बार वह अपने अफ़सरों के साथ इन ढाबों पर खाना खा चुका है पिछले साल ही सरकारी ड्यूटी के वक़्त यहां रुके थे तब थानेदार साहिब ने उसे भी दो-तीन तगड़े से पेग पिलवाए थे अंग्रेज़ी दारू के लेकिन इस वक़्त उसने लाख चाहकर भी दारू नहीं पिया था। सिर्फ़ तड़के वाली दाल के साथ तंदूरी रोटियां खाकर वह उठ गया था, उसने जम्हाई ली थी।

वह फिर स्टेअरिंग के सामने आ बैठा था।

वह लगभग शाम को जालन्धर पहुंचा था राह चलते लोगों से उसने गाड़ी की खिड़की में से बाहर झांकते हुए थाने का अता-पता पूछा। उसके दिल में आया था कि किसी भी तरह सारी औपचारिकताएं निपटा कर वह कुछेक घण्टों में निवृत्त हो जाएगा। कुछ ही क्षणों में वह थाने पहुंच गया था, पुलिस की गाड़ी देख, वहां पर तैनात ड्यूटी वाला संतरी ज़्यादा संजीदा नहीं हुआ था।

‘किसे मिलना है?’ वह संतरी बोला था, उसने उत्तर दिया था, ‘मिलना नहीं … एक लावारिस लाश हवाले करनी है … आपके यहां।’

‘कहां से आए हो? … कैसी लाश…?’ वह संतरी भौचक्का-सा हो गया था।

‘जम्मू से आया हूं … वैष्णो देवी की यात्रा में मरे लोगों में से एक लाश लावारिस निकली है … उसे लेकर आया हूं … थानेदार साहिब भीतर हैं…?’

‘नहीं तो…’

‘कोई और होगा ज़िम्मेदार आदमी…?’ वह सरकारी हक़ जतलाने लगा था।

वह संतरी बोला था, ‘थानेदार साहिब कल सवेरे ही मिल सकेंगे … उनसे बातचीत करके ही कोई इसे रिसीव करेगा ना? … बोलो और कोई सेवा हो तो बताओ … यहां बैठने से कोई फ़ायदा नहीं … जालन्धर का कोई अता-पता इस काग़ज़ पर…?’

उसने काग़ज़ उस संतरी को दिखा दिया था, ‘यह लो … देख लो … बस यही कुछ है’ उस संतरी ने सरसरी निगाह डालते हुए काग़ज़ जांचा था। वह बस देखता रहा था। ‘किसी हिजड़े की लाश है इस बक्से में … यही लिखा है … ना?’

‘बिलकुल’ ‘तब लावारिस कैसे हो गई? बोल मेरे भाई…’

‘कहा ना … डैॅड बॉडी का मामला है … कोई भी रिस्क नहीं लेता … थानेदार साब के आने के बाद ही अब कुछ होगा…

‘देखो … रात होने को है … कुछ करिए…

‘मैं क्या कर सकता हूं … भीतर जाकर मुंछी से बात कर लो … जाओ … पर मेरे ख़्याल में … कुछ होने वाला नहीं…’

उसने भीतर थाने में जाकर मुंछी से बतियाते हुए कितना समय बर्बाद कर दिया था पर कुछ भी सार्थक हल नहीं निकला था उसके वापिस लौट जाने की इच्छा दम तोड़ती हुई प्रतीत हुई थी।

उसे वह रात पुलिस गाड़ी में ही बितानी पड़ी थी। उसे पूरी रात लगभग जागते हुए रहना पड़ा था। बीच-बीच में उठकर वह खुली हवा में टहलने लगता तो फिर नींद का झोंका उसे घेर लेता। उसे दूसरी सुबह तक इन्तज़ार करना था, सुबह होते ही उसने सबसे पहले कई लोगों को गाड़ी के आसपास मंडराते हुए देखा था। उसने उसमें से एक आदमी से पूछा था। यहां हिजड़ों की बस्ती कहां पड़ती है।

‘क्यों भाई, क्या बात हुई सवेरे-सवेरे’ … वह आदमी बोला था।

‘एक लाश की पहचान करवानी है…’

‘कौन सी लाश…?’

‘जो गाड़ी के पीछे बक्से में बंद है … वैष्णो देवी की यात्रा के दौरान हुए काण्ड में इसकी ‘डेेेथ’ हुई है … आपके शहर का है यह हिजड़ा पहचान हो जाए तो मैं भी कहीं ठिकाने लगूं…’

‘हमारे साथ चलोगे या उनमें से किसी को यहां बुलवाना पड़ेगा? वैसे … सरकारी काम है … आप ही जाएं वहां … पता बता देता हूं आपको … रेलवे स्टेशन के पिछवाड़े वाली बस्ती में रहते हैं वे लोग…’

‘कितनी दूर पड़ती है वो बस्ती…?’

‘यहां से काफ़ी दूर है … आप ऐसा करें … गाड़ी वहीं ले जाएं … गाड़ी में ‘डैॅड बॉडी’ तो है ही … वहीं पहचान करवा लेना…’

‘मेरे साथ कोई जना आ जाए तो ढूंढ़ने में दिक्क़त नहीं होगी।’

एक जना उसके साथ जाने को तैयार हो गया था लेकिन एक बार वह पुलिस वालों से फिर मिल लेना चाहता था, ‘डैॅड बॉडी’ लावारिस होने की सूरत में कार्रवाई तो वही लोग करेंगे ना? उसे तो बस इन काग़ज़ पत्रों पर किसी पुलिस अधिकारी के ‘साइन’ ही करवाने हैं और बस वापिस लौटना है उसने सोचा था कि आज इतवार की छुट्टी का दिन अपने घर वालों के साथ गुज़ारने में कितना अच्छा लगता है फिर पूरे हफ्ते के छुट-पुट ज़रूरी घरेलू काम भी तो इसी दिन निपटाने होते हैं … फिर इसी दिन तो रिश्तेदार कहीं न कहीं से मिलने आ ही जाते हैं उसका इतवार आज बेकार में जा रहा था उसे ग़ुस्सा आया था … पर नौकरी में नख़रा नहीं चलता वह जानता है तभी तो वह आ गया था उसे क्या पता था कि परेशानियां और दिक्क़तें भी झेलनी पड़ सकती हैं। फिलहाल वह स्वयं को छटपटाते हुए किसी परिन्दे की तरह महसूस करने लगा था।

उसने एक बार फिर थाने के किसी दूसरे ज़िम्मेदार कर्मचारी से बतियाना चाहा था, उसे थाने के गेट पर ही छोटा थानेदार रौबीली मूंछों को ताव देते हुए दिखा तो उसने सलाम करते हुए गुज़ारिश की थी, ‘हमारा भी कुछ सोचो हुज़ूर … कल रात का यहां पड़ा हूं … एक लाश लेकर आया था लावारिस … जो कार्रवाई करनी है करो … मुझे फ़ारिग करिए…।’

‘मैं क्या कर सकता हूं बोल?’

‘आप ही ने करना है … सब … मालिक हैं आप…’

‘लावारिस लाश को हम कैसे रिसीव कर लें … बोल भाई?’

‘आप इसका कुछ करिए…’

‘पता है पुलिस महकमे के पास लावारिस लाशों का दाह संस्कार करने के लिए कोई फंड नहीं होता … पता है न?’

‘तो बोलिए कहां लेकर जाऊं इस ‘डैॅड बॉडी’ को?’

‘म्यूनिसिपल कार्पोरेशन में ऐसी लाशों को जलाने-दफ़नाने के लिए फंड होते हैं…’

‘आप ‘डैॅड बॉडी’ को रिसीव कर लें … बाद में उनसे बात कर सकते हैं कार्पोरेशन वालों से…’

‘पता है … आज इतवार है … वहां कौन मिलेगा … तुम चाहते हो … इस डैड बॉडी को हम रिसीव कर मरा हुआ सांप गले में डाल लें? ना भाई … यह काम हमसे क्यों करवाते हो … तुम ऐसे करो … कार्पोरेशन वालों से मिल लो…’

‘कहां मिलूं … दफ़्तर में छुट्टी है ना … इतवार के कारण?’

‘यह मुझे नहीं पता … आपका काम है … पुलिस वाले कहां-कहां मरें-खपें … ठेका ले रखा है हमने … कोई मर गया तो बोल हम क्या करें?’… वह तैश में आ गया था।

‘मैं भी तो कल सवेरे से ड्यूटी निभा रहा हूं … बोलिए … मैं किससे कहूं…?’

‘कहा न … कार्पेरेशन वालों का काम होता है … लावारिस लाशों को ठिकाने लगाने का…’

‘सुन लिया है … पर पुलिस की भी कोई ज़िम्मेदारी बनती है…’

‘अब हमें नसीहत देने लगे हो … तुम एक काम करो … अगर हिजड़े इस लाश को कबूल लेते हैं तो एक बार ट्राई करके देख लो … अगर उन लोगों में से यह लाश निकल आए तो सारे झंझट ख़त्म … बस उनमें से किसी के साइन करवा लेंगे … बोल अब खुश है न?’

‘खुश क्या होना है … एक नयी मुसीबत खड़ी हो गई है … अब ढूंढ़ते रहो हिजड़ों की बस्ती…’

‘मैं तो कहता हूं … बड़ी गनीमत होगी अगर आज शाम तक भी फ्री हो जाओ तुम … तुम्हें किसने कहा था … इस लफड़े में पड़ने को?’ ‘मुझे तो यही कहा गया था कि पुलिस स्टेशन के किसी ज़िम्मेदार अधिकारी के साइन करवाने हैं इस काग़ज़ पत्र पर…’

‘ज़िम्मेदार अफ़सर तो यहां डिप्टी साब ही हैं जो आपको कल तक तो मिलने से रहे … आऊट ऑफ स्टेशन हैं … किसी ज़रूरी काम से गए हैं … कल तक कहां लिए फिरते रहोगे … सड़ांध मारती हुई इस लाश को?’

उसके सामने हिजड़ों की बस्ती तक जाकर लाश की पहचान करवाने का काम अहम था। उसने सोचा, उसके बाद ही कार्पोरेशन वालों तक दौड़ा जाए। उसे फिलहाल, लाश को कहीं ठिकाने लगाने की भयावह सोच भीतर से चाटती हुए खोखला कर रही थी।

उसने ग़ुस्से में जलते-भुनते हुए एक भद्दी सी गाली निकाली थी बुदबुदाते हुए … आते ही गाड़ी की खिड़की खोल दी थी पीछे पलट कर देखा था, लाश वाला बक्सा अपनी जगह पर यों का यों पड़ा था, उसमें कुछ भी नहीं बदला था, सिर्फ़ तीन दिनों से दाह-संस्कार को तरसती लाश में से दुर्गन्ध और तेज़ी से हवा में फैलते हुए, नथुनों में घुसने लगी थी। शहर की उबड़ खाबड़ सड़कों को रौंदते हुए, गाड़ी हिजड़ों की उस बस्ती में आ गई थी। उसने गाड़ी खड़ी करते ही किसी बच्चे से पूछा था … जो आंखें मलते हुए नल की तरफ़ जा रहा था शायद।

‘इस बस्ती को क्या कहते हैं?’

‘क्यों बाबू … क्या बात … पुलिस वाले लगते हो…? उसने शायद मेरी ख़ाकी वर्दी पर लगे पुलिसिया चिन्हों को देखते कहा था।’

‘हां भई … यहीं रहते है न … गाने बजाने वाले…?’

‘हिजड़े कहो न…।’

‘हां भई … हिजड़े … इनके बड़े गुरू इस वक़्त मिल जाएंगे न?… ज़रा बता सकता है?’

‘कहीं नचवाने तो नहीं हिजड़े घर में…? कोई बच्चा-वच्चा हुआ है न?… बधाई का काम हो गया फिर तो…’

‘नहीं ओए … उल्टी परेशानी आ पड़ी है … इनका कोई साथी वैष्णो देवी के दर्शनों के लिए गया था…’ ‘वहीं मारा गया उग्रवादियों की गोलियों से… उसकी लाश है इस गाड़ी के पिछली तरफ़…।’

‘सामने वाली गली का आख़िरला मकान है … बाहर एक भैंस बन्धी होगी … वही है…।’

कुछ क्षणों में वह वहां जा पहुंचा था, गाड़ी गली के मोड़ पर ही खुली जगह पर खड़ी करके…।

‘आप का कोई साथी वैष्णो देवी की यात्रा पर गया था?’ उसने आते ही अपना मंतव्य ज़ाहिर किया था।

‘गया होगा … यहां कई जने तो रहते हैं … नाम तो बताओ तो ही पता चलेगा ना?… पर बात क्या हुई?’ वह जनाना लिबास वाला हिजड़ा बोला था, उसका पुलिसिया पहरावा शायद उसे आतंकित कर गया था।

‘एक लाश मिली है पुलिस को … लावारिस है … कोई जान पहचान का मिले तो इसे सुपुर्द करूं किसी के…’

उसने फिर हाथ उछालते हुए कहा, ‘कहां है लाश … हमारे पास क्यों आए हो?’

‘क्योंकि वह शख़्स आपकी बिरादरी से है … ऐसा लिखा है काग़ज़ पत्रों में … आप मेरे साथ चलकर देख लें एक बार…’

‘कहां?’

‘बाहर गाड़ी तक चलकर जाना पड़ेगा…?’

तभी उसके पीछे एक साथ जनाना लिबास पहने हुए कई हिजड़े चलने लगे थे। होंठों पर भौंडे क़िस्म की सस्ती सी लिपिस्टक पोते हुए, मुंह में पान चबाते हुए वे सभी मसख़री करते हुए, बाहर सड़क पर आ गए थे।

‘दिखा बाऊ कहां है लाश…’ एक ने पूछा था, गाड़ी की तरफ़ आते हुए।

‘ऊपर आना पड़ेगा गाड़ी में … आ जाओ…’ उसने हिदायत दी थी।

‘बहुत सड़ांध आ रही है … ओह … सत्यानाश हो…’ दूसरे हिजड़े ने हाथ पर हाथ मारते हुए कहा था।

‘तीन दिनों से दर-दर भटकती इस लाश से बदबू नहीं आएगी तो और क्या आएगा … मैं तो कहता हूं पुण्य कमा लो … इसे कहीं ठिकाने लगाओ…’

‘इसे खोलो भी न, बक्से को…।’

‘खोलता हूं…’ वह तभी उछल कर गाड़ी के पिछवाड़े जा चढ़ा था।

‘यह लो … बक्सा खोल दिया … अब कोई भी आकर इसकी पहचान कर सकता है … आओ पुण्य का काम है…!’

‘न भई … जाने किसकी लाश ले आए हो … हमारी बिरादरी से तो नहीं यह … क्या नाम बताया इसका…?’ उनमें से एक ने लाश को अस्वीकारते हुए कहा था…।

‘संभू … यही लिखा है काग़ज़ों में…।’

‘आपको इसका नाम कहां से पता चला?’

‘इसकी जेब से निकले बटुए में पड़े काग़ज़ों से … सरकारी काम बहुत पुख़्ता होते हैं … अगर संभू है इसका नाम तो ऐसे ही तो नहीं लिख दिया काग़ज़ पर … कोई प्रूफ़ मिला है तो ही ना?’ उसने उन लोगों को लम्बा भाषण सुना दिया था।

वे सभी जनाना लिबास वाले हिजड़े गली के भीतर चले गए थे, हाथ उछाल-उछाल कर उठाते हुए, उसको मायूसी हुई थी इससे। उसे लगा था, अभी यंत्रणा ख़त्म कहां हुई है … अभी तो ऊबा देने वाली, लम्बी यंत्रणा की शुरुआत ही हुई है … उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी थी। उसके साथ जो आदमी आया था, उसकी बग़ल में बैठ गया था, उसी जगह छोड़ना था उसे जहां बैठाया था।

उससे बतियाते हुए उसे अच्छा लग रहा था, उसने सोचा था, शहरवासी है, शहर की अच्छी खासी पहचान रखता होगा। उसने गाड़ी में बैठे उस शख़्स से गुफ़्तगू जारी रखी थी, ‘कार्पोरेशन वाले बड़े अफ़सर का कोई फ़ोन नंबर मिल जाए तो बात करें…’

‘फ़ोन नंबर का मुझे क्या पता जी…?’ उसने कंधे उचका दिए थे।

‘किसी अफ़सर की रिहाइश का तो पता होगा…’

‘उसका पता चल जाएगा … दफ़्तर में कोई चौकीदार तो होगा ही … मेरे ख़्याल में आप वहां जाएं तो … सरकारी ड्यूटी पर हो आप … कोई प्रबन्ध तो करना ही होगा…?’

वह तैश में आ गया था, ‘कहां-कहां गाड़ी में लदी लाश को लिए भटकता रहूं? बदबू से हमारा यह हाल है तो रास्ते में आने जाने वालों का क्या होगा… कौन सुनता है … सब स्साले अपनी स्किन सेफ़ करते हैं…’

कार्पोरेशन के दफ़्तर में चौकीदार से भेंट हुई थी। उसने इस सिलसिले में कन्धे उचका कर असमर्थता प्रकटा दी थी। वह और मायूस हो गया था। उससे और बतियाना मूर्खता ही थी। पुलिस वालों का नकारात्मक व्यवहार उसे पहले से ही खल रहा था, उस पर हिजड़ों के प्रमुख ने उसे और प्रताड़ित कर दिया था।

फिलहाल उसने अपने साब को पी.सी.ओ. पर जाकर, सारी जानकारी देना उचित समझा था, वह अजीब दुविधा में फंस गया था, इस सिलसिले में अपनी जेब से अपने अधिकारियों को किए फ़ोन से उसके ख़र्च में बढ़ोतरी होती गई थी … जाने अभी और कितनी बार फ़िजूल में टेलिफ़ोन मिलाने का क्रम जारी रखना था उसे … घर में भी वह अपनी दुविधा की सूचना देना चाहता था। उसने बटुए में से पड़ोस वाले चौधरी साहिब का टेलिफ़ोन नंबर ढूंढ़ा था, अक्सर वह इसी नंबर पर घर में बातचीत कर लेता है। उस वक़्त टेलिफ़ोन कॉल के रेट भी ‘फुल’ होते हैं। उसने इस बात की परवाह नहीं की थी। उसे स्मरण हो आया था कि कल सवेरे उसे हर हालत में अपने घर पहुंचना है। किसी क़रीबी रिश्तेदार की लड़की की शादी में अगर वह सम्मिलित न हुआ तो पूरी उम्र का उलाहना रह जाएगा लेकिन कौन सुनेगा कि वह किस दुविधा में फंसा है। उसने भगवान् का स्मरण किया था कि आज शाम तक इस मुसीबत से निजात मिल जाए तो वह बोझ से मुक्त हो।

ऊपर वाले अफ़सरों का एक ही आदेश मिला था कि इस लावारिस लाश को किसी अधिकारी तक पहुंचा कर ही वापिस लौटे वह, इस वक़्त वह और कर भी क्या सकता था। कल से एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाते वह थक गया था लेकिन कोई सार्थक परिणाम हासिल नहीं हुआ। सिवाय परेशानी के उसे कुछ नहीं मिला, इस पराए शहर में। पुलिस वाले जाने क्यों शव लेने में आनाकानी कर रहे थे यह बात उसकी समझ से बाहर थी। जालन्धर में उसके दूर के रिश्तेदार रहते हैं लेकिन इस स्थिति में वह कहीं भी जा नहीं पाया था, लाश वाली गाड़ी लेकर किसी के घर जाना उचित नहीं लगा था उसे … पूरे मोहल्ले में बदबू न फैल जाती। लगभग दोपहर हो चली थी। सवेरे जमकर नाश्ता भी नहीं किया था, जंगल-पानी वह पुलिस वालों की लैट्रिन में कर आया था। पुलिस स्टेशन के सामने पीपल के पेड़ के नीचे वाले खोखे से उसने एक कप चाय और एक डबल रोटी खा ली थी। इस वक़्त उसे भूख सताने लगी थी। लेकिन उसने फिलहाल इसे मिटाने का क्रम स्थगित कर दिया था। उसे तो बस शीघ्र ही इस कांड से निजात पाना था, किसी भी तरह कार्पोरेशन के चौकीदार ने उसे दफ़्तर के किसी बड़े अफ़सर के घर का पता बताया तो उसे आशा की एक धुंधली सी किरण नज़र आने लगी थी।

उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी थी। घरघराते हुए गाड़ी आगे को सरकने लगी थी। संकरे बाज़ारों में से गुज़रते हुए, बड़ी मुश्किल से उसने चौकीदार का बताया हुआ पता ढूंढ़ निकाला था। गाड़ी जहां भी खड़ी करता वह, आते-जाते लोग उचक-उचक कर गाड़ी में लदी लाश को निहारने लगते जैसे तमाशा हो रहा हो। वह लोगों को वैष्णो देवी की यात्रा के दौरान हुए गोली कांड का ब्योरा देते थक गया था।

उसने बड़े से तिमंज़िला मकान पर लगी नेम प्लेट पढ़ी थी। दफ़्तर के सुपरिन्टेंडेंट का घर ही था उसने कॉल बेल का बटन दबाया तो एक मांसल औरत ने दरवाज़ा खोला था। कुछ देर बाद एक मूछों वाला आदमी उसके सामने खड़ा था।

‘आओ … किससे मिलना है?’ उस आदमी ने उसे घूरते हुए देखा था।

‘अग्निहोत्री साब ही हैं न आप? उसने प्रश्न दागा था।’

‘हां भई … कहो क्या काम है?’

‘मैं सरकारी ड्यूटी पर आया हूं … जम्मू से … आपके शहर का एक शख़्स वहां गोली काण्ड में मारा गया है … उसकी लाश लेकर आया हूं … लावारिस लाश का मामला है … आप ही कुछ कर सकते हैं…’

‘पुलिस वालों का काम है यह तो … वहां जाओ न…।’

‘वहीं से तो आ रहा हूं … वे लोग भी इसी तरह कह रहे हैं … तभी तो यहां आया हूं, आपके पास … कल शाम से जाने कहां-कहां नहीं गया मैं …’

‘मैं क्या कर सकता हूं … बोलो … दफ़्तर में तो छुट्टी है न … पता है न इतवार वाले दिन भला दफ़्तर खुलते हैं … कल दफ़्तर में आना…’

‘बहुत लेट हो गया हूं … पहले ही से … किसी मातहत को फ़ोन करके … इसे ठिकाने लगवाइए … कल तक तो लाश सड़ांध देने लगेगी…’

‘तो मैं क्या कर सकता हूं … आप लोग क्यों चले आते हो इतवार वाले दिन … फिर हुक्म तो बड़े साब का ही चलेगा … बोलो … ठीक कहा न?’

‘वो तो ठीक है … आप उनसे ही फ़ोन पर कॉन्टेक्ट कर सकते हैं…’

‘ऐसे कुछ नहीं होगा … समझे … फिर छुट्टी है … बड़े साब आज तो मिलने से रहे … किसी शादी में गए हुए हैं … कहा न कल सवेरे आ जाना दफ़्तर…?’

 ‘कुछ करिए हुज़ूर…’

‘मैंने कब मना किया है…?’

‘देखिए … लाश ख़राब हो रही है … चार दिन हो गए हैं इधर-उधर लाश की मिट्टी पलीद होते हुए…

‘इसमें बोलो मेरा क़सूर है?’

‘मैंने यह तो नहीं कहा…’

‘सुना है … किसी हिजड़े की लाश है … उनसे मिल लेना था हिजड़ों के गुरू को … इतना भी नहीं कर सकते वे…?’

‘उनकी बस्ती में से भी हो कर आया हूं … स्सालों ने पहचानने से इनकार कर दिया…’

‘इतना पैसा साथ लेकर जाएंगे वे … उनका कौन सा कोई धी पुत्र है … किसके लिए पैसा बटोर रहे हैं- तालियां बजाते हुए … भैण के यार…’

‘उन्हें बहुत कहा था पुण्य कमाने को … फिर मरे की मिट्टी को ठिकाने लगाना तो पुण्य गिना गया है शास्त्रों में…’

‘वो क्या जाने शास्त्रों को … आ जाते हैं तालियां लगाते हुए … तब तो अड़ जाते हैं … चाहे कोई ग़रीब ही क्यों न हो … उन्हें क्या … उन्हें तो एक हज़ार एक चाहिए ही … देने वाला चाहे भाड़ में जाए…’

‘आप कुछ करते तो मेरी जान भी सुखी हो जाती…’

‘कहा न … मैं कुछ नहीं कर सकता … दफ़्तर खुलने तक तो इंतज़ार करना ही पड़ेगा…’

उस आदमी ने दो टूक अपनी बात कहते हुए, इस अध्याय को और लम्बा कर दिया था। वह मुंह बाए देखता रहा था। उस आदमी ने चाय पिलानी तो दूर की बात है, पानी तक नहीं पूछा था। उसका गला सूखने लगा था, वहां से आकर उसने गली के मोड़ पर लगी म्यूनिसिपालिटि की टोंटी से पानी पिया था। उसने राहत की सांस ली थी लेकिन पहाड़ जैसे दिन को ऐसे ही गुज़ारने का सिलसिला उसे पहाड़ सा प्रतीत हुआ था। वह टूट गया था ऐसे में क्या करता वह, वह तिलमिला उठा था। घर में बीवी-बच्चों की बहुत याद आने लगी थी। उसे कल हर हालत में अपने घर पहुंचना था। उसने मन ही मन हिसाब बैठाया था कि यहां से वहां टेलीफ़ोन घुमाते हुए, उसने अपनी जेब से लगभग दो सौ रुपए ख़र्च कर दिए थे। उसे मिलना क्या था इस ड्यूटी से … मात्र सफ़री भत्ता … बस … और ऊपर से टेलीफ़ोन पर आए ख़र्च को वह कहां एडजेस्ट करेगा … गाड़ी ख़राब होने का जाली बिल ही ले सकता है वह कहीं से … डीज़ल डलवा कर रसीद तो उसने कल ही ले ली थी … लेकिन डीज़ल में एडजेस्टमेंट थोड़े होती है … वहां जम्मू में होता तो किसी अफ़सर से जाली ‘जरनी’ डलवा लेता ‘लॉग बुक’ में … यहां तो किलोमीटर दर्ज़ है मीटर पर … उसने मन ही मन कितने समीकरण बुन डाले थे। उसका मन उचाट हो आया था लेकिन क्या करे वह? कहां जाए? किससे फ़रियाद करे … ? उसने एक बार फिर पुलिस स्टेशन का रुख किया था। एक बार फिर वहां जाकर दौड़-धूप करने का निश्चय किया था उसने।

पुलिस स्टेशन में खूब गहमा-गहमी थी। बाहर कितनी कारें स्कूटर खड़े थे। गेट वाले संतरी से पूछने पर पता चला किसी क़त्ल केस में व्यस्त हैं थानेदार साब। उसने महसूस किया था कि ऐसे में उसकी बात कौन सुनेगा … जहां नोटों की बारिश हो रही हो … वहां उस जैसे निठल्ले की क्या बिसात, सरकारी काम समझ कर उसे फिर टरका जाएंगे।

‘मैं एक बार फिर बात करके देख लूं भीतर जाकर …?’ उसने गेट वाले संतरी से आज्ञा लेनी चाही थी।

‘मेरे ख़्याल में इस वक़्त वहां जाना ठीक नहीं … सांठ-गांठ चल रही है अंदर अच्छा नहीं लगता … फिर उल्टे मुझे ही डांट पड़ेगी … बोलो ठीक कहा न?’

‘तो बोलो … मैं क्या करूं … कहां जाऊं?’

‘कार्पोरेशन वालों के पास जाना था … कल भी यही कहा था न … छोटे थानेदार साहिब ने … बोलो कहा था न?’

‘कहा था मेरे भाई, आप समझते हैं कि मैं झख मार रहा हूं … मेरे तो टायर घिस गए है गाड़ी के … कहां-कहां नहीं गया मैं…?’

‘क्या बोलते हैं वे लोग?’

‘इतवार का रोना रो रहे हैं … एक ही बात पर अड़े हुए है हर कोई कि आज इतवार है…’

‘ठीक ही तो कह रहे हैं … सरकारी काम तो वर्किंग-डे में ही निपटते है … मैं तो कहता हूं … कहीं आराम से बैठ कर दारू पिओ और मजे करो … मरने वाला मर गया … आप क्यों चिन्ता करते हैं…’

‘लाश सड़ांध दे रही है …यहां गाड़ी खड़ी करूं तो अभी आप लोग ही नाक सिकोड़ने लगोगे … कहां जाऊं? ऐसे लगता है लाश के साथ-साथ मैं भी अछूत हो गया हूं।’

‘बात तो ठीक है … इस सड़ांध में कोई भी नाक-मुंह सिकोड़ेगा ही…’

‘कोई प्रबन्ध करवा दो फिर … आज का दिन तो गया बेकार में … इस लाश का क्या करूं’

‘सिविल अस्पताल में मुर्दा घर होता है … वहीं चले जाओ … एक रात की तो बात है … वहां ‘एअर कंडीशन्ड’ मुर्दा घर में रखवाने का प्रबन्ध करवाओ कोई…’

‘मेरी कौन सी जान-पहचान है वहां … क्या करूं … मेरी मदद करो यार … मेरा भी यही महकमा है…’

‘चलो थानेदार से फ़ोन करवा देता हूं वहां … आप अपने काग़ज़-पत्र वहां दिखा देना … फिर कौन सा क़त्ल किया है तूने … वह आदमी बतियाते हुए आप से तुम पर उतर आया था।’

‘बात डरने वाली थोड़े है … ज़रा फ़ोन करवा दें तो वहां मेरा वक़्त बच जाएगा … कहीं ऐसा न हो … वहां भी रगड़े खाता फिरूं मैं…’

‘इसकी चिन्ता नहीं करनी…’

‘इस काग़ज़ पर अस्पताल वालों के नाम मार्क करवा दें तो बड़ी मेहरबानी होगी … उसने काग़ज़ उस संतरी के आगे कर दिया था।’

‘तुम यहीं खड़े रहो … भीतर मत आना … मैं साब से बात करके देखता हूं … उस संतरी ने उससे लाश से संबंधित सरकारी काग़ज़ को पकड़ लिया था।’

वह उस संतरी को थाने के भीतर जाते हुए देखने लगा था। लगभग आधे घण्टे के बाद वह संतरी वापिस लौटा था।

उसे उसके आदेश की प्रतीक्षा थी लेकिन थानेदार की व्यस्तता शायद अलहिदा क़िस्म की रही होगी … लगता है। अभी तक क़त्ल केस के लिए उन लोगों के बीच चल रही सौदेबाज़ी किसी पड़ाव पर नहीं पहुंची थी। उस संतरी ने कुछ देर और रुकने की सूचना दी थी उसे। तो वह ज़्यादा हैरान नहीं हुआ था। अब उसे इससे ज़्यादा और क्या परेशान किया जा सकता था।

वह वहां से निकल आया था। उसने सोचा भाड़ में जाएं ये थाने वाले, इनके सिर ख़ाक पड़े, उसे भूख ने बेहाल कर दिया था। जिसके लिए उसे लगभग आधा किलोमीटर चल के आना पड़ा था। गाड़ी को वह किसी भी सूरत में वहां ढाबे तक लेकर जाना नहीं चाहता था। उसने सोचा कि अब दिन तो बर्बाद हो ही गया, फिर चाहे चार घण्टे ही क्यों न लग जाएं … अब उसे इत्मीनान हो चला था कि सरकारी कामों में ऐसे ही होता है। खाना खाते हुए उसे घर की याद आ गई थी। उसने जमकर खाना खाया था। मीट की आधी प्लेट, तड़की हुई दाल, तंदूरी रोटियां … उसके बाद मलाई वाली चाय वहां बैठे हुए उसे नींद की झपकियां आने लगी तो वह हड़बड़ा के उठ बैठा था। वहां ढाबे पर भी लोग इसी बात की चर्चा करते रहे थे। उसे इस बात की जानकारी पाकर अच्छा लगा था, शहर में थाने वालों की कारगुज़ारी से लोग खिन्न थे, ऐसा लगा था।

वापिस अपनी गाड़ी की तरफ़ लौटा तो वहां कुछेक नए चेहरे दिखे थे। उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे।

‘लीजिए … वो आ गया इस गाड़ी का ड्राइवर…’ भीड़ में से किसी ने शायद उसकी पुलिसिया वर्दी से पहचान लिया था उसे।

‘मैं ही हूं … क्या बात … बोलिए…’ वह फुसफुसाया था।

एक सफ़ेद पोशाक वाला ‘भाई, कल ही हमारे पास आ जाते तो यहां तक नौबत न आती…?’

‘आप कौन हैं…?’ वह विस्मित हो गया था कि इस पराए शहर में उससे हमदर्दी जताने वाला कौन आ गया।

‘मैं और ये मेरे साथी ‘समाज समिति’ से आए हैं … बहुत बुरा सलूक कर रहें हैं ये पुलिस वाले … ऐसा सुना है … हमें कहिए … अब क्या बोलते हैं … उनमें से सफ़ेद पोशाक वाला आदमी फिर बोला था।’

‘लाश लिए फिर रहा हूं, दो दिन हो गए हैं … बोलो कहां फेंक दूं इसे … कोई इसे लेने को राज़ी ही नहीं … हद हो गई …’ वह तैश में आ गया था।

‘कहां है लाश? सुना है, हिजड़ों की बस्ती में भी गए थे, उन लोगों ने भी इनकार कर दिया है इसे पहचानने में…’

‘बहुत जगह से होकर आया हूं … लगता है इन्सानियत का ही बेड़ा ग़र्क़ हो गया है … आप कुछ करिए … मुझे छुटकारा दिलाएं…’

‘अब क्या मसला है? थानेदार की कर दें खिंचाई?’

‘लाश सड़ांध देने लगी है … मैं तो कहता हूं … आप लोग ही कुछ कर सकते हैं … इन काग़ज़ पत्रों पर किसी ज़िम्मेदार अधिकारी के साइन करवा दें और इस लाश को गाड़ी से उतरवाएं … तो मैं वापिस जाऊं कहीं…।’

‘कहां से आए हो?’

‘जम्मू से … दो दिन हो गए हैं … यहां धूल फांकते हुए…’

‘अब चिन्ता नहीं करनी … हम लोग काहे के लिए हैं … समाज सेवा ही तो कर रहे हैं … पुण्य का काम होता है…’

‘तो एक पुण्य और कमा लो…’

‘पर आज तो संस्कार हो नहीं सकेगा … शाम हो चली है … शाम के वक़्त संस्कार नहीं होता, ऐसा शास्त्रों में लिखा है … वह आदमी बोलता रहा था।’

‘मुझे छुटकारा दिलवाएं किसी भी तरह, कल का शहर में तमाशा बना हुआ घूम रहा हूं … प्लीज़ … मैं किसी और जगह नहीं जाऊंगा … आप कुछ कर सकते हैं तो ठीक … वरना … एक दिन और सही … यातना भोगने को…’

‘मेरी बात मानों तो आज की रात ही की तो बात है … अस्पताल की मोर्चरी में लाश को रखवा देते हैं … रात भर आप भी आराम करो … चलो हमारे साथ … ठहरने … खाने-पीने का प्रबन्ध है…’

‘अब थानेदार के पास जाना … भाड़ में जाएं ये लोग … कार्पोरेशन वाले भी स्साले बहाने कर रहे हैं … क्या हो जाता अगर कोई कार्रवाई करते…’

‘हज़ार बारह सौ की बात है न? हमारी संस्था इसका ज़िम्मा ले रही है … अब किसी के पास नहीं जाना, समझे … हमारे साथ चलो … ठीक?’

‘गाड़ी स्टार्ट करूं…’

‘देखते क्या हो अब? कहा न अब इत्मीनान से हमारे साथ आ जाओ…’

वह गाड़ी में चढ़ गया था, गाड़ी शहर के सरकारी अस्पताल की तरफ़ दौड़ने लगी थी। उसने बाहर झांका था, शाम गहराने से कुछ दुकानों की बत्तियां जलने लगी थी। स्ट्रीट लाइट की दूधिया रौशनी भी झरती हुई सड़कों पर फैलने लगी थी। उसे अब इस अंधी दौड़ से निजात पाने की समस्त संभावनाएं टिमटिमाते हुए दीपों की तरह लगने लगी थी। कुछ ही देर बाद उन स्कूटर पर सवार सफ़ेद कपड़ों वाले आदमी के पीछे-पीछे चलते हुए, शहर के सिविल अस्पताल तक पहुंच गया था। बड़े डॉक्टर अपनी सरकारी कोठी में मिल गए थे। उसने एक काग़ज़ के पुर्ज़े पर कुछ लाइनें उलीकते हुए, मोर्चरी के चौकीदार से मिल लेने का आदेश देते हुए, दरवाज़ा बंद कर लिया था। वह समाज सेवी भी उसके साथ ही आ गया था।

‘चौकीदार कहां है मुर्दा घर का…?’ उस समाज सेवी ने शायद किसी वार्ड बॉय से पूछा था।

‘सामने वाले चाय के खोखे में देखना था … वहीं होता है इस वक़्त … आप देख आइए वहां … इतना कहते हुए वह ऊपर सीढ़ियां चढ़ने लगा था।’

‘उसे कहो कि आस-पास ही रहा करे…’

‘मैं उसे कहां ढूंढू … इधर आए तो उसे हिदायत दे देना…’

‘कहीं घर तो नहीं चला गया वो…’

‘नहीं जी … ड्यूटी होती है उसकी, … पर काम क्या है?’

‘एक लाश रखवानी है … डॉक्टर साब ने मार्क कर दिया है।’

‘इस वक़्त?’

‘इस काम में वक़्त क्या मायने रखता है … वैष्णो देवी की यात्रा में मारे लोगों में एक यहां का भी है … लावारिस … कल संस्कार करवाएंगे … बेचारा जम्मू से आया है यह आदमी … कल से धक्के खा रहा है … उस आदमी ने उस पर तरस खाते हुए, उसका परिचय दिया था।’

‘पोस्टमार्टम भी तो होगा अभी?’

‘नहीं वो सब हो गया है … सारी रिर्पोट इस आदमी के पास है … सरकारी ड्यूटी पर है … कल इसे फ़ारिग करना है…।

‘तो आप चाय के खोखे में देख लें, चौकीदार को … मेरे ख़याल में वहीं बैठा बीड़ियां फूक रहा होगा…

वह भी उस आदमी के पीछे चलते हुए, बाहर आ गया था। चाय के खोखे में ही मिल गया था वह चौकीदार, बीड़ियों के सूटे भरते हुए उसने उसकी ओर ताका था। वह उनके साथ चलने को राज़ी हो गया था। गाड़ी को उसने मुर्दा घर की तरफ़ मोड़ दिया था। वहां पहले ही शहर के दूसरे समाज सेवा कर्मी मौजूद थे। उसने झट से गाड़ी के पीछे वाला डाला खोल दिया था। एक साथ चार-पांच जने गाड़ी पर चढ़ गए थे, उसे लगा था अब उसकी दो दिनों वाली यंत्रणा ख़त्म होने वाली है। गाड़ी से जब लकड़ी का बक्सा उतारा था उन समाज सेवियों ने तो उसने इत्मीनान की सांस ली थी।

‘अब रात भर कहां रहोगे … हमारे साथ चलो … आराम करो … सवेरे चले जाना … अब चिन्ता नहीं करनी … आगे का काम हमारा है…’ उस लीडर नुमा आदमी ने उस पर सहानुभूति प्रकटाते हुए कहा था।’

‘मैं तो अब सवेरे ही निकलूंगा…’ उसने स्वीकृति में कहा था।

‘चाय पीते हैं … फिर चलते हैं गीता भवन … वहां कमरे हैं ठहरने को … खाना भिजवा देंगे वहां ही … अब फ़िक्र वाली बात नहीं…’

उसने देखा था, मोर्चरी का चौकीदार हाथ में चाबियों वाला गुच्छा लिए हुए, कन्धों पर लाश वाला बक्सा उठाए आदमियों के पीछे-पीछे चल रहा था।

वे लोग भी चाय के खोखे में आ गए थे … चौकीदार भी, सभी चाय पीते हुए, कल सवेरे उस लाश के दाह संस्कार का प्रोग्राम तय करने लगे थे। उसे लगा था रिश्तेदारों की लड़की की शादी पर वक़्त पर पहुंच जाएगा अब चाय पीते हुए उसे लगा था कि जैसे उसे राहत मिल गई हो।

‘इस काग़ज़ पर साइन तो रह गए…? उसने आशंका प्रकटाई थी।’

‘बोलो कहां करवाने हैं … लाओ …’ उस आदमी ने उससे वह काग़ज़ पकड़ते हुए कहा था।

‘नीचे साइन करने हैं … बस … मोहर हो तो ठीक … वरना चलेगा…’

‘मोहर भी लगा देंगे … घर में पड़ी है … आप अब आराम करो … चलें फिर…’ उस आदमी ने उस काग़ज़ के पुर्ज़े पर ‘समाज समिति’ की तरफ़ से हस्ताक्षर झरीट दिए थे।

उसने काग़ज़ का पुर्ज़ा तह करके जेब में डाल लिया था।

‘मेरे साथ किसी को बैठा दो गाड़ी में … गीता भवन मैं कहां ढूंढ़ता रहूंगा…’

‘मेशी … तुम जाओ ड्राइवर साहिब के साथ…’ उस आदमी ने पास ही खड़े एक लड़के को हिदायत दी थी … ‘देखना कोई तंगी न आए वहां … कमरा खुलवा देना … खाना मैं भिजवा दूंगा…’ इतना कहते हुए उस आदमी ने स्कूटर स्टार्ट कर दिया था और उसने गाड़ी।

वह अब एक क्षण भी नहीं ठहरना चाहता था।

उसकी आंखों में पुलिस कर्मियों का घटिया व्यवहार तैर आया था। कार्पोरेशन वालों ने भी उस की यंत्रणा को नज़रअंदाज़ ही किया है। उसे सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा हिजड़ों के प्रमुख पर आया था … जिसने कितनी घटिया हरकत की थी … सबसे बढ़कर उसके दिल में आया था कि अगर ये समाज सेवी लड़के न मिलते तो वह जाने कहां-कहां और भटक रहा होता अभी … उसके दिल में खुशी की एक हलकी-सी लहर दौड़ आई थी।

उसके सामने फिलहाल मंज़िल थी ‘गीता भवन’ … दूसरी मंज़िल थी अपने शहर पहुंचना … फिर घर … फिर … अपनी दुनियां में लौट आना … उसे लगा था, जैसे अपने घर से निकले हुए उसे महीनों हो गए हैं … इस घटना क्रम में उसकी जेब से चार सौ फिज़ूल में ख़र्च हो गए थे … इसका क्षोभ उसे ज़रूर हुआ था…

उसने जेब टटोली थी, जेब में समाज सेवी मुखिया द्वारा साइन किया हुआ काग़ज़ सही सलामत था।

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