-दीप ज़ीरवी

सदियों से नारी के पांव में परतन्त्रता की बेड़ियां खनकती रही हैं। चार दीवारी में सीमित मातृ शक्‍ति का कार्य मात्र बच्चों को जन्म देने का माना जाता रहा है। भारत आज आज़ाद है, 68 बरस हो गए आज़ादी की दुल्हन को ब्याह कर आए हुए। भारत की आज़ादी सम्पूर्ण आज़ादी नहीं, 50 प्रतिशत भारत आज भी परतंत्र है।

ये 50 प्रतिशत भारत है हमारी मातृशक्ति। नारी जिसको अर्धांगिनी माना जाता है, आज भी परतंत्र है।

पढ़ती आंखें विस्मित होंगी, नारी और परतंत्र!! नारी तो पूर्णत: स्वतंत्र है। नारी को आज आर्थिक, सामाजिक, वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त है। हो सकता है, क्योंकि सरसरी निगाह में ऐसा दिखता है इसलिए पढ़ती आंखों को मेरी बात अजीब सी लगे किन्तु ध्यान पूर्वक बांचने से यह सत्य दृष्टि गोचर होता है।

एक अरसे से समाज पुरुष प्रधान रहा है। इसलिए कहा जाता है कि पुरुष ने कभी नहीं चाहा कि नारी उसकी इच्छा के विरुद्ध चले।

पुरुष स्वयं बा+बल रहा है और पुरुष ने नारी को अ+बला कहा है। बाबल पुरुष ने हरम सजाने के लिए नारी का उपयोग किया, दैहिक सुख के लिए अवैध संबंध बनाने से भी कभी संकोच नहीं किया। आज भी पुरुष की सोच में बदलाव नहीं आया। जो यह सोचते हैं कि नारी स्वतंत्र है, खुलेआम घूमती है, सिनेमा, क्लब जाती है, फ़ैशन शोज़ में भाग लेती है, वो ग़लत सोचते हैं।

काम पिपासु दृष्टि भाजन बनती नारी स्वतंत्र होने का दम भरती तो है परन्तु स्वतंत्र नहीं है। पुरुष ने नारी को जितनी भी ढील दी है वह ढील पुरुष की मजबूरी थी।

जब तक अर्थतंत्र पुरुष की अपनी कमाई से चलता रहा, पुरुष को यह गवारा न था कि नारी चार दीवारी लांघ कर बाहर की दुनिया देखे। किन्तु जब घर के खर्चे बढ़े तो पुरुष को यह महसूस हुआ कि एक की कमाई से घर चलाना कठिन कार्य है तब पुरुष ने नारी को ढील दी कि वह अपने कर्मक्षेत्र को चुने।

नारी मुक्ति के नाम पर नारी पर बोझ का बढ़ जाना नारी को महसूस नहीं हुआ। कामकाजी नारियां, नारी मुक्ति आंदोलनों का परिणाम नहीं हैं यह तो मात्र पुरुषों की लालसा का परिणाम हैं।

नारी मुक्ति का झंडा उठा कर चलने वाले, लोलुप मर्दों की चाह से अनभिज्ञ हैं अथवा अनभिज्ञ बना रहने में अपनी भलाई समझते हैं ।

कामकाज में नारी-शक्ति का प्रयोग होने देने से नारी शोषण का एक और राह खुल गया। कामकाजी नारी को अब दो-दो मोर्चों पर जूझने के लिए प्रेरित किया जाने लगा। घर के साथ-साथ दफ्तरों की ड्यूटी भी नारी के हिस्से आई।

कामकाजी नारियों की जून तरसयोग कही जा सकती है। कारणों की बात करें तो कई कारण सामने आ जाते हैं।

-कामकाजी महिलाओं को इंसान नहीं, बल्कि मशीन माना जाने लगता है, एक ऐसी मशीन जो घर, परिवार, पति, बच्चों की हर ज़रूरत पूरी करती है।

-घर की सफाई, खाना पकाना, सास-ससुर की सेवा करना, बच्चों को तैयार करना, स्कूल भेजना, बच्चों को होमवर्क करवाना, रात को पति देव द्वारा की गई सहवास की चाहत को पूरा करना, ऐसे तमाम कार्य करने को तो औरत का फर्ज़ ही माना जाता है।

-और यह भी आशा की जाती है कि औरत घर के फ़र्ज़ों से भी बेमुख न हो और बाहर नौकरी भी करे ताकि घर का खर्च चल सके।

-घर में मशीन की तरह काम करने वाली नारी की मुश्किलों का अंत कहीं नहीं है। आॅफ़िसों में भी लोलुप निगाहें उसका पीछा नहीं छोड़तीं। उसका यथा सम्भव शोषण करने की कोशिश की जाती है।

-घर में, घर से आॅफ़िस तक के रास्ते में, लोकल बसों में, ट्रेनों में, आॅफ़िस में हर जगह भूखी निगाहें उसे टटोलती मिलती हैं।

-वह जब थकी मांदी आॅफ़िस से लौटती है तो कोई उसे ठंडा पानी भी नहीं पूछता, वह खुद ही पानी निकाल कर पीती है। फिर जुट जाती है रसोई की तैयारी में।

क्या शादीशुदा, क्या अविवाहिता सब नौकरी करने वालियों की मुश्किलें अनगिनत हैं।

कई अविवाहितें, कैरियर के चक्कर में शादी योग्य आयु भी निकाल बैठती हैं।

विवाहिता महिलाओं पर घर बाहर की ज़िम्मेदारियों के चलते हाईपरटेंशन की बीमारी आक्रमण कर देती है।

पति महाराज, लापरवाही का अवतार बने इठलाते हैं। रात में यदि मुन्ना, मुन्नी रोए तो भी बीवी उठे तो उठे। फ़ीडर दे तो बीवी, क्या बच्चे सिर्फ़ बीवी के हैं, क्या केवल मां की ज़िम्मेदारी है बच्चे की देखभाल करना। क्या मियां जी का कोई फ़र्ज़ नहीं रह जाता।

कामकाजी महिलाओं को देख कर उन की मुश्किलों को महसूस कर के यही मन में आता है कि

-क्या नारी इंसान नहीं है

-क्या नारी में जान नहीं है।।

घर-बाहर के दो पाटन के बीच में पिसती नारी भी इंसान ही है, है ना।।

 

 

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