-राजेन्द्र निशेश

जब मैं उनके निवास पर पहुंचा तो उन्हें किताबों के सैलाब में घिरा हुआ पाया। उनके दायें किताबें बिखरी पड़ी थीं, उनकी बायें किताबें शोभायमान थीं। उनके आगे किताबें खुली पड़ी थीं। उनके पीछे किताबें बंद पड़ी थीं। हमें उनके ‘इन्टलैक्चुअॅल’ होने में कोई शंका नज़र नहीं आ रही थी, वैसे यह उनके घर के भीतर प्रवेश करने से पूर्व ख़त्म हो चुकी थी जब उनके निवास के बाहर ‘साहित्य सदन’ की पटि्टका को सुशोभित पाया। साहित्य में उनकी उपलब्धियों के चर्चे पहले ही परचम की तरह लहलहाते रहते थे। वह गम्भीर मुद्रा में लेखन में व्यस्त थे और हमें असमय वहां पहुंचने का भान खटकने लगा।

“मुझे खेद है कि मैं असमय यहां आ पहुंचा।” मैंने क्षमा-याचना के स्वर में कहा।

“कोई बात नहीं। लेखक के पास समय ही कहां होता है, उसे तो समय उपलब्ध कराना पड़ता है।” उन्होंने अपनी विशालता का परिचय देते हुए कहा। वह अपने बिखरे पन्नों को समेटने लगे।

“मैं आपका साक्षात्कार लेना चाहता हूं।”

“ठीक है, लेकिन समय का ख़्याल रखिएगा, वह बहुत मूल्यवान है, यह धनुष से निकले शर की तरह कभी वापिस लौट कर नहीं आता,” उन्होंने कहा।

हमारे पास उनके विवेक को सराहने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। उनके मूल्यवान समय को और अधिक ख़राब न करने की ग़रज़ से पहला प्रश्न किया, “आप कब से लेखन में हैं?”

“देखिए, मैं अब पचपन का हूं और बचपन से लिख रहा हूं। वैसे मैं जब पालने में था तब भी लय में रोता था, लय में हंसता था। इसे आप हमारी पहली कविता ही समझिए।”

“गोया कि कविता से आप का बहुत पुराना रिश्ता है।”

“जी हां, जब मैं निम्न कक्षा में पढ़ता था, तभी अपनी सहपाठिन कविता से मुझे कविता लिखने की प्रेरणा मिली थी। कभी वह मुझे फूल-सी लगती तो मैं फूल पर कविता लिख डालता। कभी वह मुझे शूल-सी लगती तो मैं कांटों को फूल समझ कर तुकबंदी करने लगता। जब मैं विद्यालय के उच्च वर्ग में प्रवेश पा गया तो एक नयी सुकन्या मेरी प्रेरणा स्त्रोत बन गई। कभी उनके गाल, कभी उनकी चाल मुझे कविता लिखने को विवश कर देती। महाविद्यालय में तो सुकन्याओं की भरमार थी, गोया कि नित कविता से भेंट हो जाती और मुझे कविता लिखने को प्रोत्साहन प्रदान कर देती।”

“फिर आप गम्भीर लेखन यानी विरह कविता पर कैसे पहुंचे?”

“वास्तव में परिस्थितियों ने हमारा साथ नहीं दिया। सभी सुकन्याएं अपनी प्रशंसा में तो मेरी कविताएं सुनकर आत्म-विभोर होने का आनंद लेती, लेकिन जब मेरे जीवन के साथ आंतरिक रूप में जुड़ने का प्रश्न उठता तो डूबती नाव की तरह मुझे मंझधार में छोड़कर किनारा कर जाती। इस विरह की पीड़ा ने मुझे गम्भीर लेखन की तरफ़ धकेल दिया। जब मानव की जीवन-धारा मुड़ जाती है तो उसकी सोच, उसका लेखन भी उसी की प्रतिमूर्ति बन जाता है। अब मैं हर विषय पर कविता लिख देता हूं।”

“मुझे बेहद अफ़सोस है कि आप को जीवन में इस प्रकार की परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ा। अब तक आप कितने ग्रंथों की रचना कर चुके हैं?”

“वास्तव में मेरा अधिकांश लेखन तो कविता को ही समर्पित है। अब तक मेरी अट्ठाईस पुस्तकें कविता पर आधारित हैं, शेष बीस-बाईस पुस्तकें अन्य विधाओं पर मेरी लेखनी की उपज हैं।”

“इतनी ऊर्जा आप कहां से पाते हैं? मैंने उनके इर्द-गिर्द बिखरी पुस्तकों पर अपनी पुनः नज़र घुमाते हुए प्रश्न किया।”

“इसके लिए गहन अध्ययन एवं चिन्तन की आवश्यकता रहती है, सो तो करना ही पड़ता है।”

“गोष्ठियों आदि के बारे में आपके क्या विचार हैं?”

“भई गोष्ठियों एवं साहित्यक समारोहों आदि में भाग लेने से आदमी का सम्पर्क दायरा बढ़ता है और अपना अस्तित्त्व दिखलाने के लिए आज के ज़माने में अति आवश्यक है। अच्छे लेखन से अधिक अच्छे सम्पर्क की आवश्यकता रहती है ताकि आपका लिखा हुआ शब्द लाइम-लाइट में आ सके। आज जब साधन उपलब्ध हैं तो उनका सदुपयोग करना ही अनिवार्य है। मंचीय कवि आज कूड़ा लिखकर भी अच्छा-खासा कूट रहे हैं।”

“आप किन कवियों से अधिक प्रभावित हैं?”

“मैं तो सभी कवियों को आत्मसात कर लेता हूं। कवि अथवा लेखक किसी को प्रभावित नहीं करते, अपितु उनकी रचनाएं दूसरों को प्रभावित करती हैं।” उन्होंने अपनी गंभीरता को बनाये रखा।

“समकालीन लेखन के बारे में आपके विचार?”

“अजी, आज के लेखन को छोड़िए। सब ऊलजलूल लिखा जा रहा है। वो हम जैसा एक आध कवि ही है, जो कविता को मृतप्रायः होने से बचाये हुए हैं।”

तभी मुझे नोबल पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार नायपॉल के एक ब्यान का ध्यान आया जिसमें उन्होंने घोषणा की है कि ‘साहित्य मर गया है!’ मेरी उनसे सहमति नहीं है, क्योंकि साहित्य कभी मरा नहीं करता, जब तक हमारे ऐसे बंधुु लेखक साहित्य को आगे बढ़ाने में समर्थ हैं। हां सृजनशीलता की मौत अवश्य हो सकती है!

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