-बलवीर बाली

मानव जीवन की इस सच्चाई के बारे में लिखते हुए पहली बार इस कदर परेशानी हुई कि यदि लिखें तो क्या लिखें। जो नवीन हो और नवीनता के साए में कलात्मकता से भी भरा हो। कभी आप ने चांदनी रात में चांद को देखा है जो बादलों के साये में कभी छिपता है और कभी निकलता है, ठीक वैसे ही कई विचार दिमाग़ में आए और निकल गए। परन्तु उन विचारों को एक लड़ी के रूप में नहीं पिरो सके। मानव ने अपने जीवन को अपने ही द्वारा पैदा की गई नीतियों, आदर्शों तथा पाखण्डों की चादर ओढ़ा रखी है। आज जहां युवा पीढ़ी खड़ी है, वहीं यह पीढ़ी अपने आप को नीतियों, आदर्शों तथा पाखण्डों की प्राचीन विद्याओं से बहुत दूर मानती है। परन्तु क्या वह वास्तव में दूर है जबकि मानव पीढ़ी इसमें और बुरी तरह फंसी हुई है। ये वो दलदल है जो मनुष्य को प्रयास करने पर और उसमें फंसाती है। चाहे वे मानव जीवन के किसी भी भाग से संबंध रखती हो। आज हम कश्मीर को कन्याकुमारी से दस्तक दे रहे हैं जहां भारत तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक एकता की लड़ी में बंधा हुआ है परन्तु हम भारतवासी हर 15 कोस के बाद विविधता का परिचय देते हैं। हमें अपने आप को कसना होगा। क्योंकि ये हमारी भावनाएं ही हैं जो अपनी सीमा को तोड़ती हैं, उल्लंघन करती हैं और शुरू कर देती हैं ऐसा खेल जहां उल्लंघन होता है नीतियों का, हनन होता है चरित्र का और बुलंद हौसले का। नव वर्ष में जाते हुए यह सोचना होगा कि क्या आपकी दृष्टि में बिना नीतियों वाला इंसान जिसमें चरित्र के नाम पर धोखा और हौसले के नाम की कोई विशेषता न हो हमें इस सदी में आगे बढ़ते हुए समाज की प्रतिस्पर्धा में खड़ा कर पाएगा। आधुनिक समय की मांग क्या है? क्या हम नहीं जानते फिर क्यों ज़रूरत पड़ती है? क्या हम समझदार नहीं, हमें आख़िर मदद की ज़रूरत क्यों पड़ती है? मेरी नज़र में सिर्फ़ कुछ एक ज़रूरतें हैं जिनकी पूर्णता इस सदी के हमारे आभूषण होंगे। जब कहीं भी इस विषय पर बात चलती है तो सब की सोच सीमित ज्ञान का परिचय देती है। कोई इस समय को वैज्ञानिक सदी की संज्ञा देता है तो कोई इसे भविष्य के प्रति उसके स्वप्नों की पूर्ति का समय मानता है परन्तु जो ख़ामियां हम में आज भी मौजूद हैं जिन्हें हम चाह कर भी दूर नहीं कर पाए इन्हीं ख़ामियों को नज़र अंदाज़ करते हुए क्या आप नव वर्ष में या यूं कहें कि आने वाले वर्षों में जाने को आतुर हैं? यह वो समय है जब हमें कुछ देर रुक कर अपने अतीत और भविष्य दोनों को देखना चाहिए। सोचना चाहिए, विचारना चाहिए, अपनी ख़ामियों पर ध्यान देने से इंसान नीचा नहीं हो जाता। यदि मैं ग़लत नहीं तो ये बातें सभी जानते हैं परन्तु वे क्यों प्रयास नहीं करते? जिन ख़ामियों का ज़िक्र कर रहे हैं उस में सबसे पहले आती है वैर-विरोध की भावना। जहां सारे संसार को भारत शांति-शांति का संदेश देता है। वहीं भारतीय आपस में ही जिस वैर और विरोध की भावना का परिचय देते हैं यह दशा काफ़ी शोचनीय है। हमें मानवता का पल्लू धारण कर एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जहां व्यक्तिगत लाभों से ऊपर उठ कर प्रेम के इस संदेश को अपनाना है जिसका वर्णन हिन्दुओं के प्राचीन ग्रंथों, सिक्खों, मुस्लिम और ईसाई संप्रदायों के पवित्र ग्रंथों में है। जहां प्रेम का प्रसार हो वहां कई दुर्भावनाओं का अंत स्वयं ही हो जाता है। प्रेम सिखाता है एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना, त्याग की भावना। चाहे ये बातें आज सिर्फ़ उपदेशात्मक लगती हैं। परन्तु जब तक हम भावना का वरण नहीं करेंगे तब तक हम अनेकता में एकता का परिचय इस शताब्दी के संसार को नहीं दे पाएंगे जो कि हमारी पहचान है। दूसरी ख़ामियों में से प्राथमिकता मिलती है मानव चरित्र को। जो दिन प्रतिदिन तो स्तर विहीन हो रहा है परन्तु हम अपने झूठे स्वाभिमान को जीवित रखने के लिए उसे असत्य के जामे में ढांप कर बचाने के प्रयास में लगे हैं। जिस मानव का चरित्र स्वच्छ एवं निर्मल होगा वो 21वीं सदी में सबसे अधिक प्रगतिशील होगा। विश्वास की डोरी यद्यपि दृष्टि में बहुत पतली होती है परन्तु बहुत मज़बूत होती है। इसी विश्वास के सहारे हमें आने वाले समय में आगे बढ़ना होगा। उन्नति तभी प्राप्त की जा सकती है जब मन में विश्वास हो कुछ कर दिखाने की तमन्ना हो। मानव चरित्र का निर्माण मानव के हाथ में है। उसे अपने आप को उस रूप में ढालना होगा जिस को वह अपना आदर्श मानता है। हमें इतनी तेज़ी से नहीं चलना है कि औंधे मुंह गिरें, ऐसे चलना है कि ज़माना हम से सीखे, ज़माने से हम नहीं। हमें शपथ लेनी होगी कि नव वर्ष में सामाजिक आडम्बरों, भ्रष्टाचार का साया तक हमारे साथ न हो। लगता है आवश्यकता से अधिक आशा कर रहा हूं। अपने भारतियों को जानता हूं जहां तक भारतीयता की पहचान है, वहां तक इन कुरीतियों ने भी अपनी जगह बनाई हुई है। पर यह ज़िम्मा मैं उन्हीं पर छोड़ता हूं कि या तो इस विषय का ध्यान छोड़ दें या फिर एक प्रयास कीजिए। विश्वास कीजिए आपकी एक प्रयासों की लम्बी क़तार लग जाएगी। ज़रूरत है एक दूसरे को समझने की। खुशी होगी यदि यह सुनने में मिले कि यह सदी कोई वैज्ञानिक या ऐसी सदी न कहलाए जो कि किसी व्यक्ति विशिष्ट या विषय विशिष्ट से संबंधित हो बल्कि यहां सभ्य प्राणियों का निवास हो जहां प्रेम की तूती चारों ओर बोलती रहे। भ्रातृभाव चारों तरफ़ फैले और सभ्य भावनाएं अपने उत्कृष्ट रूप की प्राप्ति कर हमारा और हमारी मानव जाति का मार्गदर्शन करें। हमें नव वर्ष में और आने वाले सभी वर्षों में अपने भीतर की इन भावनाओं को नहीं दबाना है क्योंकि अब तो भावनाएं भी कह उठी हैंः-

“लुप्त होती भावनाओं को देख….

भावनाएं करती हैं आक्रोश

दिमाग़ से अपनी ही वैचारिकता से

कब तक छिपाए रखोगे?

अपने ही भीतर मर्यादा का कफ़न ओढ़ाये

खींच कर, कर दो आज़ाद मुझे

कुछ मैं भी कह पाऊं

इस नीच समाज से

बातें अच्छी लगती हैं कहने में

करने में क्यों नहीं….

सीमा दौड़ती है भावनाएं सीमाओं के ही घेरे में।

घर की बाड़ ही खाती है अपने ही खेतों को

कौन निगहबान होगा

अब तो इस नौका का खुदा ही खवैया होगा

मुझे डुबो रखना है मानव ने, खोखली रीतियों के बीच

दूसरों को देता है वो सीख

पर खुद है वो महानीच

एक बार सिर्फ़ एक बार कर दे आज़ाद

ताकि

इस घटियापन से पा जाऊं निजात।”

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