-पवन चौहान

औद्योगिक क्रांति के कारण जैसे-जैसे एक ही वस्तु के विभिन्न रूपों का उत्पादन होने लगा और उपभोग के लिए नई-नई वस्तुएं पैदा की जाने लगीं वैसे-वैसे विज्ञापन का महत्त्व बढ़ता चला गया। उत्पादक के लिए यह ज़रूरी हो गया कि वह अपनी वस्तुओं की जानकारी उपभोगताओं तक पहुंचाए। इसका एकमात्र माध्यम विज्ञापन ही था। आरम्भ में विज्ञापन की यह दुनिया थोड़े शब्दों, छोटे-मोटे पम्फ़लेटों, अख़बारों तक सीमित थी जो 20वीं शताब्दी के मध्य में रेडियो से होती हुई दूरदर्शन तक पहुंच गई जिसने उपभोगताओं को आकर्षित और सम्मोहित करने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी और आज 21वीं सदी का युग ‘विज्ञापन युग’ बन गया है।

घरेलू समान की ख़रीददारी हो या अपने बच्चों का किसी स्कूल, कॉलेज या संस्था में दाख़िला लेना हो, टी. वी. की ख़रीददारी हो या गाड़ी की हम विज्ञापन का सहारा लेकर ही चलते हैं। एक समय ऐसा भी था जब अपने ज़माने के सुपर स्टार दिलीप कुमार, देव आनन्द, राज कपूर जैसी हस्तियां शेविंग क्रीम, हेयर ऑयल जैसी चीज़ों का विज्ञापन करना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझती थीं।

लेकिन आज समय बिल्कुल बदल गया है। आज चाहे कोई भी वस्तु हो, स्टार या सुपरस्टार उस विज्ञापन में काम करने को तत्पर रहते हैं। बशर्ते, उसमें रुपयों की कमी न हो। आज विज्ञापन बाज़ार में जिस प्रकार रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है उसी अनुपात में कहीं ज़्यादा मुनाफ़ा कंपनियां कमा रही हैं। इसमें जहां पुरुष मॉडल, अभिनेताओं का हाथ है उससे कहीं ज़्यादा विज्ञापन बाज़ार में नारी की भूमिका प्रमुख है। या यूं कहा जाए तो ग़लत न होगा कि नारी के बिना हर विज्ञापन अधूरा और नीरस-सा लगता है, नारी के बिना विज्ञापन में वह आकर्षण नहीं रह जाता।

विज्ञापन चाहे शैम्पू का हो या नहाने के साबुन का, तेल का हो या डिटरजेंट का, टी. वी. का हो या फ़्रिज का, मोबाइल हो या फिर गाड़ी, खाने की वस्तु हो या पहनने की चीज़ नारी ने हर विज्ञापन में दस्तक दी है। यहां तक कि पुरुषों के सामान के विज्ञापन में भी नारी प्रमुखता से नज़र आती है। किसी मैगज़ीन का कवर किसी नारी के बिना सजता नज़र नहीं आता। आज विज्ञापन बाज़ार में नारी का पूरी तरह से कब्ज़ा हो चुका है। नारी के बिना विज्ञापन, किसी भी कम्पनी के लिए घाटे का सौदा हो सकता है।

विज्ञापन में नारी का होना लोगों में कई मत उभारता है। कोई मानता है विज्ञापन में नारी की दस्तक से जहां नारी में आत्मविश्वास जागृत हुआ है वहीं उसे अपनी एक सशक्त पहचान मिली है। आत्मनिर्भरता के साथ-साथ उसने अपना एक मुक़ाम भी हासिल किया है, उसकी आर्थिक स्थिति सुधरी है।

20वीं सदी के प्रथमार्द्ध को ‘नारी जागरण’ का युग कहा गया है, उत्तरार्द्ध को ‘नारी प्रगति’ का और 21वीं शताब्दी को ‘नारी-युग’ कहा जा रहा है। इस सदी के कठिन सफ़र के बाद नारी ने प्रगति के कई सोपान पार किए हैं। आज कोई भी क्षेत्र ऐसा न होगा जहां नारी ने अपना विजयी पताका न फहराया हो। इस मत के लोगों के अनुसार विज्ञापन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नारी की अपने हक़ की लड़ाई लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। स्त्री-पुरुष समानता को अमलीजामा पहनाते हुए तिरूअनंतपुरम के पलयम जामा मस्जिद के प्रमुख इमाम ने एक क्रांतिकारी क़दम उठाया। उन्होंने महिलाओं को मस्जिद में प्रवेश करने की इजाज़त दे दी। इस क़दम से महिलाओं को बहुपत्नी प्रथा, पर्दा प्रथा, मौखिक तलाक आदि रूढ़ियों व बन्धनों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का मौक़ा मिलेगा।

दूसरा वर्ग उन पुरुषों का है जो अपने में पुरुष प्रधानता का अहम् पाले हुए हैं। वे नारी की उन्नति को पचा नहीं पा रहे हैं। वह नारी को सिर्फ़ चारदीवारी में चूल्हे-चौके तक ही सीमित देखना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि कैथोलिक संप्रदाय के सर्वोच्च धर्मगुरू पोप स्त्रियों को आज भी धर्मगुरू का स्थान देने को राज़ी नहीं हैं।


एक अन्य वर्ग विज्ञापनों में परोसी जा रही अश्लीलता को लेकर चिंतित है। अश्लीलता से भरे विज्ञापनों के कारण भारतीय सांस्कृतिक मूल्य टूटने लगे हैं। दुर्भाग्य जनक स्थिति तो उस समय देखने में आती है जब विज्ञापन के लिए नारी शरीर का उपयोग उन वस्तुओं को दिखाने में किया जाता है जिनसे नारी जगत् का दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं होता। अश्लील विज्ञापनों के कारण परिवार के साथ टी. वी. देखना भी मुश्किल हो जाता है। इस वर्ग की चिंता उचित है। अश्लील विज्ञापन से नारी का सम्मान तो कम होता ही है साथ ही साथ नैतिक मूल्यों का भी ह्रास होता है। विज्ञापनों को तो समाप्त नहीं किया जा सकता लेकिन उन्हें समाजिक सरोकार से जोड़कर लाभकारी व कल्याणकारी बनाया जा सकता है। इसकी ज़िम्मेदारी जहां कम्पनी की भी है उससे कहीं ज़्यादा स्वयं नारी की है। वह चाहे तो ऐसे अश्लीलता परोसने वाले विज्ञापनों में काम करने से इनकार करके अपना फ़र्ज़ पूरा कर सकती है।


निष्कर्ष यही निकलता है कि नारी की जगह मात्र चारदीवारी नहीं है। नारी अब पवन की तरह मुक्त है। सुगन्धि के समान स्वच्छन्द है। सभी क्षेत्रों के द्वार उसके लिए पूर्ण रूप उन्मुक्त हैं । इसमें विज्ञापन की भूमिका भी अहम् है। विज्ञापन ने नारी को सफलता की ऊंचाइयां छूने का मौक़ा प्रदान किया है। उसे एक नई पहचान दी है। उसमें आत्मविश्वास जागृत किया है।

                                                                                                                                                                     

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