जब आप को सर्दी की सवेर में रेलवे यात्रा करनी पड़ जाए जबकि आपके पास कोई बुकिंग सीट का टिकट नहीं बल्कि एक साधारण टिकट हो तो आपको यह जान लेना चाहिए कि आपने पिछले जन्म में कोई अच्छा काम नहीं किया। आप जान ही गए होंगे कि मैंने क्या सोचा होगा जब ऐसी ही सवेर में मेरे कांपते बदन और खड़कते दांतों की आवाज़ सुनती आंखों को डिब्बे में बैठने के लिए कोई सीट नज़र नहीं आ रही थी। 15-20 मिनट की भीड़ भरी यात्रा ने कुछ देर में मुझे गर्म और चुस्त तो कर दिया था मगर सीट पाने का लालच ज्यों का त्यों बरकरार था। सीट पर बैठे हर व्यक्ति की हरकत पर मेरी तीखी नज़रें टिकी हुई थी। सामने की खिड़की के पास वाला आदमी उठने ही लगा था कि एक भारी धक्का पीछे की तरफ़ से मुझे लगा और मैं कुछ कर पाता मेरा जूता एक बनारसी जूते से टकरा गया और मैं बुरी तरह से सीट पर जा गिरा। जैसे तैसे ही मिली हो अब वो सीट मेरे एकाधिकार में थी। सीट तो मिल गई मगर चोट लग जाती तो? यह सोच कर मेरी निगाहें मुलज़िमों को खोजने लगीं। धक्का देने वाले को खोजना तो मुश्किल था लेकिन बनारसी जूते वाले कुत्ते-कमीने को खोजा जा सकता था। मैं उसे उसकी नानी याद करवाने के लिए तैयार था। मेरा ध्यान इकलौती बनारसी जूतों की जोड़ी पर गया तो उसे किसी सलवारधारी ने पहन रखा था। इससे मुझे अपने सामने एक लड़की के बैठे होने का एहसास हुआ। मैं जान गया कि मैंने इतने बुरे काम नहीं किए जितने कि मैं पहले समझ रहा था। वैसे भी सुना है कि भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है। नहीं तो मुझे खिड़की वाली सीट और सामने की सीट पर लड़की कैसे मिलती। भगवान करे कि अब वो चौदहवीं का चांद ही निकले। चांद सा चेहरा मुझे पूरा नहीं दिख रहा था। बस दो गहरी आंखें, दो भौहें और गोरा माथा, बाक़ी के चांद को बदली यानी के एक गर्म हिमाचली शॉल ने घेर रखा था। और इधर मैं था कि उसे यूं ही कमीना और न जाने क्या-क्या कह रहा था जबकि इन्सान को हर बात प्रेम और प्यार से सुलझानी चाहिए। मैंने भी अब सभ्य व्यवहार का परिचय देते हुए और बातों का सिलसिला बनाने के लिए कहा, “मुझे माफ़ कर दें, मैंने जानबूझ कर नहीं किया।” उसने मुझ पर गढ़ी नज़रें घुमाकर बाहर देखना शुरू कर दिया। “आप को चोट तो नहीं आई” कुछ देर चुप रहने के बाद उसने ना में सिर हिला दिया। “लेकिन आपकी आंखों से मेरे दिल में जो चोट लगी है उसका क्या?” यह आवाज़ मेरे अंदर से आई और अंदर ही रह गई। क्योंकि मैं अपनी क़िस्मत का एक और इम्तिहान नहीं लेना चाहता था। बात टूटे न इसलिए मैंने पूछा कि “आप अकेली जा रही हैं क्या?” उसने उसी अदा से हां में सिर हिला दिया। पर बोली फिर भी कुछ नहीं। “आप अकेली कहां है आप के साथ मैं जो हूं, आपको डरने की कोई ज़रूरत नहीं।” कभी-कभी आपको अपने सवाल का जवाब खुद ही देना पड़ता है। वैसा ही कुछ मैंने भी किया। इस जवाब के साथ एक और सवाल भी दाग दिया। “वैसे आप कहां से आ रही हैं?” फिर वही चुप सी नज़रें मेरी तरफ़ घूमीं। एक नज़र मुझको देख कर फिर खिड़की से बाहर को हो गईं। कुछ लड़के जो वहां खड़े थे हमारी तरफ़ देख रहे थे और शायद बातें भी सुन रहे थे। उनकी ग़ुस्से से भरी नज़रों का जवाब मैंने मुस्कुरा कर दिया क्योंकि उनसे मैंने सीट के साथ-साथ उस लड़की को प्रभावित करने का मौक़ा भी छीन लिया था। ऐसे मुक़ाबले में आगे निकलना कोई आम बात नहीं हो सकती। ऐसा एहसास दिखाते हुए मैंने गर्दन उठा कर अगले पूरे दांत दिखाती हुई मुस्कान उन पर फेंक दी। अब मैं उनको यह दिखाना चाहता था कि मैं लड़कियों को प्रभावित करने की कला में भी माहिर हूं, “मैं करनाल से आ रहा हूं। क्या आप भी?” उसने फिर सिर नहीं की मुद्रा में घुमा दिया। मेरे सवाल को सहारा मिला तो फिर पूछ डाला, “तो फिर आप कहां से आ रही हैं?” लेकिन वो चुप चाप बाहर को देखती रही। मुझे यह बात बड़ी अजीब सी लगी कि ‘हां’ या ‘ना’ वाले जवाब तो सिर हिला कर दे देती है। पर जहां कुछ बोलना होता है वहां पर चुप क्यों रह जाती है। मुझ से भी पूछे बिना रहा नहीं गया, “आप गूंगी तो नहीं हैं न?” उसने फिर ना में सिर हिला दिया। तो फिर आप मुझ से नाराज़ हैं। उसने उसी अदा में ना का जवाब पेश कर दिया। “तो फिर आप बोल क्यों नहीं रही?” वो बिन कुछ बोले चुप चाप बैठी रही। मैंने यह ठान ली कि अब तो इस को बुलवा कर ही रहूंगा। लेकिन मेरी सारी कोशिशों के बाद भी उसने न बोलने की ज़िद्द नहीं तोड़ी और इधर मेरा स्टेशन आने वाला था। तो मैंने इस बात के लिए हठ पकड़ ली कि अगर आपने मुझे माफ़ कर दिया है तो एक बार अपनी ज़ुबान से कह दो। मगर वो टस से मस नहीं हो रही थी। मैंने दबाव बढ़ाने के लिए कहा कि अगर अब भी आपने मुझे माफ़ नहीं किया तो मैं आपके पैर पकड़ लूंगा। मैंने पैरों की तरफ़ देखना शुरू किया ताकि उसको ऐसा लगे कि मैं पैर सच में पकड़ लूंगा। तभी जो आवाज़ मेरे कानों में पड़ी, “अगर तुम इतना ज़ोर लगाते हो तो कह देता हूं कि मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया।” मेरे रौंगटे खड़े हो गए जितनी जल्दी हो सके मैंने उस पर नज़र दौड़ाई। मूंछों को संवारता एक आदमी पठानी सूट पहने अपनी सीट से खड़ा होते हुए अपनी शॉल को ठीक कर रहा था। पास से कुछ लोग ज़ोर-ज़ोर से हंस कर मौसम का मज़ा ले रहे थे। मेरी तो अरमानों के साथ जैसे आवाज़ भी क़त्ल हो गई थी और वही पठानी सूट वाला आदमी कह रहा था, “चलो उठो तुम भी तो यहीं उतर रहे हो न?” लेकिन इतनी पतली हालत में तो मैं उसे सिर हिला कर ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब देने के भी क़ाबिल नहीं था।