मुनीष भाटिया

भारतीय संस्कृति की विशालता की दुहाई देकर, आज बुद्धिजीवी वर्ग चिंतित है। उनकी दृष्‍ट‍ि में भारतीय संस्कृति मज़बूत व विशाल तो है पर फिर भी विदेशी प्रचार माध्यमों के हमले का डर उन्हें हिलाए हुए है। कैसी विडम्बना है, एक तरफ़ तो यह वर्ग भारतीय संस्कृति को विशाल व महान की संज्ञा देता है व दूसरी तरफ़ इसके क्षीण होने का भय है। लगता है हर चीज़ की आलोचना करना भारतीयों की आदत हो गई है। कुएं का मेंढक बनकर न जाने क्यों हम अपने विचारों को संकुचित रख सम्पूर्ण सृष्‍ट‍ि के साथ नहीं जुड़ना चाहते।

अंग्रेज़ी व अंग्रेज़ियत का विरोध तो जग ज़ाहिर है पर जब संस्कृति ह्रास के नाम पर माइकल जैक्सन व मैडोना के बाद अब तक अनेकों विदेशी कलाकारों के भारत आगमन का विरोध होता है तो इन तथाकथित संस्कृति रक्षकों के विरोधी बयान हास्यप्रद लगते हैं। आज इन्हीं संस्कृति रक्षकों ने भारतीय संस्कृति को ‘घेराव’ व ‘ईंट का जवाब पत्थर से’ देने का पर्याय बना दिया है। क्या इस वर्ग की नज़र में भारतीय संस्कृति इतनी क्षीण व जर्जर है कि इतनी आसानी से नष्‍ट हो जाएगी? अरे, भारतीय संस्कृति तो तब भी चरमोत्कर्ष पर रही जब मुगल भारत में आए व तब भी सुरक्षित रही जब अंग्रेज़ों ने भारत पर शासन किया।

इस तरह विशाल सेनाओं वाले आक्रामक जब हमारी संस्कृति पर प्रहार नहीं कर पाए तो फिर ये कलाकार या फिर सौंदर्य प्रतियोगिताओं में इतना सामर्थ्‍य कहां? इसी भारत में जब अश्‍लीलता को धर्म का जामा पहना दिया जाए तो सार्वजनिक रूप से स्वीकार्य हो जाती है। इसका मुंह बोलता उदाहरण अजंता की गुफाएं व खजुराहो के मंदिरों में देखने को मिलता है। यह आज के युग की कड़वी सच्चाई है।

इसी तरह ये संस्कृति के तथाकथित रक्षक तब भी चुप्पी साधे रखते हैं जब गर्भ में ही कन्या भ्रूण की हत्या कर दी जाती है। आज भी कई प्रदेशों में कन्या के जन्म लेते ही उनकी हत्या अथवा ज़िन्दा ही ज़मीन में दफ़न कर दी जाती हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार गत वर्षां में हुई जनगणना में करोड़ों बच्चियां लापता पायी गई थी। यानी ये कन्याएं पैदा तो हुई लेकिन फिर उनका क्या हुआ, यह एक पहेली है। यह चौंकाने वाले तथ्य हैं कि आज के कुलीन व सभ्य कहे जाने वाले युग में भी धर्म की आड़ में कहीं नारी के सती होने की ख़बरें यदा-कदा सुनने पढ़ने को मिलती हैं। भारत के आंतरिक भाग विशेष रूप उत्तर प्रदेश, बिहार व उड़ीसा में नारी को ‘चुड़ैल’ व ‘डायन’ कहकर पूरे गांव के समक्ष नंगा घुमाया गया था। ऐसी शर्मनाक परिस्थिति में कोई भी संस्कृति रक्षक सामने न आया जोकि अबला की आबरू लुटने से बचा पाता। आज भी लड़की वालों के घर से बारात बिना दहेज़ मिले लौट जाती है। नोएडा की निशा शर्मा के बाद और कितनी लड़कियां ऐसी पैदा हुई जोकि हिम्मत जुटा कर दहेज़ लोभियों का विरोध करती हैं। इतनी विशाल जनसंख्या में इसका उत्तर गिनाने लायक नहीं होगा क्यों कि आज भी भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर नारी की आवाज़ को दबाया जा रहा है। लेकिन ऐसे समाज के ठेकेदार यह भूल रहे हैं कि जितनी नारी स्वतंत्रता भारतीय इतिहास में पढ़ने को मिलती है वह राष्‍ट्र की किसी अन्य संस्कृति में नहीं मिलती। इसका ज्वलंत उदाहरण ‘स्वयंवर प्रथा’ है जिसमें नारी को अपना वर चुनने तक का अधिकार था। इसके अलावा युद्धक्षेत्र में भी महिलाओं के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। इसलिए भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर नारी को समाज के इन ठेकेदारों की कठपुतली बनने से रोकना होगा। वैसे भी हमारी संस्कृति में नारी को देवी माना गया है।

आज के बुद्धिजीवी वर्ग को विदेशी संस्कृति के प्रभाव का डर खाए हुए है। यह उसी विदेशी संस्कृति का प्रभाव है कि आज भारतीय नारी को घूंघट से निकालकर अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए एक स्वर्णिम भविष्य प्रदान किया है। यह ठीक है कि प्राचीन भारत में नारी को संपूर्ण स्वतंत्रता मिली हुई थी किन्तु मध्यकालीन भारत के इतिहास में नारी की स्थिति ग़ुलामों जैसी हो गई जो कि स्वतंत्रता प्राप्‍त‍ि तक जारी रही। यदि यही भारतीय नारी उस मध्य युगीन की थोपी हुई संस्कृति की आड़ में घूंघट व पर्दे से बाहर न आती तो क्या संभव था कि सुष्मिता, ऐश्‍वर्या, डायना, लारा या प्रियंका विश्‍व के मानचित्र पर भारत का नाम रौशन कर पाती। यह बात नहीं कि पाश्‍चात्य प्रभाव अपने साथ सिर्फ़ नारी स्वतंत्रता ही लाया, अपितु अपने साथ वह खुलापन भी लाया। पाश्‍चात्य संस्कृति ने सदियों से गहरे गर्त में पड़ी भारतीय महिला की स्थिति को पुन: प्रतिष्‍ठ‍ित किया व स्वतंत्र सोच प्रदान की।

भारतीय संस्कृति तो उस गंगा के समान है जो दूसरों को तो पावन करती है साथ ही अपने साथ कई धाराओं को लेकर चलती है व उसकी पवित्रता में कोई कमी नहीं आती। अत: विदेशी संस्कृति का विरोध केवल विरोध करने के उद्देश्य से ही नहीं करना चाहिए। इसी विदेशी संस्कृति ने भारतीय नारी को, समाज व विश्‍व में वह स्थान दिलवाया जो कि प्राचीन भारत में महिला को हासिल था। अत: भारतीय संस्कृति तो वह विशाल विचार है जिसने विदेशी संस्कृतियों को आत्मसात कर लिया व स्वयं सुदृढ़ व चरमोत्कर्ष पर रही। अत: बुद्धिजीवी वर्ग की चिंता व्यर्थ है। इसलिए भारतीय संस्कृति में यदि नारी को देवी समान कहा गया है तो उसे यथोचित सम्‍मान मिलना ही चाहिए।

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