-शैलेन्द्र सहगल

मैं एक पुलिस नाके से बोल रहा हूं। आज यहां पर ए.एस.आई – सरदार सिंह अपने पूरे तामझाम सहित मौजूद हैं और कोटा पूरा करने के लिए अर्थात् रिकॉर्ड पूरा करने के लिए चालान समारोह का आयोजन हो रहा है। मैं पत्रकार हूं मुझे पूर्व निमन्त्रण भेज कर तो बुलाया नहीं गया था। आम परिस्थितियों में तो पत्रकारों का चालान पुलिस कभी करती ही नहीं। स्कूटर पर लाल अक्षरों में लिखे प्रैस शब्द को न पढ़ पाएं तो मुंह से उसका उच्चारण करते ही उसे हरा सिगनल मिल जाता था। मैं अपने पूर्व विश्‍वास पर अडिग सा उस महान् नाके को अनदेखा सा करके गुज़रने लगा तो पुलिस की विसल ने मेरे कान ही नहीं स्कूटर भी खड़ा करवा दिया। मैंने पूरे आत्म-विश्‍वास से प्रैस शब्द का उच्चारण किया मगर वह पीले काग़ज़ की कापी पर पैन से चालान भी बनाने लगा तो मैं हक्का-बक्का रह गया। मैंने फिर प्रैस मंत्र उच्चारित किया तो पुलिस वाला बोला- “क्या प्रैस वालों को हैलमेट सिर पर रखने की छूट है?”

“ओ जनाब हैलमेट तो शहर भर में किसी ने नहीं पहन रखा?”

“आप शहर भर में शामिल नहीं हैं- आप तो प्रैस वाले हैं आप ही कानून तोड़ेंगे तो जनता को क्या सीख देंगे?” उसकी कर्त्तव्य निष्‍ठा पर मेरा हृदय गदगद कर उठा। उसने मेरे स्कूटर की आर.सी मुझ से ले ली और मेरा पीला कार्ड (पर्चा) बना दिया और दूसरे दिन सी.जे.एम की अदालत में पेश होने की हिदायत कर दी। क़सम क़लम की उस वक़्त पुलिस अधिकारी का आदर्श किरदार मेरे हृदय में उस कठिन विपत्ति में परम आनन्द का कारण बना हुआ था। हर व्यक्‍त‍ि के पास अपना-अपना सूटेबल बहाना था- एक से बढ़ कर एक मैच लैॅस। एक बुज़ुर्ग ने बताया कि उन्होंने उसी दिन गाड़ी धुलवाई थी इसलिए काग़ज़ निकाल कर घर रख लिए। घर उनका सामने है- वो घर से तुरन्त काग़ज़ लाकर दिखाने का प्रस्ताव कर रहे थे, विनती कर रहे थे- पर आदर्श पुलिस व्यवस्था ने उसका प्रस्ताव ठुकरा कर उसका भी पीला पर्चा काट दिया। एक लोक गायक दूरदर्शन केन्द्र से अपना गीत रिकॉर्ड करवाने के गौरव की मस्ती में झूमते हुए आ रहे थे अपनी पारम्परिक वेश भूषा में बेचारे का मेकअॅप भी नहीं उतरा था कि पीला पर्चा उनके हाथ में थमा कर उनकी सारी मस्ती उतार दी- उनके रंग में भंग डाल दी। दुष्‍ट ग्रहों के बुरे प्रभाव वाली उस नाके वाली जगह से जो भी गुज़रा कोर्ट कचहरी के चक्कर में फंसता चला गया। किसी की कोई धौंस, कोई सिफ़ारिश, कोई घूस और कोई विनती तक काम नहीं आई। एक धार्मिक आस्थाओं वाले अधेड़ व्यक्‍त‍ि शोरूम से स्कूटर तो निकलवा लाये थे और स्कूटर को प्रभुचरणों में ले जाकर, पंडित से शुभ लग्न निकलवा कर ही बिल कटवाने की बात मन में लिए स्कूटर को मन्दिर में ले जा रहे थे कि स्कूटर को बुरे वक़्त ने आ घेरा और बिल की जगह पीला पर्चा भी उनके हाथ में था। सभी चालान हैलमेट न पहनने के कारण थे- उसी बहाने काग़ज़ भी चैक हो गए। आनन-फानन चालीस पचास चालान हमारी आंखों के सामने कट गए। किसी को भी बख़्शा नहीं गया। यह रातों रात पुलिस की काया कैसे पलट गई? यह आदर्श पुलिस बन गई और हम सभी गणमान्य नागरिक कानून तोड़ने वाले मुजरिम। मगर सरदार नागरिक पगड़ी धारण किए, बिना चालान कटवाए निकल रहे थे। जब कि दूसरी ओर हमारे सिर पर गर्म टोपी होने पर भी हमें कानून तोड़ने की रियायत नहीं दी गई। अगर पगड़ी सिक्खों का धार्मिक चिन्ह है तो तलवार भी तो धार्मिक चिन्ह है उसके साथ संसद में उन्हें क्यों नहीं जाने दिया गया, क्यों उन्हें हवाई जहाज़ में नहीं चढ़ने दिया जाता। कानून तो सबके लिए एक जैसा है अगर पगड़ी धारक को हैलमेट की छूट है तो टोपीधारी को क्यों नहीं? कानून के इस भेदभाव ने हमारे परायण के रंग में भंग डाल दिया। फिर विचार आया कि चालान हम स्कूटर वालों का ही क्यों? 12-13 सालों के उन लड़कों का क्यों नहीं जो हमारे पास से अस्टीम गाड़ियां चलाते हुए निकल गये? चालान उन नाबालिग लड़कियों का क्यों नहीं जो बिना लाइसेंस के कारें, स्कूटर और मोपेड चलाती हैं और हैलमेट भी नहीं पहनती? हमारे सामने किसी भी कार को रोक कर चैक नहीं किया गया? क्यों नहीं किया गया? हैलमेट पहन कर कई चालक वैसे भी निकल गए होंगे जिनकी गाड़ी के काग़ज़ पूरे नहीं होंगे या लाइसेंस न हो। क्रान्तिकारी विचारों के उठते आंकड़ों को दिल में दबाए कमज़ोर वर्गों के मसीहा से बने हम अपना सा मुंह ले कर घर आ गए। घर में भी उपहास हुआ कि बस यही है तुम्हारे प्रैस की शक्‍त‍ि- पत्रकारी की महिमा? तुम तो कहते हो पत्रकारों से सरकार भी डरती है- पत्रकार होने से इन्सान खुदा हो जाता है? आज हमारा सारा सुनहरी पानी उतर गया था। आज लगा जैसे पुलिस पत्रकार का सदियों पुराना गठजोड़ टूट गया है। घर वालों ने भी हमें उकसाया। अब आप भी पुलिस जैसे कर्त्तव्य निष्‍ठ बन जाना पुलिस अधिकारियों के कहने से कोई ख़बर न दबाना और पुलिस को बता देना कि पुलिस स्वतंत्र है तो पत्रकारों के पास भी प्रैस की आज़ादी है। प्रैस की आज़ादी के आगे पुलिस स्वतंत्रता पानी न भरने लगे तो नाम शैलेन्द्र नहीं और धर्म पत्रकारी नहीं।

सभी के उकसाने पर देखते ही देखते हम प्रैस की आज़ादी से ओत-प्रोत हो गए और कमज़ोर वर्ग के ऊपर ही होने वाले अत्याचारों के लिए क़लम को तोप बना लेने का हठ जंगली घास की तरह हमारे दिलों दिमाग़ में उगने लगा।

रात भर तो क्रान्ति की बिजलियां हमारे क्रोधित हृदय के आकाश में चमकती रही, कड़कती रहीं- शहीद भगत सिंह और लाला लाजपत राय सरीखे शहीदों के रंगीन चित्र हमारी आंखों के लहू को उबालते रहे।

सुबह जब कोर्ट जाने का वक़्त आया तो हमारी अन्तरात्मा से शर्मिंदगी की लहरें उठ-उठ कर क्रान्ति के विचारों को डसने लगीं।

आख़िर कोर्ट में आज हमें मुजरिम के कटघरे में खड़ा जो होना था। आर.सी. पर बड़े गौरव से अख़बार का पता लिखवाया था- पुलिस पर रौब डालने के लिए, पर आज शर्मिंदगी का कारण बनने जा रहा था। सुयोग्य जज साहब क्या कहेंगे कि पत्रकार जैसे दायित्व पूर्ण व्यक्‍ति‍ हो कर मुजरिम के कटघरे में खड़े हो? कानून तोड़ने वालों की सुर्खियां छापते हो, सरकार को भाषण देते हो- समाज पर लेख लिखते हो और खुद कानून तोड़ते हो? इससे पहले कि मैं शर्म से डूब मरने की ओर तेज़ी से बढ़ने लगता डूबते को पूर्व प्रधानमंत्री के नाम के तिनके का सहारा मिल गया। अरे हमारे राव साहब पर इतने केस चल रहे हैं, इतने आरोप लग रहे हैं उनके चेहरे की चमक जब कम नहीं हुई तो तू शर्म में कैसे डूब जाएगा भला? पर राव साहब को बार-बार ज़मानत मिल रही है तो शायद मुझे भी जज चेतावनी देकर छोड़ दे। मेरा दोष यह है कि मैंने हैलमेट नहीं पहना और मेरा चालान कटा। राव साहव ने ग़लतियां की, घपलों के दोष में उनका चालान कट गया। जब राव को ज़मानत मिल गई तो मुझे भी जुर्माना नहीं होगा- चेतावनी मिल ही जाएगी।

चेतावनी मुझे मिलनी चाहिए तो उनको भी तो मिलनी चाहिए जो ऐसी सड़कें बनाते हैं जिस पर चलते हुए इंसान के सिर से हैलमेट तो क्या, हैलमेट के साथ उसकी खोपड़ी भी उछल कर गिर जाए। उनका चालान कौन काटेगा? उनको सज़ा कौन देगा?

दस मिनट खड़ा न हो सकने वाला मैं ढाई घंटे आंखें और कान कोर्ट रूम की ओर लगाए खड़ा रहा पर हम मुजरिमों को आवाज़ ही न पड़ रही थी। वहां यह जान कर तसल्ली हुई कि मेरे अतिरिक्‍त अनेक ऐसे गणमान्य नागरिक चालान हाथ में ले कर व्यवस्था की खिल्ली उड़ा रहे थे जो अपनी पुलिस की पहुंच पर कभी इतराया करते थे। पुलिस की दोस्ती उनके भी काम नहीं आई थी। ‘मुजरिमों’ के पूरे हुजूम ने हो हल्ला करते हुए पहले लाइन में लग कर रिकॉर्ड पर दस्तख़त किए और फिर जज साहब के कमरे के बाहर कतारबद्ध हो गए। हम सभी नागरिक उस वक़्त मात्र स्कूटर के नम्बर हो कर रह गए थे। स्कूटर के नम्बर पुकारे जाने लगे। सी.जे.एम महोदय ने स्कूटर नम्बर के मुताबिक़ एक जुर्म के लिए 100 रुपए, दो के लिए दो सौ, तीन के लिए चार सौ, इस प्रकार जुर्माना सुना दिया। उनके मातहत अधिकारियों ने जुर्माने का धन समेट कर उस पर रबड़ बैंड चढ़ाया और सभी के हाथ में रसीदें थमा कर तीन बजे तक सभी को फारिग कर दिया।

मेरी शर्मिंदगी उड़न छू थी और उसकी जगह हैरानी थी। जज महोदय ने किसी से न कोई सवाल किया न जिरह। पीला पर्चा ही काफ़ी था इंसाफ़ करने के लिए। दो-चार व्यक्‍त‍ि जिनमें एक आध वकील था और एक आध वो अजीज़ जो बिना जुर्माना भरे चालान भुगत कर वहां से निकल आये।

अब हमें पता चला कि हमारे लिए हैलमेट कितना ज़रूरी है और व्यवस्था को चलाने के लिए उनके लिए जुर्माने की रकम? रहा सवाल हैलमेट के नीचे वाले जनता के सिरों का उनका मालिक उनका भगवान्, वाहेगुरु, खुदा तो है ही। अब अंत में एक अंतिम बात और, अगर मुझ पत्रकार का चालान न कटता तो क्या मैं इतना सबकुछ सोचता- इतना सब लिखता? यक़ीनन नहीं, क़लम की क़सम खाकर झूठ नहीं बोलूंगा।

अंत में पुलिस और प्रशासन से निवेदन करूंगा कि हम पत्रकारों को कभी बख़्शा न जाए। हमें उन सभी मुसीबतों में डाला जाए जिन में से आम आदमी को नित्य गुज़रना पड़ता है ताकि हम उनकी कठिनाइयों को खुद भोग कर अख़बार में कम से कम आप बीती तो प्रकाशित करें।

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