-रिपुदमनजीत ‘दमन’

कुछ समय पहले की बात है। हमने सिर से लेकर पैरों तक काला ड्रेस पहन रखा था। काला कश्मीरी कढ़ाई वाला चूड़ीदार और कुरता, काली ही मख़मल की कामदार पंजाबी पटियाला शाही जूती, काला छाता और काले ही गॉगल्ज़। हम सड़क पर पैदल ही जा रहे थे तभी क़रीबन एक छः या सात वर्ष का लड़का भागता हुआ हमारे सामने आ खड़ा हुआ और निहायत ही नटखट अंदाज़ में गाने लगा, “गोरे-गोरे मुखड़े पे काला-काला चश्मा…।” हमने मुस्कुरा कर उसका हाथ थाम लिया। वह हाथ छुड़ा भागने की चेष्टा करने लगा तो हमने हाथ और कस कर पकड़ लिया और बोले, “अरे! अरे! आप तो बहुत बढ़िया गाते हो। पूरा गाना गाओ न।” शायद ये सब उसकी आशा के विपरीत हुआ था। वह भयभीत स्वर में बोला, “माफ़ कर दीजिए आंटी फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा।” “माफ़ी किस बात की बेटे? हमें तो आपका गाना अच्छा ही बहुत लगा। गाओ न।” जब देखा कि मारे डर के उसकी हालत पतली हो रही है हमने उसका हाथ छोड़ दिया। वह ऐसे भागा जैसे घोड़ा दुम दबा कर भाग रहा हो। साथ ही मुड़-मुड़ कर पीछे भी देख रहा था जैसे उसे ख़तरा हो, हम पीछे जाकर उसे पकड़ न लें।

इसके कुछ दिन बाद फिर एक ऐसी ही परिस्थिति से दो-चार होना पड़ा। उस दिन एक बच्चा जो कठिनता से तीन या साढ़े तीन वर्ष का होगा अपनी मां का हाथ छोड़कर भागा और हमारे दुपट्टे का छोर पकड़ लिया। फिर आंखों में शरारत भर गाने लगा, “ले पप्पियां जफ़्फियां पा ले…।” उसकी इस नटखट हरकत पर हमें इतना प्यार आया कि हमने वहीं सड़क पर बैठ उसे अपनी बांहों में भर उसकी सच में ही पप्पी ले ली। वह कसमसा कर हमारी बांहों की जकड़ से निकलने की कोशिश कर रहा था और साथ में मम्मी-मम्मी कहता अपनी मां को पुकार रहा था। हम थे कि उसे छोड़ नहीं रहे थे। उसकी मां भी इस दृश्य का मज़ा ले रही थी। हमने कहा, “आप डर क्यों रहे हो बच्चे? हमने तो वही किया जो आपने हमको करने को कहा।” हम सोच रहे थे कि फ़िल्मी गीत भी किस क़दर हमारी ज़िंदगी पर हावी हैं। मनचले युवक तो ऐसी हरकतें करते ही हैं पर यहां तो हाल ये है कि, “बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुब्हान अल्लाह।” देखा जाए तो फ़िल्मी गीत हमारे जीवन का अटूट अंग बन चुके हैं।

हमें आज भी याद है एक दिन हम कॉलेज जाने के लिए निकले तो स्कूटर स्टार्ट नहीं हुआ। सोचा थोड़ा आगे चल कर रिकशा ले लेते हैं। अभी आठ दस क़दम ही चले थे कि न मालूम कहां से पांच छः मेडिकल कॉलेज के छात्रों ने हमें आ घेरा और गाने लगे, “लाल छड़ी मैदान खड़ी…. ।” दरअसल उस दिन हम लाल साड़ी पहने थे। मारे घबराहट के हम पसीना-पसीना हो रहे थे। तभी जाने कहां से हमारा भाई मसीहा बन आ टपका। उसे देख वे लड़के ऐसे भागे जैसे गधे के सिर से सींग ग़ायब। हमारी जान में जान वापिस आई। उस घटना के बाद हमने कानों को हाथ लगाया और मन ही मन क़सम खाई कि अब सड़क पर अकेले और वह भी लाल साड़ी पहन कर कभी नहीं निकलेंगे।

जब से टाकी अस्तित्त्व में आई तो फ़िल्मी संगीत का भी उद्गम हुआ। कोई भी समारोह हो हर स्थान पर फ़िल्मी संगीत का ही बोलबाला है। देखा जाए तो व्यक्ति के जीवन और फ़िल्मी गीतों का “चोली दामन का साथ है।” समस्या तो यह है कि कैसे इन गीतों का उपयोग सही समय और सही अवसर पर हो। ग़लत गीत ग़लत समय गाएं या बजाएं तो कॉमेडी को जन्म देते हैं।

हमें अभी तक याद है जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो स्कूल से लौटते समय एक मय्यत देखी जिसके आगे-आगे बैंड-बाजे वाले एक बहुत ही पुराने गीत की धुन बजा रहे थे जिस के बोल थे, “चल-चल रे नौजवान….।” बाद में पता चला कि वह मय्यत एक ऐसे उम्र दराज़ बुज़ुर्ग की थी जो अपने जीवन का शतक पूरा करके इस संसार से रुख़सत हो रहे थे। जब ऐसी घटनाएं देखने सुनने को मिलती हैं तो दिल बेसाख्ता हंसने पर मजबूर हो जाता है। देखा आपने, कैसे ग़लत गीतों का चुनाव ग़लत समय पर कॉमिक वातावरण को जन्म देता है।

व्यक्ति का जीवन और फ़िल्मी गीत तो जैसे एक दूजे का प्राय ही बन कर रह गए हैं आज कल। अब प्रॉब्लम ये है कि कैसे इनका सही यूज़ हो। कोई शादी ब्याह हो तो दूल्हे के मित्र और रिश्तेदार बारात के आगे-आगे गाते नाचते चलते हैं, “आज मेरे यार की शादी है….।” जब से फ़िल्म “दिल वाले दुलहनियां ले जाएंगे” आई तो, “मेंहदी लगा के रखना, डोली सजा के रखना….” का ज़्यादा क्रेज़ बन गया। “सलामे इश्क” ने तो पिछले सारे गीतों के रिकॉर्ड ही तोड़ दिये, “हीरिये सेहरा बांध के मैं तो आया रे….” के पीछे तो जैसे सब दीवाने ही हो गए। यह तो हुआ सही गीतों का सही समय पर चयन। परन्तु कुछ समय पहले एक और शादी में डोली के समय स्वर्गीय शिव कुमार बटालवी का गीत गूंज उठा, “जदों मेरी अर्थी उठा के चलनगे मेरे यार सब हुम-हुमा के चलनगे।” तभी एक मोहतरमा को बहुत क्रोध आया। वह ग़ुस्से में लाल-नीली हो म्यूज़िक सिस्टम पर जो व्यक्ति बैठा था उस पर बरस पड़ी, “क्यों भई से क्या हिमाक़त है? कहां तो शादी का इतना खुशी भरा माहौल और तुमने यहां मौत का सामान कर दिया।” वह पलट कर बोला, “माफ़ कीजिएगा मैडम इसमें मेरी कोई ग़लती नहीं है। मैंने तो “बाबुल की दुआएं लेती जा….” और “चल री सजनी अब क्या सोचे….” की कैसेट निकाल कर रखी थी कि तभी दूल्हे के कुछ मित्र आये और अपनी पसंद के गीत बताने आ धमके। मुझे लगता है कि यह उन्हीं लोगों की बदमाशी है। वही शायद कैसेट बदल गये।” वह निहायत ही मासूमियत से बोला। मैंने तो यही दोनों सी. डी. निकाल के रखी थीं ताकि सब की आंखों में आंसू आ जाएं। आप तो जानती ही हैं कि विदाई का समां कितना ट्रेजिक होता है जब दुलहन अपना मायका छोड़ ससुराल के लिए विदा होती है। अब ये भी किसी से छुपा नहीं कि दुलहन इसलिए नहीं रोती कि कहीं उसका हज़ारों रुपयों का मेकअॅप न धुल जाए और मेहमान महिलाएं इसलिए नहीं रोती कि कहीं उनका मेकअॅप न धुल जाए और उनके असली चेहरे सामने न आ जाएं ताकि बाद में पतियों और बच्चों को अपनी पत्नियों और माओं को पहचानना कठिन हो जाए।” उसने सफ़ाई दी। 

उधर दुलहन के घर में भी कुछ ऐसा ही माहौल होता है। जब “याराना” और “हम आपके हैं कौन” फ़िल्में आईं तो बस हर जगह “मेरा पिया घर आया ओ राम जी….।” “माएं नी माएं मुंडेर पे तेरी बोल रहा है कागा…।” या “पैसे दे दो जूते ले लो…. ।” या “दीदी तेरा देवर दीवाना हाय राम कुड़ियों को डाले दाना….” जैसे गीत बजना लाज़मी हो गया। कहीं लेडी संगीत हो तो “मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां हैं….।” एक अलग ही समां बांध देता है। मेहंदी की रस्म हो या रोका हो या ठाका, रिंग सेरेमनी हो या रिज़ल्ट आने की पार्टी हो या फिर प्रोमोशन की, नौकरी में सिलेक्शन हुई हो या फिर किसी ने मेडिकल या इंजीनियरिंग का टेस्ट पास कर लिया हो, किसी ने एम. बी. ए. कर ली हो कोई प्रशासनिक सेवाओं में सिलैक्ट हो गया हो या फिर किसी को कम्प्यूटर इंजीनियरिंग की डिग्री मिल गई हो सभी खुशियां मनाने के लिए फ़िल्मी गीत एक आवश्यकता बन गए हैं। पीछे लम्बे अर्से तक “शावा शावा”, “मौजां ही मौजां”, “मस्त कलंदर” और “नगाड़ा नगाड़ा” का भी बोलबाला रहा। जहां सब छोटे बड़े क्या बच्चे और क्या युवा, क्या अधेड़ और क्या बूढ़े, क्या लड़कियां, क्या युवतियां और महिलाएं पूरे जोश-ख़रोश से भाग लेते हैं, कोई क्या सोचता है किसी को इसकी परवाह नहीं होती। किसी की बांहें पूर्व की ओर जा रही होती हैं तो किसी की जांघें पश्चिम की ओर। सभी पर जैसे एक नशा चढ़ा होता है। सब अपने अपने ढंग से अपनी प्रसन्नता का इज़हार करते हैं और एक अजब नशीला सा समां बंध जाता है। एक आम आदमी के लिए, व्यक्ति के लिए फ़िल्मी संगीत वरदान साबित हुआ है। अमीर लोग तो ऐसे समारोहों में प्रसिद्ध गायकों को बुला लेते हैं या ऑर्केस्ट्रा अरेंज कर लेते हैं जो एक मामूली हैसीयत वाले के बूते की बात नहीं।

हाल ही में एक और दिलचस्प माजरा पेश आया। एक बुज़ुर्ग की मय्यत के साथ जाने का अवसर प्राप्त हुआ। संस्कार से पहले जब अन्तिम दर्शनों के हेतु चेहरे से कपड़ा हटाया गया तो अकस्मात् किसी का सेल फ़ोन बज उठा, “तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे चश्मे बद्दूर।” सोचिए, ज़रा कहां तो इतना ग़मगीन माहौल और कहां सभी मुंह छुपा-छुपा कर हंस रहे थे।

एक बार तो हद ही हो गई। यह घटना तो हमें लाख भुलाने से भी नहीं भूलती। वर्षों पहले जब हम विवाह बंधन में बंध अपने सुसराल आए तो अगले दिन ही वहां हिजड़े नाचने आ पहुंचे। आते ही उन लोगों ने पहले हमारी खूब बलैया ली, आशीर्वाद दिया और फिर गाने लगे, “दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे, ग़ज़ब भयो रामा ज़ुल्म भयो रे…. ।” मेरिया रब्बा वो दृश्य देखने योग्य था। हमारी सासू मां तो मारे क्रोध के लाल-पीली हो दहाड़ कर बोली, “ये लो अपने पैसे और अभी के अभी यहां से नौ दो ग्यारह हो जाओ। दफ़ा हो जाओ मेरी आंखों के सामने से। फिर कभी अपनी मनहूस शकलें मुझे मत दिखाना। अभी जुमा-जुमा कल ही तो मेरे बेटे की शादी हुई है। अभी तो मेरी गुड़िया सी बहू के ससुराल में शगुन भी पूरे नहीं हुए हैं और आप लोग हैं कि गला फाड़-फाड़ कर आलाप रहे हो, “दो हंसो का जोड़ा बिछुड़ गयो रे… ” उन लोगों ने लाख हाथ पैर जोड़ माफ़ी मांगी लेकिन हमारी सासू मां भी एक नम्बर की ज़िद्दी। जितनी वह माफ़ी मांगते उतना ही उनका ग़ुस्सा और भड़कता जा रहा था। उनका यह रौद्र रूप देख उन लोगों ने सिर पर पांव रख कर भागने में ही ग़नीमन समझी।”

वर्षों बीत गये इस घटना को घटे परन्तु हमारे मानस-पटल पर ये दृश्य आज भी ऐसे अंकित है मानों कल की ही बात हो। तो हुज़ूर यह हैं जल्वे फ़िल्मी गीतों के। यदि ये सही समय और सही मौक़े पर गाये जाएं तो इनका कोई सानी नहीं लेकिन ग़लत समय पर गाये गीत ट्रेजडी को भी कॉमेडी में बदल देते है और हो जाती है “कॉमेडी ऑफ ऐरर्ज़।”

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