विज्ञापनों का विस्तृत और व्यापक मायाजाल इन्द्रलोक सा आकर्षण रखता है। जिसके मायावी प्रभाव से कोई भी बच नहीं सकता। अमिताभ बच्चन जैसे महानायक से लेकर किंग खान तक, विश्‍व सुंदरियों से लेकर फ़िल्मी नायिकाओं तक को बड़े पर्दे से लेकर छोटे पर्दे तक तेल बेचते देखा जा सकता है। विज्ञापन आज जिस प्रकार से बनाए और दर्शाए जा रहे हैं उनके आकर्षण के प्रभाव से बच पाना नामुमकिन है। लगभग हर लोकप्रिय फ़िल्मी तारिका लक्स साबुन के विज्ञापन में दिखाई दे चुकी है मगर उनकी खूबसूरती का असली राज़ कौन-सा ब्यूटी सोप है यह तो हेमामालिनी, राखी, रेखा और डिम्पल कपाड़िया से लेकर करिश्मा और करीना कपूर तक सारी तारिकाएं शायद आज तक दुनिया से छुपाए हुए हैं। डैंडर्फ के लिए शैम्पू की न जाने कितनी बिक्री बिपाशा बसु ने बढ़ाई होगी। ‘खाओ गगन रहो मगन’-‘दुनिया का सबसे छोटा ए.सी. ठण्डा ठण्डा कूल कूल’-‘क्या आपके टूथपेस्ट में नमक है ?’-‘उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे ?’-‘नेबर्स एनवी, ऑनर्स प्राईड’-‘मैंने तो अपना टूथपेस्ट बदल दिया है, आप कब बदल रहे हैं ?’ विज्ञापन सलोगन जिस खूबसूरती से फ़िल्माए जाते हैं उतनी ही मस्ती में गुनगुनाए जाते हैं। विज्ञापनों का चकाचौंध भरा मायाजाल बड़ी ही आसानी से ग्राहकों को कम्पनी के जाल में फंसा डालता है। बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियां देश की लोकप्रिय हस्तियों को अपना ब्रांड एम्बैसेडर बना लेती हैं। ब्राण्डिंग के बदले उन लोकप्रिय खिलाड़ियों, कलाकारों व फ़िल्मी सितारों को लाखों करोड़ों का भुगतान करती हैं। क्रिकेट के मैदान में चौके- छक्के लगाकर खून पसीना एक करके एकदम पॉप्युलॅर हो जाने वाले सचिन, धोनी, सहवाग, युवी जैसे क्रिकेटर जहां धकधक गो होते नज़र आते हैं वहीं रानी मुखर्जी से लेकर बिपाशा बसु तक, कैटरीना से लेकर करीना कपूर जैसी फ़िल्मी हसीनाएं पर्दे पर सेल्ज़ गर्ल बनी ग्राहक लुभाती नज़र आती हैं। ‘कली से भी कोमल लगे तेरा छू के गुज़र जाना’, पांच रुपये वाला बोरो प्लस लगाने की सलाह करीना जैसी लड़की दे तो बोरो प्लस भला बिकने से रह पाएगी ? तूफ़ानी ठण्डा आज थम्ज़अॅप ही माना जाता है। आम की प्यास बुझाने के लिए माज़ा ही चाहिए, पागलपंथी के लिए मरिण्डा तो ताज़गी में डूबने के लिए लिम्का। आज विज्ञापनों में दिखने का मतलब भी बदल रहा है। जिस फ़िल्म स्टार के पास कोई फ़िल्म नहीं उसके पास कोई विज्ञापन भी नहीं। टॉप ब्रांडज़ का दूत बनने का मतलब उसकी स्टार सुपरमेसी बरक़रार। आज पॉप्युलैरिटि कैश करने व क्रेज़ बढ़ाने के लिए सितारे छोटे पर्दे पर उतरने की भी रेस लगाते हैं। कई पुराने सितारों की जहां रोज़ी रोटी चलने लगती है वहीं कइयों को पुन: पॉप्युलैरिटि मिल जाती है। अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन व ऐश्‍वर्य राय ने अपने स्टार स्टेटॅस को निरन्तर ऊंचा रखने के लिए अपनी लोकप्रियता का सर्वाधिक दोहन किया है।

अमिताभ बच्चन परिवार के बाद किंग खान, सल्लू मियां, आमिर खान, अक्षय कुमार भी छोटे पर्दे पर अपना बड़ा स्थान बना चुके हैं। नायिकाओं में करीना कपूर से कैटरीना कैफ का विज्ञापनों में भी मुक़ाबला हुआ। दोनों की खूबसूरती को कैश करने में कम्पनियों में होड़ लगी रही। बिपाशा बसु, रानी मुखर्जी, काजोल और जूही चावला भी अपना आकर्षण बनाए रखा। जूही चावला ने अपने कॉमिक् अंदाज़ में कुरकुरों का स्वाद इतना बढ़ा दिया कि अंकल चिप्स तक को जूही आंटी ने भुला दिया। काजोल ने जितना फ़िल्मों में दम दिखाया उतना चाहे विज्ञापनों में नहीं दिखाया मगर उसने भी सोए ग्राहकों को जगाने का दम दिखा दिया। प्रोफ़ैशनलिज़्म की हद तो यह है कि उत्पादन बेचने वालों ने किरण बेदी जैसी शख़्सियत को मॉडलिंग में घसीट लिया है। हालांकि वे वॉशिंग पाउडर के लिए मॉडलिंग करती भली प्रतीत नहीं होती मगर वे भी विज्ञापन के मायाजाल से बच नहीं सकी। विज्ञापन की दुनिया में जितना महत्त्व फ़िल्मी सितारों को मिला है उससे कहीं ज़्यादा महत्त्व क्रिकेट के सितारों को मिला है। कई बार तो फ़िल्मी नायक क्रिकेट नायकों के साथ विज्ञापनों में नज़र आए हैं। अब तो यूं जान पड़ता है कि फ़िल्मों की मायानगरी ने विज्ञापनों की दुनिया पर भी क़ब्ज़ा कर लिया है। फ़िल्मों का नंगापन अब विज्ञापनों में भी दिखने लगा है। अश्लीलता और भौंडेपन में तो कई विज्ञापनों ने फ़िल्मों को पीछे छोड़ दिया है। कल्पना और अतिश्योक्ति तो सदैव विज्ञापन का सहारा रहे हैं मगर अश्लीलता कई बार तमाम मर्यादाएं पार करती नज़र आती है। विज्ञापन अच्छे व हैल्दी संदेश वाले हों तो ऐसा नहीं कि वे लोकप्रिय नहीं होते। टाटा उत्पादों के विज्ञापन आमतौर पर सही संदेश प्रसारित कर रहे होते हैं। ‘अगर आप वोट नहीं कर रहे हैं तो समझिए आप सो रहे हैं’ , नेता पूछता है कैसा जॉब ? देश को चलाने का जॉब। देश को चलाने वालों के पास न तो कोई क़ाबिलीयत होती है न कोई तर्जुबा बस दादागिरी करते-करते नेतागिरी की लत लगा बैठते हैं लोग ।

विज्ञापनों के बढ़िया रिज़ल्टों से प्रभावित होकर तो अब देश चलाने वाली मुख्य पार्टियां जहां विज्ञापन कंपनियों का सहारा ले रही हैं वहीं देश व प्रदेश की सरकारें अपनी तथाकथित प्राप्तियों का ढिंढोरा पीटने के लिए भी विज्ञापनों का सहारा लेती हैं। क्योंकि उनका यह विश्वास पक्का हो गया है कि उनकी लोक लुभावन, जल कल्याण योजनाओं का पता तो लोगों को विज्ञापनों से ही चलेगा अन्यथा वास्तव में तमाम स्कीमों का लाभ रास्ते में भ्रष्ट लोगों द्वारा ही लूट लिया जाता है। विज्ञापनों का आरम्भ व्यवसाय स्थल के बाहर लगने वाले बोर्ड से होता है।उसके उपरान्त प्रसार के लिए प्रचार हैंड बिल दीवार लेखन से शुरू होकर रेडियो, टी.वी, अख़बार, पत्र-पत्रिकाओं से होता हुआ चैनल्ज़ तक सामर्थ्य के अनुसार चलता है। सुनने-सुनाने, देखने-दिखाने, पढ़ने-पढ़ाने वाले तमाम वर्ग के विज्ञापन अपनी-अपनी जगह कारगर साबित होते हैं। एम.बी.डी ग्रुप ने अपने प्रसार का माध्यम वॉल पेंटिंग को बनाया था। देश के कोने-कोने में एम.बी.डी का विज्ञापन दीवारों पर लिखा दिखाई देता था। दूर-दूर पहाड़ी क्षेत्रों में भी एम.बी.डी दीवारों पर लिखा गया। दीवारों पर लिखा गया एम.बी.डी आज हर विद्यार्थी के दिल में एक संकट मोचक की तरह से बस गया है। कोल्ड ड्रिंक्स के अस्तित्त्व पर आया प्रतिबंध का संकट बार-बार प्रचार के व्यापक माध्यमों से ही दूर हुआ। लैब में होते केमिकल परीक्षणों में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध होने के बाद भी फ़िल्मी सितारों ने विज्ञापनों में अपने संदेश प्रसारित करके उनकी लोकप्रियता और बिक्री के ग्राफ़ को पुन: आसमान पर पहुंचाया। विज्ञापन की असीम शक्ति और व्यापक प्रभावों का अनुमान डोकोमो के तत्काल और तत्पर ब्राण्ड रूप में स्थापित हो जाने के रूप में मिल जाता है। किसी भी उत्पाद को एक ब्राण्ड बनाने में विज्ञापन की भूमिका एक सर्वशक्तिमान स्वरूप ही नज़र आती है। विज्ञापन आज मार्किटिंग की आधारशिला हैं। आज अपने उत्पाद को हॉटकेक सेलिंग ब्राण्ड बनाने के लिए विज्ञापन पर आने वाला ख़र्च जब उत्पाद की क़ीमत में जुड़ता है तो उत्पादन लागत से भी कहीं ज़्यादा नज़र आता है। वही उत्पादन बिना विज्ञापन अपनी श्रेष्ठ गुणवत्ता के साथ उपभोक्ता को कहीं कम क़ीमत में उपलब्ध हो सकता है मगर वक़्त और दुनिया के साथ चलने वाला, उपभोक्ता भेड़चाल में शामिल हो सिर्फ़ प्रचारित ब्राण्ड महंगा होने के बावजूद ख़रीदेगा। क्योंकि विज्ञापन द्वारा उसका माईण्ड ब्राण्ड माइन्डिड हो जाता है। यहां पर आकर जागो ग्राहक जागो का नारा भी नकारा हो जाता है। विज्ञापन एक ऐसा प्रचार अभियान है जिसका मायाजाल तोड़ पाना अति कठिन है। ऑनर्स प्राईड की शायद पहली मांग नेबर्स एनवी को पूरा करने के लिए ग्राहक ऊंचे दाम भरने के लिए तत्पर रहता है। बाज़ार की गति का स्टियरिंग आज विज्ञापन इंडस्ट्री के हाथ में है और विज्ञापन स्लोगन पर ही विज्ञापन की आत्मा बसती है। जिस अंदाज़ में मॉडल्ज़, सितारे और सुंदरियां विज्ञापन में उत्पाद को दर्शाती हैं और ग्राहक को उकसाती हैं। उसके प्रभाव से अछूता रहना मुश्किल होता है। विज्ञापन में जो क्रिएटिविटी होती है वही दर्शक को ग्राहक में तबदील करती है इसलिए विज्ञापन का पॉज़िटिव होना ही अनिवार्य है। आज विज्ञापन उद्योग के कंधे पर उपभोक्ता के प्रति जो नैतिक दायित्व है उसे अवश्य निभाना होगा।

विज्ञापन में कल्पना और अतिश्योक्ति का समावेश ग्राहक के साथ धोखा या धोखे समान व्यवहार ही है। अगर उसमें व्लगैरिटी को भी शामिल कर दिया जाए तो इसे क्या कहा जाएगा ? एक मॉडल डॉक्टर के भेस में कोई टूथपेस्ट सॅजैस्ट करता है तो क्या उसके उस मशवरे की कोई अहमियत हो सकती है ? विज्ञापन क्या ऐसी स्थिति में एक हसीन धोखा नहीं ? बच्चों को हाफ टिकट जैसे अलंकार देकर अपने उत्पाद को महिमा मण्डित करना क्या स्वस्थ मार्किटिंग के अन्तर्गत सही माना जा सकता है। टूथपेस्ट के हज़ारों कूलिंग क्रिस्टल घर में दांत ब्रश करते समय क्यों दिखाई नहीं देते ? एक तूफ़ानी ठण्डे के लिए उठाए जाने वाले फ़िल्मी सितारों के जोखिम भरे दृश्य आख़िर किस लिए ? नारी देह प्रदर्शन के बिना किसी भी उत्पाद के विज्ञापन की आज कल्पना भी बेमानी सी हो गई है। अब सीमेंट की बोरी बेचने के लिए कोई सीमेंट कंपनी समन्दर से निकलती बिकनी में छोरी दिखाएगी तो ग्राहक सीमेंट की मज़बूती के बारे में भला कैसे जान पाएगा ? विज्ञापनों पर एक गहरी नज़र डालने पर एक सवाल सहज ही मन में रेंगने लगता है कि क्या विज्ञापन भी सिर्फ़ मनोरंजन के लिए बनाए जाते है ? विज्ञापन का मतलब मनोरंजन तो क़त्तई ही नहीं।

दूसरी बात विज्ञापन में अतिश्योक्ति का प्रदर्शन कहां तक उचित है ? प्रतीकात्मक कल्पना तो किसी हद तक स्वीकार्य हो सकती है मगर उत्पाद और कंपनी की गुणवत्ता और विश्वसनीयता को सातवें आसमान पर पहुंचाने वाली अतिश्योक्ति से निश्चय ही बचना होगा। ग्राहक बनाने के लिए कन्विन्स करने की हर हद गवारा हो सकती है मगर दिग्भ्रमित करके ग्राहक बनाने की ग़लत वृत्ति से विज्ञापन जगत को परहेज़ रखना होगा।

विज्ञापन ख़र्च पर नज़र दौड़ाई जाए तो उत्पादन निर्माता को मिलने वाले मुनाफ़े से कहीं ज़्यादा मुनाफ़ा तो विज्ञापन कम्पनियों व उनके लिए मॉडलिंग करने वाले फ़िल्मी सितारों व क्रिकेटरों को पहुंचता है। उन सब के ख़र्चों का भारी भरकम बोझ पड़ता है उत्पाद के उपभोक्ता पर। धन्य है बेचारा उपभोक्ता अपने सीमित साधनों से उन असीमित ख़र्चों का भारी भरकम बोझ झेल रहा है और आगे भी हमेशा झेलता रहेगा। उपभोक्ता कानून की औपचारिकताओं में जागो ग्राहक जागो की धुन यूं ही पंचम सुर में सुनने के बाद भी अनसुनी होती रहेगी।


आज विज्ञापन के महत्त्व ने मीडिया के समक्ष भी एक यक्ष प्रश्‍न खड़ा किया है कि उसे पाठक प्यारा है या विज्ञापनदाता, उसे दर्शक प्यारा है या विज्ञापनदाता ? मीडिया का प्रोफ़ैशनलिज़म के दौर में आज जवाब यही है कि उसे दोनों ही प्यारे हैं। उसके लिए अनिवार्य ही नहीं एक दूसरे के प्रति पूरक भी हैं। प्रसार संख्या के बिना विज्ञापनदाता भी मेहरबान नहीं होता। अगर मीडिया को दर्शक प्रिय न होते तो क्या वे उसे आकर्षित करने के लिए इतने प्रयत्न करता। अगर, प्रिंट मीडिया को पाठक प्रिय न होता तो क्या वो उसे आकर्षित करने के लिए इतनी मुशक्कत करता ? 14 रुपए प्रति पत्र घाटा उठाने के बाद भी अपने पाठक को उपहारों से लादना उसकी प्राथमिकता का ही सजीव प्रमाण है। विज्ञापन जगत् और उद्योग और व्यवसाय जगत् द्वारा रचा गया यह एक ऐसा चक्रव्यूह है जिसमें उपभोक्ता अभिमन्यु की भान्ति फंसा रहेगा।

 


 

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