शाम 6 बजे-(ग़ैर छुट्टी वाला दिन) हम दफ़्तर से लौटे तो ज्वालामुखी सी फटने को तैयार पत्नी ने हमें पानी के गिलास की जगह बिजली का बिल पकड़ाते हुए खूंखार अंदाज़ में गुर्राते हुए कहा, “देख लो, बिजली का कितना बिल आया है हमारा?”
“कितना आया है माड़ू की मां?”
“पूरा हज़ार रुपये।”
“फिर क्या हुआ, पहले भी तो आता ही था इस के क़रीब।”
“लेकिन पड़ोसियों का बिल देखा है, सौ रुपये भी नहीं ….. चौबीसों घंटे कूलर, फ्रिज, पंखे, टी.वी., हीटर, प्रैस, वॉशिंग मशीन और पता नहीं क्या-क्या चलता रहता है उनका, बिल फिर भी सौ रुपये और एक हम हैं सारे एक ही पंखे के नीचे गर्मी में तन्दूरी मुर्ग की तरह भुने जाते हैं, कपड़े भी धोबी से प्रैस कराते हैं पूरा सर्फ़ा करके भी इतना बिल, तुमने कभी इस ओर ध्यान दिया है।”
“न अब तुम्हारी क्या सलाह है कि मैं भी पड़ोसियों की तरह मीटर खड़ा कर दूं या कुंडी लगाऊं – नहीं माड़ू की मां, मुझ से ऐसा नहीं होगा, मेरे असूल नहीं इजाज़त देते मुझे।”
“कुछ नहीं लोगो, ये बंदा नहीं किसी काम का। मेरे लिए ही पैदा किया था इसकी मां ने ये तोहफ़ा असूलों वाला।” पत्नी ने माथा पीटते हुए अपनी क़िस्मत को कोसा।
प्रातः 8 बजे-(ग़ैर छुट्टी वाला दिन) “माड़ू की मां, ज़रा जल्दी से मुझे नाश्ता देदे और साथ में लंच भी पैक कर दे, मुझे दफ़्तर जाने में देरी हो रही है।” “तुम निकम्मों को तो किसी काम की न काज की। सुबह ही दफ़्तर जाकर बैठ जाते हो। वह तुम्हारा साथी है – क्या नाम है उस खसमें नू खाणे का – नारंगी का बाप – मैंने तो उसे कभी टैम सिर दफ़्तर जाते नहीं देखा।”
“वह समय पर जाये या न जाए, पर ये मेरे अपने असूल हैं, मैं उन्हें नहीं तोड़ सकता।”
“तुम्हारे असूलों का मैंने दूध दोहना है, इसी समय बच्चों को भी स्कूल जाने की जल्दी होती है, आदमी घर के काम में थोड़ा हाथ ही बटा देता है, वो नारंगी का बाप, बच्चों को नहला-धुला तैयार करके, नाश्ता करवा कर, स्कूल छोड़कर और घर के सौ छोटे-मोटे काम संवार के फिर जाता है ऑफ़िस, एक तुम हो निठल्ले, न घर में तिनका दोहरा करते हो, और जो ऑफ़िस में तारे तोड़ते हो, वह मुझे भी पता है।”
“देख माड़ू की मां, मैं किसी से ओए सुनने वाला बंदा नहीं, बिना मतलब लेट जाकर साहिब की झिड़कियां सुनते रहो।”
“न जो वह नारंगी का बाप रोज़ ही तुम्हारा बाप पूरा एक घंटा देरी से जाता है, इसे कुछ नहीं कहता, तुम्हारा साहिब।”
“वो तो शेमप्रूफ है ‘जब उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई’ वाला हिसाब है उनका, बहुत बेइज़्ज़ती होती है उसकी – ढीठ कहीं का।”
“मैं तो कहती हूं, तुम तो उससे भी ज़्यादा ढीठ हो, तुम पर कौन-सा असर होता है मेरी किसी भी बात का। मेरी तो क़िस्मत ही फूट गयी, तुम्हारे संग फेरे ले के।” पत्नी ने पहाड़ जैसी सांस छोड़ी।
दफ़्तर-(सवेरे 10 बजे) “देखो, रिश्वत सिंह लम्बी छूट्टी पर गया है, इसलिए ज़रा उसकी सीट भी देख लेना।” साहिब ने हमें हिदायत की। “ठीक है जी देख लूंगा, आप बिल्कुल चिंता मत करें जी।”
“फिर भी ज़रा ध्यान से, तुम्हें अभी उस सीट पर काम करने का तजुर्बा नहीं है।”
“साब, आप मुझ पर छोड़ दें, किसी शिक़ायत का मौक़ा नहीं मिलेगा आपको सर।” फिर हमने रिश्वत सिंह की मेज़ पर लम्बे समय से धूल फांकती फाइलों के ढेर की झाड़-पोंछ की फिर अपनी कार्यकुशलता का सबूत देने के लिए, सारा दिन सिर तोड़ मेहनत करके आधे से ज़्यादा फाइलें निपटा दीं, जो चिरलम्बित पड़ी थीं फिर ऐसी फाइलों का बंडल उठा कर अपने पर गर्व करते हुए हम साहिब के पास पहुंचे कि साहिब हमारी कार्यकुशलता से खुश होकर हमें ही इस सीट पर पक्का कर देगा।
“लो सर, मैंने रिश्वत सिंह की मेज़ के आधे से ज़्यादा केस निपटा दिए हैं, अब सिर्फ़ आपके दस्तख़तों की कमी है।” हमने खुशी-खुशी कहा। साहिब यह देख कर हक्का-बक्का रह गया। “ओए बेवकूफ, मैंने तुम्हें सवेरे रिश्वत सिंह की सीट सिर्फ़ ‘देख लेने’ को कहा था तुमने आज ही इतने केस निपटा दिए, तो कल हम क्या मक्खियां मारेंगे, लोगों का दिमाग़ ख़राब करना है, ऐसे तो ये सीट बदनाम हो जाएगी। चलो ले जाओ इन फाइलों को वापिस और ज़रा धूल फांकने दो। तुम्हारे जैसे निकम्मे आदमी से नहीं संभाली जाएगी ये सीट।” इस प्रकार हम निकम्मे आदमी साबित होकर रिश्वत सिंह वाली सीट से हाथ धो बैठे।
शाम 4 बजे-(दफ़्तर से छुट्टी होने से पहले) “जीजा जी, मेरे बेटे ने, आप के ऑफ़िस में चपड़ासी के पद पर नियुक्ति के लिए आवेदन पत्र दिया है। कल ही उसकी ‘इन्टरव्यू’ है। आप के ही दफ़्तर में। लड़का आज शाम को पहुंच जाएगा, आप के पास। आप ज़रा अपने साब से लेन-देन की बात पक्की कर लेना, आप को तो पता ही है, आजकल सारे काम ऐसे ही होते हैं।” साला साहिब ने हमें फ़ोन पर हिदायत की। “बात यूं है साला साहिब, आप को पता ही है, मैं तो वैसे ही लेने-देने के ख़िलाफ़ हूं, आप का लड़का एम.ए. पास है, वह तो पहले ही हाइली क्वालीफाइड है, उस का काम तो वैसे ही हो जाना चाहिए।” हमने उन्हें समझाने की कोशिश की। “जीजा श्री, बहाने क्यों गढ़ रहे हैं आप, अगर आप ने हमारा काम नहीं करवाना तो सीधे-सीधे जवाब दे दो।”
“नहीं साला साहिब ऐसी कोई बात नहीं है जी।”
“और क्या बात होनी है जी, आप किसी का काम संवार नहीं सकते- हमारी दीदी ठीक ही कहती हैं, आप एकदम निकम्मे आदमी हैं जीजा श्री। आप इतना भी नहीं समझते। सारी खुदाई एक तरफ़, जोरू का भाई एक तरफ़।” हमने एक बार फिर अपने ऊपर ‘निकम्मे आदमी’ होने की मोहर लगवा ली।
रात 8 बजे-(घर में) “पापा-पापा, मेरी क्लास का ‘हैप्पी’ है न, उसके पापा, उस के लिए ऑफ़िस से कितने सारे काग़ज़, पैन, पेन्सिल, इंक और पता नहीं क्या-क्या लेकर आते हैं, आपने अपने दफ़्तर से मुझे कभी कुछ नहीं लाकर दिया।”
“माड़ू बेटे, तुझे जो भी चाहिए न, मैं बाज़ार से ला दूंगा, दफ़्तर से ऐसी चीज़ें लाना चोरी होती है बेटा, चोरी करने से पाप लगता है पुत्र।” हमने समझाना चाहा। “पर हैप्पी के पापा को तो कोई पाप नहीं लगता। आप बस वैसे ही बहाने करते हैं। आप हमारा कोई भी काम नहीं कर सकते। मम्मी ठीक ही तो कहती है आप ……….।” माड़ू ने भी हमें निकम्मे होने का प्रमाण पत्र देते हुए कहा।
छुट्टी वाले दिन हमारे पड़ोसी के पहले बेटे का पहला जन्मदिन था। हम शगुन डाल कर लौटने लगे तो पड़ोसी ने हमें ‘झप्पी’ में लेकर दूसरे कमरे में ले जाने की कोशिश की, जहां ‘नॉनवैज पार्टी’ चल रही थी। हम ने दोनों हाथ जोड़ कर उनसे माफ़ी मांगते हुए कहा, “आपको तो पता ही है जी, मैंने कभी ये काम किया ही नहीं।” उन से किसी तरह जान छुड़ा कर गेट से बाहर निकल रहे थे कि पड़ोसी पति-पत्नी का वार्तालाप हमारे कानों में प्रवेश कर गया “माड़ू के पापा को भी पैग-शैग लगवा देना था।”
“भाग्यवान, मैंने तो बहुत ज़ोर डाला, पर माना ही नहीं। कह रहा था कि मैंने ये काम कभी किया ही नहीं।”
“न इस ने आज तक किया क्या है, माड़ू की मां ऐसे ही तो नहीं कल्पती रहती। ये है ही निकम्मा आदमी ……..।”
उनका वार्तालाप सुन कर हमें ग़ालिब का शेयर कुछ इस तरह से याद आया, “असूलों ने हमें निकम्मा कर दिया ‘ग़ालिब’ वरना आदमी हम भी थे काम के।”