-डॉ. अनामिका प्रकाश

प्रसिद्ध आयरलैंड के कवि टॉमस मूर ने लगभग एक शताब्दी पहले लिखा था-

सबसे अच्छा तो यही है कि दिनों को लम्बा करने के लिए, आओ, अपनी रातों के कुछेक पहरों को चुरा लें। कवि की इसी आकांक्षा को आज वैज्ञानिक मूर्त रूप देने में लगे हैं, क्योंकि उन्हें कवि का संदेश आज के संदर्भ में सार्थक लगने लगा है। आज के निद्रा शोधकर्मी, नींद के विषय में स्थापित पुरानी मान्यताओं के ख़िलाफ़ नई चौंकाने वाली थ्यूरीज़ गढ़ रहे हैं। नींद और उससे जुड़े अनेक विषय यथा शारीरिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य, सफलता, आनंद, उत्पादकता और दीर्घायु से चिपके अनेक मिथक आए दिन विस्फोटित हो रहे हैं। आज तक नींद को एक मूल जैविक आवश्यकता समझा जाता रहा है परंतु अब इसी विशिष्ट मुद्दे को एक बार फिर गौर से जांचा-परखा जा रहा है।

प्रयोगकर्ताओं के प्रयोग दिखा रहे हैं कि कम नींद लेकर ही मनुष्य का मस्तिष्क एवं शरीर अविचलित रहकर सामान्य कामकाज कर सकता है। प्रयोगशालाओं के अध्ययन बताते हैं कि नींद की मात्रा या अवधि उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी कि उसकी गुणवत्ता। यदि नींद के बाद आप एकदम तरोताज़ा होकर उठें तो यह साबित करता है कि नींद के कम घंटों के बावजूद भी गुणवत्ता की दृष्टि से आपकी नींद बेहतरीन थी। उदाहरण के लिए आठ घंटे की करवट बदलू नींद के मुक़ाबले, तीन घंटे की गहरी व्यवधानरहित नींद कहीं बेहतर है। इस तथ्य को मद्देनज़र रखते हुए तो अब यही ठीक लगता है कि क्यों न नींद के कुछ घंटे चुराकर उन्हें सृजनात्मक कार्य में लगा लिया जाए। नींद के घंटे कम होंगे, जागने के घंटे ज़्यादा तो कामकाज के लिए समय अधिक मिलेगा ही। कम सोने की आदत डालने से फ़ायदा ही फ़ायदा है। इस फ़ायदेमंद आदत को डालने के विशेषज्ञों ने 14 बिंदुओं की एक सुझाव योजना बनाई है जिस पर अमल करके आप और हम सभी अपनी-अपनी नींद के घंटों को कम करके अपने कामकाज के घंटों की गिनती सचमुच बढ़ा सकते हैं। मज़े की बात यह भी है कि इन सुझावों से ‘हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा-चोखा आए’ वाली बात चरितार्थ होती है। इस आदत को डालने के लिए न तो किसी दवा की आवश्यकता है न किसी तिकड़म की, बल्कि आपके अंदर होनी चाहिए बस एक ललक कि अब से हम कम सोएंगे और जागकर अधिक काम करेंगे। वैसे भी, नींद व्यक्ति के अस्तित्त्व का एक पक्ष ही है, सम्पूर्ण व्यक्तित्व नहीं।

नींद की आवश्यकता और उसकी गहराई हमारी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक मनःस्थिति को दर्शाती है, इसीलिए आपने प्रायः देखा होगा कि चिंताग्रस्त व्यक्ति को दूसरों से अधिक नींद की आवश्यकता होती है और उन्हें गहरी, आरामदायक नींद जल्दी आती भी नहीं। जो व्यक्ति अधिक खाते-पीते हैं या बहुत कम हाथ-पांव चलाते हैं यानी व्यायाम नहीं करते, उनसे भी नींद दूर भागती है। ‘द फ़ंक्शन्स ऑफ़ स्लीप’ नामक पुस्तक के लेखक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक और प्रोफ़ेसर डॉ. अर्नेस्ट हार्टमन, जो कि बोस्टन राज्य अस्पताल में निद्रा प्रयोगशाला के प्रमुख हैं, वे मानते हैं कि जो लोग कम सोते हैं वे अधिक ऊर्जायुक्त, आत्मविश्वासी, सफल, आनंदित और कम तनावग्रस्त होते हैं, ये लोग गहरी नींद सोते हैं और यह नींद इन्हें भरपूर तरोताज़ा करती है जबकि इनके विपरीत नौ-नौ घंटे सोने वाले बिस्तर पर करवटें बदलते रहते हैं, टुकड़ों-टुकड़ों में आती है उन्हें नींद और वह भी गहरी नहीं बल्कि छिछली।

जो लोग स्वभाव से हताश होते हैं वे अधिक देर तक सोते हैं और सामान्य लोगों से अधिक सपने देखते हैं। ऐसे लोगों का जब आर. ई. एम. स्लीप टाइम यानी गहरे सपने देखने वाली नींद का समय कम कर दिया गया, तो उनका मूड एवं ऊर्जा का स्तर आश्चर्यजनक रूप से ऊंचा उठा।

बातचीत में हम लोग प्रायः कहते हैं-

‘अरे वह? वह तो हर समय चाक़-चौबंद रहता है।’

‘और वो? हुंह! वो तो हमेशा सोता-सोता-सा दिखता है।’

इनमें से चाक़-चौबंद व्यक्ति हमेशा कुछ न कुछ सीखने, पाने, करने, प्राप्त करने या जीवन के प्रति जिज्ञासु बने रहने वाला होता है और ज़्यादा समय नींद में बर्बाद करना पसंद नहीं करता। हर युग और सभ्यता के दौर में ऐसे ही लोगों का ज़िक्र बराबर होता है जो कम सोते थे परंतु हमेशा कर्मरत रहते थे, चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो या सेना का।

बहुत-से कलाकार भी कम सोते बताए जाते हैं। ये लोग चारेक घंटे की नींद से बखूबी काम चला लेते थे। इतना कम सोने की आदत उन्होंने स्वयं धीरे-धीरे डाली। कम सोने की आदत डालने के लिए एक सशक्त उत्प्रेरणा की आवश्यकता होती है। एक प्रसिद्ध विशेषज्ञ कहते हैं- ‘जब छुट्टी पर हों, तो सूरज उगने से पहले ही हम सैर के लिए बिस्तर क्यों छोड़ सकते हैं? रात को कोई बढ़िया फ़िलम देखनी हो या किताब ख़त्म करनी हो तो हम क्यों देर तक जागते रहते हैं? इन परिस्थितियों में नींद का बलिदान हमें नहीं अखरता। दोस्तों के साथ सुबह के दो-ढ़ाई बजे तक गप-शप चल सकती है जबकि किसी डिनर पार्टी में जहां हमें मनपसंद लोग नहीं मिलते डिज़र्ट (मिठी डिश) के आते ही, हमारी आंखें क्यों झपकने लगती हैं? इन सबका उत्तर स्पष्ट है कि यदि हम चाहें तो कम सोकर भी खुश रह सकते हैं।’

खाने के ही नहीं, नींद के मामले में भी डाइटिंग की जा सकती है। यदि सामने सफलता एवं उपलब्धि से सजा कोई लक्ष्य हो तो हम अधिक जागृत यानी कम सोकर भी उसे प्राप्त करना चाहते हैं। विद्यार्थी के समय इसी उत्प्रेरणा के तहत तो रात-रात भर जागकर पढ़ते हैं जबकि घर के अन्य लोग खा-पीकर आठ बजे से ही बिस्तरों में नाक बजाने लगते हैं। प्रश्न है कि सामान्य नींद कितनी होनी चाहिए? लेकिन इसका उत्तर है कि सामान्य की मात्रा सबके लिए अलग-अलग होती है। नींद की अवधि भी वंशानुगत होती है। कुछ परिवार बड़े सुबक्कड़ होते हैं जबकि कुछ ‘श्वान निद्रा’ के धनी यानी कम सोने वाले। नींद को कम करने के विषय में विशेषज्ञों का कहना है कि लम्बे समय तक सोने वाले धीरे-धीरे एक या डेढ़ घंटे कम सोकर अपनी आदत छुड़ा सकते हैं।

अब सवाल यह भी है कि नींद कम करने से क्या स्वास्थ्य पर असर न पड़ेगा? इस विषय में प्रयोग बताते हैं कि तीन दिन बिना सोए भी आप अपना काम ठीक-ठाक चला सकते हैं। यहां तक कि पांच दिन न सोकर भी आपका मस्तिष्क एवं शरीर दोनों ही आश्चर्यजनक रूप से अप्रभावित रहते हैं। इतने पर भी न तो वज़न, न हृदयगति, न श्वसन, या रक्तचाप या अन्य क्रिया-कलापों पर कोई असर आता है। रक्त एवं पेशाब पर भी बहुत सीमित असर दिखाई पड़ता है, (हां, ऐसे में हाथ हल्के से कांप सकते हैं, आंखें ठीक से केन्द्रित होने में कठिनाई अनुभव कर सकती हैं, प्रतिक्रिया करने के समय में देर लग सकती है लेकिन दर्द के प्रति चेतना बढ़ सकती है।) गणित, स्मृति बुद्धि परीक्षण पर भी स्पष्ट कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता।

सवाल यह भी उठता है कि जब कम नींद लेने से कोई विशेष नुक़सान नहीं होता है तो फिर नींद की ज़रूरत ही क्या है? क्या बिना सोये भी काम चलाया जा सकता है? आज तक वैज्ञानिक यह पता नहीं चला पाए हैं कि सोने के बाद हम ताज़गी क्यों महसूस करते हैं या कि नींद से हमारे दिमाग़ और जिस्म को क्या फ़ायदा होता है? वैसे, अधिकांश की राय यही है कि नींद स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है परन्तु उनका यह भी मानना है कि आज तक जो निश्चित अवधि सही मानी गयी है उससे कम समय सो कर भी काम चलाया जा सकता है। कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि सदियों से हम सोते चले आ रहे हैं इसलिए आदतन सोते हैं, लेकिन आज के माहौल में हमें आगे बढ़ने के लिए चाहिए काम के कुछ अधिक घंटे, इसलिए सोने की आदत को एकदम छोड़ न दें, तो कम तो ज़रूर कर सकते हैं।

अब शारीरिक काम कम है, पौष्टिक भोजन उपलब्ध है और ऐसे में हमें स्वस्थ रहने के लिए नींद की आवश्यकता कम है। पहले अंधकार होने पर यही बेहतर समझा जाता था कि अंधेरे के रहते किसी विपदा में पड़ने से अच्छा है कि आदमी बिस्तर में सुरक्षित रहे। सदियों से इसी एहतियात के लिए मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क की ऐसी ‘कंडीशनिंग’ की गई कि रात होते ही वह सोने की सोचे। आज स्थिति दूसरी है। बिजली के प्रकाश ने रातों को दिन में बदल दिया है। कई देशों में रात भर टी.वी. चला करते हैं और ऐसे में नींद को चाहना या उसे लेना कुछ जमता नहीं, यानी उसके बिना भी रहा जा सकता है। लेखिका फिलिस आय रोजेन्टर जीवन भर रात को सो न सकी, लेकिन अपने उन हज़ारों जगे घंटों में उन्होंने बीसियों किताबें लिखीं। वे कहती हैं, ‘पहले के लोगों के पास रातों को सिवा सोने के और कोई चारा न था लेकिन आज की जगमगाती रातें लोगों को सोने से रोकती हैं यानी वे ‘इन्सोम्निया’ को प्रोत्साहित करती हैं। आज रातों को बखूबी इतने काम होते हैं कि वैज्ञानिकों के अनुसार आज अनिद्रा ही जीवन नियम बन सकता है।’ वे कहती हैं कि जीवन संघर्ष में एक दिन ऐसा भी होगा कि मनुष्य का दिमाग़ और शरीर ऐसा बन जाएगा कि उसे बहुत कम नींद की आवश्यकता पड़ेगी। जैसे हमारी पूंछ ग़ायब हो गई, ऐसे ही धीरे-धीरे लम्बे घंटों की नींद लेने का फ़ैशन ही ख़त्म हो जाएगा।

20 वीं शताब्दी में शायद न सोने वाले, या बहुत कम सोने वाले लोग ही धरती पर विचरते होंगे एकदम तरोताज़ा, सचेतन, जागरूक। यह सब खोजें या तथ्य दिमाग़ को बौखला क्यों न दें। परन्तु इनके पीछे दिनों-दिन की मेहनत का सत्य है। हम और आप अपने जीवन में इसे एक उपयोगी चातुर्य के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। यानी कम सोकर कामकाज के घंटों को लम्बा कर सकते हैं, अपनी कार्य कुशलता बढ़ा सकते हैं, ‘अपना कैरियर’ बेहतर से बेहतरीन कर सकते हैं।

इस क्षेत्र में जो भी प्रयोग हुए उनके परिणाम बड़े उत्साहवर्धक रहे। प्रति दूसरे सप्ताह में आधा घंटा कम सोकर प्रयोगकर्मियों ने देखा कि उन्हें किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं हुई और न कोई असामान्य परिवर्तन दिखा।

इसी व्यवस्था को क़ायम रखते हुए जब वह छः घंटे की नींद की लिमिट तक पहुंचे तो भी कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन इसके बाद किसी को कुछ शिकायत महसूस हुई। जैसे उठने में आलस या दिन में झपकी आना, मूड ख़राब होना या आंखों में दर्द या कुछ और परंतु इसके बावजूद उनके व्यक्तित्व या कुशलता इत्यादि पर कोई असर न हुआ। यह भी देखा गया कि जब कम सोने के प्रयोग जारी रहे तो धीरे-धीरे ये शिकायतें भी ख़त्म हो गईं।

इन प्रयोगों को ध्यान में रखकर डॉ. लावर्न जॉनसन ने हमारे और आपके लिए भी कम सोने की सुझाव-तालिका बना डाली है जो इस प्रकार हैः-

. नींद कम करने के लिए सबसे पहले एक निश्चित लक्ष्य बनाएं, इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए आपको जागना है। उदाहरण के लिए आप आगे की पढ़ाई के लिए, कोई पुस्तक लिखने के लिए, किसी कला को सीखने के लिए, इस समय का उपयोग करेंगी।

दो सप्ताह तक अपनी सामान्य नींद लें और उसके बारे में एक डायरी में लिखें कि उठने पर आपको कैसा लगा? इसके बाद जब से कम सोना प्रारंभ करेंगी, तब से उन रातों का हिसाब भी लिखती रहिए। धीरे-धीरे एक दिन ऐसा आएगा कि कम सोकर भी आप डायरी में यह नहीं लिखेंगी कि आज दिन भर बड़ी नींद आती रही। इसके बाद इतना सोना ही आपकी आदत बन जाएगा।

. प्रतिदिन एक निश्चित समय पर ही सोएं और उठें। ऐसा करने से शरीर के भीतर लगी एक अदृश्य घड़ी को आदत हो जाएगी कि वह निश्चित समय पर आपको उठाए या सुलाए। किसी दिन सोने का टाइम कुछ चूक जाएं तो ज़रूरी नहीं कि आपका शरीर एक-एक गंवाए मिनट के बदले में सोना ही चाहे।

. एक बार में केवल 1/2 घंटा कम सोने की ही योजना बनाएं और इस आदत को डालने के लिए शरीर को 2 से 3 हफ़्ते का समय दें।

. यदि आप 20 से 30 वर्ष की आयु के बीच के हों तो आदत डालने में तीन सप्ताह का समय अवश्य लगाएं। ऐसा करते हुए जब छः घंटे की नींद तक पहुंच जाएं और इससे भी कम सोना चाहें तो 4 सप्ताह में धीरे-धीरे इससे कम सोने की आदत डालें।

. यदि आपकी उम्र 30 से 45 के बीच है, तो हर बार नींद कम करने के लिए 4 सप्ताह का समय लें।

. नींद घटाने के अभियान के दौरान शुरू में कुछ दिक़्क़तें महसूस करें, तो परेशान न हों क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है। शरीर धीरे-धीरे ही परिवर्तन के साथ तालमेल बैठाएगा।

. यदि तनाव हो या किसी बीमारी से उठी हों तो आपको भरपूर नींद चाहिए। ऐसे समय नींद कम करने वाला अभियान न चलाएं।

. नींद कम करने के अभियान में, थोड़ी चालबाज़ी भी करें यानी शनिवार और रविवार को आधा घंटा अधिक सो लें।

 हां, यह अभियान चलाने से पहले अपने डॉक्टर से परामर्श अवश्य कर लें।

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