-शबनम शर्मा

भ्रमित हैं हम ये सोचकर कि आधुनिक भौतिक व्यवस्था हमारी जीवन-शैली को सुखी बना रही है, पर किस क़ीमत पर बना रही है हम यह नहीं देख पा रहे हैं। हमारे बच्चे नई जीवन शैली की जो क़ीमत चुका रहे हैं ये सोचने की किसी को फुर्सत ही कहां है? मौज- मस्ती, खाने-पीने में ही सुख मानने वाली इस नई पीढ़ी की संवेदनाएं शून्य होती जा रही हैं।

आज शोर-शराबे वाले मनोरंजन ने अपना व्यापक जाल फैला दिया है। अधिकांश घरों में आप किसी भी समय चले जाइये, टी. वी. सेट ऑन ही मिलेंगे। सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आपके पास समय है पर वहां कहीं टी. वी. पर ज़रूरी कार्यक्रम में आप बाधा बनकर तो नहीं जा रहे हैं? बड़े अनमने मन से आपको बिठाया जाएगा। चाहे बच्चे पढ़ रहे हों या अन्य कोई कार्य कर रहे हों, टी. वी. उनका साथी ज़रूर है। इस चिंतन विहीन, दिशाहीन मनोरंजन ने बच्चों के अंदर अनेक मानसिक विकृतियां पैदा कर दी हैं। टी. वी. पर देर तक चलने वाले प्रोग्रामों ने बच्चों की दिनचर्या को प्रभावित किया है, ऐसे बच्चे स्कूलों में उनींदे से देखे जा सकते हैं। पल-पल बदलते चैनलों ने बच्चों की मानसिक शक्ति को अस्थिर बना दिया है। अनाप-शनाप हिंसा प्रधान सीरियल, हिंसा प्रधान फ़िल्में, इन सबको देखता बच्चा ‘हिंसा बस हिंसा’ ही सोच सकता है। आज टी.वी. सेक्स, रोमांस, हिंसा बड़बोलापन सब कुछ सिखा देता है।

हमारे यहां बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति बड़ी तेज़ी से बढ़ती जा रही है। जो बच्चा अधिकांश समय टी. वी. पर हिंसक कार्यक्रम देखेगा, जिसमें हर पल कहीं गोली, कहीं चाकू और कभी-कभी क्रूरता से हिंसा दिखाई जाती है, तब इस माहौल में बच्चा हिंसक नहीं होगा तो क्या होगा? टी. वी. पर हथियारों का इस्तेमाल देखते-देखते वह इतना निडर और बेख़ौफ़ हो जाता है कि वह हथियार उठाने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाता।

जहां बच्चों का एक बचपन होता था, प्रकृति की गोद होती थी, खुला आकाश होता था, माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी जैसे संबंधों की प्यार भरी अनुभूति होती थी पर आज ये सब कहां?

कम्प्यूटर के इस युग ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया। वीडियो गेम, कम्प्यूटर गेम और न जाने क्या-क्या में बस उलझ ही रहें हैं ये बच्चे।

सोचिये, हम आधुनिकता और सुखी जीवन के नाम पर बच्चों को कौन-सी मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक खुराक परोस रहे हैं? ‘अहिंसा, प्रेम, सद्भाव जो हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक परम्परा रही है, उसे हम बच्चों के मन से अनजाने में कुचल रहे हैं वह भी खुशी-खुशी।’

आज इस तरह के माहौल पर जो चिंता व्यक्त करते हैं, उन्हें भले ही आधुनिक लोग पिछड़े़े, दक़ियानूसी, पुरातनपंथी समझें, पर बच्चों की इन सूखती संवेदनाओं और हिंसक मनोवृत्ति पर चिंता होना स्वाभाविक है जिसे आज नहीं तो कल अवश्य महसूस किया जायेगा।

बालमन कच्ची मिट्टी की तरह होता है जैसा चाहो वैसा बना लो। अच्छी आदतें अवश्य डालें। बच्चा 24 घण्टों में 18 घण्टे घर के वातावरण में रहता है 6 घण्टे स्कूल। पूरा दोषारोपण स्कूल पर आसानी से कर दिया जाता है। आज माता-पिता की सतर्कता ज़्यादा अहमियत रखती है। पुस्तकें पढ़ने का शौक पैदा करें, उन्हें यदा-कदा दादा-दादी की नसीहतें सुनने दें। गुरूजनों के प्रति आदर भाव को जगाएं। हम सभी मिलकर ऐसी सुख स्थिति निर्मित करें ताकि बच्चों की संवेदनाएं बनी रहें। 

 

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