कल जब मैं कॉलेज के फंक्शन में गई तो वहां पर बड़ा ध्यान रखा जा रहा था कि लड़के-लड़कियों को अलग-अलग बैठाया जाए। तभी एक सज्जन ने बात उठाई कि आख़िर इनको अलग-अलग क्यों बैठाया जाए। अलग-अलग बैठाने की बात तो छोड़िए हममें से बहुत से लोग तो लड़के-लड़कियों को अलग-अलग स्कूलों, कॉलेजों में पढ़ाने के पक्ष में हैं। बसों इत्यादि में उनके लिए अलग जगह बनती है। अलग क्यू लगाई जाती है। मंदिरों और अस्पतालों में भी यही सब होता है। आख़िर ऐसा क्यों आवश्यक है। क्या इस सब से अस्वाभाविक माहौल पैदा नहीं होता? इस से लड़के-लड़कियां स्वाभाविक रूप से मिल नहीं पाते। इस से जो संस्कृति पनपती है उसमें औरत गौण हो जाती है। सैंकड़ों वर्षों से ऐसा ही चला आ रहा है। वह केवल छेड़ने और मज़ा लेने की चीज़ है, हर देश में – पिछड़े और विकसित सभी देशों में, कहीं कम कहीं ज़्यादा। ऐसी शिक्षा हमें अपनी खुद की संस्कृति से मिलती है। इस का ज़िम्मा हम पाश्‍चात्य सभ्यता पर नहीं थोप सकते। लेकिन अब आवश्यकता है संस्कृति में बदलाव की, औरतों में शिक्षा की, आत्मनिर्भरता की। युगों-युगों से औरत की भूमिका को तय कर दिया गया है। इस को चूल्हे-चौके तक सीमित रखा गया है। वहां से फुर्सत होते ही पति के आगे अपना जिस्म पेश करना होता है। जैसे पुरुषों के लिए बनी इस दुनियां में औरत उसकी खुशी, उसके ऐशो आराम के लिए बनी हो। चूल्हे-चौके से लेकर बिस्तर तक उसकी देखभाल करना औरत की ज़िम्मेवारी है और बच्चा पैदा करने से लेकर बच्चा पालने तक वह सब काम करती है।

ज़िन्दगी में उसका यह स्थान है, इसके लिए उसके दिल दिमाग़ को शुरू से ही तैयार किया जाता है। बचपन में ही जब घर के लड़के पाँव पसार कर बैठे रहते हैं और लड़कियां घर के काम के साथ-साथ उनकी सेवा में भी जुटी रहती हैं। यहीं से निर्माण होता है उनकी मानसिकता का जहां से लड़कियां सेवा करना सीखती हैं और लड़के सेवा करवाना सीखते हैं।

घरों में लड़कों की दोहरी मानसिकता भी देखने को मिलती है। बहन को कोई छेड़ेगा तो वह उठेगा और उसे गली में पीट आएगा। फिर मौक़ा मिलते ही वह उठेगा और किसी दूसरे की बहन को छेड़ आएगा। खुद दूसरी लड़कियों को अपमानित करने के बाद जब खुद की बहन बाहर से अपमानित होकर आएगी तो बोलेगा। यह और कुछ नहीं बस इच्छा है पुरुष की इन्सान कम और पुरुष अधिक बनने की। उनमें उस प्रवृत्ति का प्राबल्य है जो उसे औरत को जूती तले भी रखने को प्रेरित करता है और शाम ढलते ही वह लड़कियों के पीछे फब्तियां कसने और उनके अंगों पर नज़रें गाढ़ने को मजबूर है।

सुनने में आया है कि आदमी की मानसिक और शारीरिक बनावट का कुछ ऐसा अध्ययन हुआ है जिससे पता चलता है कि वह पुरुष प्रधान हार्मोन के कारण महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करता है। जब तक पुरुष प्रधान हार्मोन की प्रबलता रहेगी तब तक वह महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करता रहेगा। कोई कानून या आंदोलन उसके इस प्राकृतिक स्वाभाव को बदल नहीं सकता। उसमें यह प्राकृतिक शिकारी प्रवृत्ति सदा ही रहेगी। वो महिलाओं को आंख मारता रहेगा, उन्हें देख कर सीटियां भी बजाता रहेगा। यहां तक कि अकेले में उनके विशेष अंगों (नितम्बों, उरोजों इत्यादि) तक को हाथों से दबाने तक की शिकायतें भी आती हैं। भीड़ में महिलाओं के साथ सट कर खड़े होने, अंधेरे में उसे टटोलने, ज़ोर-ज़बर्दसती करने, अपने पौरुष का प्रदर्शन करने और जबरन भगा ले जाने को हमेशा इस लिए मजबूर रहेगा कि उसके भीतर यह हार्मोन सदा मौजूद रहेगा। शिक्षा द्वारा उसके हिंसात्मक आवेग को रोका तो जा सकता है पर जड़ से समाप्‍त नहीं किया जा सकता।

ख़बरें सुनने पर मालूम होता है, पुरुष हार्मोन के बढ़ते आतंक का। कई बार तो छेड़छाड़ की वजह से लड़कियों को जान से भी हाथ धोना पड़ता है। यह किस्से केवल छेड़छाड़ के ही नहीं होते, पागल प्रेम के भी होते हैं, पर इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इनकी प्रेरणा हमारी संस्कृति से ही मिलती है। इस तरह की लंगड़ी और हार्मोनवादी संस्कृति की ज़रूरत अब हमें नहीं है। महिलाओं को शिक्षित करना, आत्मनिर्भर बनाना होगा। नैतिकता के पुराने मापदण्ड भी बदलने होंगे। सहशिक्षा को आदर से देखना और सामाजिक जीवन में रिज़र्वेशन को ख़त्म करना होगा। जिससे धीरे-धीरे छेड़छाड़ और बलात्कार आदि की घटनाएं अपने आप कम होती जाएंगी। 

 

 

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