–दलबीर चेतन
मनुष्य ईश्वर से एक फ़ासले पर खड़ा है। भगवान् को मिलने का प्रयत्न निरंतर जारी है लेकिन फ़ासला प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। प्रकृति और ईश्वर बहुत पास-पास हैं मगर मनुष्य दोनों से ही दूर हो रहा है। वास्तव में मनुष्य ईश्वर की बनाई प्रकृति की तरह सहज नहीं रह सका।
धर्म ने एक मॉडल मनुष्य का तसव्वुर किया था लेकिन धर्म उस मनुष्य की रचना करने में क़ामयाब नहीं हुआ। धार्मिक मनुष्य उस काल्पनिक मॉडल के आस-पास भी नहीं पहुंच सका।
धर्म की मनुष्य को एक अच्छा मनुष्य बनाने की वृत्ति ही नहीं है धार्मिक मनुष्य अक्सर कट्टर होकर उलार हो जाता है और उलार मनुष्य कभी भी सही नहीं होता।
धर्म की धार्मिकता ने मनुष्य को बहुत भयभीत कर दिया है इसलिए उसका भगवान् के साथ ‘सहज’ का रिश्ता ‘सहम’ में बदल गया है। मंदिरों, गुरूद्वारों में कान पकड़ के नाक रगड़ते लोग इसी बात की गवाही देते हैं। भगवान् और धार्मिकता में से मुहब्बत मनफ़ी हो कर इस भय वाले रिश्ते में तबदील हो गई है।
जब से ऐसा हुआ है पूज्य स्थानों पर श्रद्धालुओं की भीड़ और अधिक हो गई है। पूज्य स्थानों की गिनती बढ़ गई है, चढ़ावे बढ़ गए हैं और ऐसे ही भगवान् से मनुष्य की दूरी भी अधिक हो गई है।
यदि भगवान् हमारा महबूब है तो महबूब से डरना प्यार नहीं। डर कर किस तरह प्राप्त कर सकते हैं हम महबूब की मुहब्बत। भगवान् कोई कोतवाल या दरोगा नहीं और मानवता कोई दोषी या गुनहगार नहीं। पर हम गुनहगार बना दिए गए हैं। भगवान् तो अपने दोस्तों और प्यारों की तरह होना चाहिए और प्यारों तथा अपनों से भी भला कोई डरता है ?
वास्तव में डराने वाली कोई ऐजंसी भगवान् और मनुष्य के बीच में विचरन कर रही है। हर धर्म भगवान् के मिलाप में एक सीढ़ी है मगर धर्म के कुछ लोगों ने एक ऐजंसी की तरह काम करना शुरू कर दिया है। मिलाप के लिए सीढ़ी के डंडों को इस ऐजंसी के कर्मचारियों ने रुकावटों में बदल दिया है। बड़े ही सहज से रिश्ते को इन लोगों ने चंद खूबसूरत शब्दों और अर्थों के जाल में उलझा कर रख दिया है। ऐसे लोगों के साथ अगर आप प्यार की बात करेंगे तो वे आपको प्यार की क़िस्में गिनवाने बैठ जाएंगे। मगर प्यार की कोई क़िस्म नहीं होती, प्यार तो हर किसी से बेलगाव होकर किया गया समर्पण होता है तथा यह समर्पण आज के धर्म में से मनफी हो गया है। आज तो किसी पूजा स्थल के अच्छे-बुरे होने की पहचान गोलकों की गिनती और माया के ऊंचे-लम्बे अम्बारों से की जाती है।
जो लोग भगवान् को नहीं मानते उनकी तो बात ही अलग है। यह लोग तो सभी लड़ाई-झगड़े ख़त्म करके नि:शंक होकर एक तरफ़ खड़े हैं।
जो लोग भगवान् को मानते हैं या मानना चाहते हैं उनके आगे एक लंबे-चौड़े कर्मों-काण्डों का पैंड़ा बिछा दिया है। कर्म-काण्ड किसी भी धर्म का हिस्सा नहीं होते, बस धर्म की ऐजंसियां ही कर्म-काण्डों के विधान बनाती है तथा डर भरा माहौल बनाकर उस पर अमल करवाती हैं। चारों ओर धर्म के नाम पर हो रही लूट-मार तथा क़त्लेआम इसी पैदा किए हुए डर का ही परिणाम है।
जब धर्मों की पहचान खंजर, त्रिशूल या तलवार बन जाए तो किसी भलाई की आस भी क्या की जा सकती है ? किसी धर्म की पहचान फूल तो हो सकते हैं हथियार हरगिज़ नहीं।
यह सभी कुछ छोड़ कर यदि ईश्वर के साथ सीधा संवाद रचा कर देखा जाए तो मनुष्य के लिए ज़्यादा लाभकारी होगा, क्योंकि ईश्वर न तो पूजा स्थल पर है तथा न ही पूजा स्थानों पर लगी भीड़ में, वह तो जहां भी हम विचरन कर रहे हैं वहीं पर है, वह तो गली-गली आवाज़ें देता है, “जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पाइयो।”
जितनी आवश्यकता ईश्वर की मनुष्य को है, ईश्वर को भी मनुष्य की उतनी ही आवश्यकता है। मुहब्बत करने वाले मनुष्य को वो आगे हो कर मिलता है। हमें वो केवल अपनी खुदाई की बातें ही नहीं समझाता बल्कि अपनी ही पैदा की हुई मानवता के बंदों की बातें भी बताता है।
‘मसजिदें रहें नमाज़ियों के लिए,
अपने दिल में कहीं खुदा रखना।’