amrita pritam

-जसबीर भुल्‍लर

हौज़ ख़ास की सुरमई शाम हरी कचूर बेलों पर फैल गई। इमरोज़ के चंबे में चिड़ियों की रौनक बढ़ गई थी। उसके हाथों से बनाये घौंसलों में चिड़ियां तिनके चुनने लगीं थीं।

    दोस्तों के उस घर में मैं बेपनाह परवाज़ की पनाह देखता रहा था।

    उस दिन अमृता प्रीतम ने दूधिया पन्नों वाली एक डायरी मुझे तोहफ़े में दी थी।

    जन्म-दिन मेरा नहीं था, अमृता प्रीतम का था। तोहफ़ा देने का हक़ मेरा था। मैंने डायरी खोली और पहला पन्ना अमृता को सौंप दिया।

    उसने डायरी के पहले पन्ने पर किफ़ायत की दो लाईनें लिखीं और वह इबारत बेबाक सोच का दस्तावेज़ बन गई।

    ‘परछाईयों को पकड़ने वालो।

    छाती में जलती हुई आग की परछाई नहीं होती।’

    अब वह डायरी मेरे पास थी पर पन्ने फिर भी अमृता प्रीतम के थे। मैंने बेतहाशा अमृता की उस डायरी का पहला पन्ना पलटा दिया।

    गेहुएं रंग की लड़की की प्रीतलड़ी में नज़म छपी थी उस समय।

    यह 1936 की बात थी।

    उस समय सुन्दर लड़कियां नज़में नहीं लिखा करती थीं, यदि लिखती भी थीं तो मुहब्बत की महक को जलावतन करके।

    और वह नज़म! … तौबा! उस लड़की ने ये कौन-सा सपना ले लिया था।

    (“इक निक्की निक्की आह निकली, मेरे घुटे-मीटे बुल्लां चों

       की मेरा किसे ते हक़ नहीं, जीवन दीयां लक्खां खुलां चों”)

    इक छोटी सी आह निकली, मेरे दबे हुए होठों से

    क्या मेरा किसी पे अधिकार नहीं, जीवन की लाख छूटों से

    नज़म की कुछ एक लाईनों के साथ समय का पानी खौलने लगा था। अख़बारों और रसालों में प्रकाशित होने वाले प्रतिष्‍ठित व्यक्‍तियों के ब्यान लच्चर हो गये थे। उस उफान को ठण्डा करने के लिए गुरबक्श सिंह ने ‘प्रीतलड़ी’ में ‘स्त्री का सम्मान’ नाम का लेख लिखा था और स्वयं के प्रकटीकरण के समान अधिकार की बात की थी।

    जो आंखें सपने देखती थीं, मुझे वह अच्छी लगती थीं।

    और वह, जो सपने जीते थे, मुझे और भी अच्छे लगते थे।

    सोचा, मैं उस लड़की को मिलूंगा। यदि गुम भी हुई होगी तो मैं खुद ही उसे ढूंढ लूंगा।

    पर मैं कहां था ?

    मैं तो उस समय नहीं था।

    लड़की की उस नज़म के कई वर्षों पश्‍चात् मैंने जन्म लेना था और फिर बड़ा होना था।

    कौन सांसें देगा इतनी लम्बी प्रतीक्षा को ? मैंने जल्दी से वर्षों के कई पन्ने इक्‍ट्ठे ही पलट दिये।3259955339_9407607344_o

    वह जो अत्यन्त सुन्दर थी उसे मुहब्बत का वरदान था और ज़माने का अभिशाप। उसके इर्द-गिर्द शुरू से ही साज़िशी हवा थी। वह उस हवा में सांसें लेती रही, चलती रही, लगातार चलती रही।

    वह, जो अमृत कौर थी, जिसकी नज़म मैंने होश सम्भालने के बाद ‘प्रीतलड़ी’ के एक पुराने अंक में पढ़ी थी, वक्‍़त के दरिया में नहाती-तैरती अमृता प्रीतम हो गई।

    इस दौरान मैं बड़ा तो हो गया, पर इतना बड़ा नहीं हुआ था कि सपनों वाली को ढूंढने चल पड़ूं।

    मेरी पोस्टिंग सिक्कम की थी।

    लंगथू के उन बे-आबाद पहाड़ों पर कोई दिन भी इस तरह का नहीं चढ़ता था, जो अपने साथ बर्फ न लेकर आए।

    उन सिकुड़े-से हुए दिनों में मैंने नये सिरे से लिखना पढ़ना शुरू किया था।

    वह ‘नागमणि’ के बिस्कुटी काग़ज़ों वाले दिन थ्‍ो। नये लेखक उन बिस्‍कुटी रास्तों के तलबगार थे। मैं भी चाहता था कि ‘नागमणि’ में मेरी कोई कहानी प्रकाशित हो, परन्तु वहां की बर्फ में मेरा यकीन भी नीला पड़ता गया था।

    एक दिन मैंने अपने संकोच को मिटा कर एक नई कहानी अमृता प्रीतम को भेज दी। कुछ दिनों बाद ही अमृता प्रीतम का एक वाक्य का ख़त मिला, ‘जसबीर! फ़ौज के बारे में कभी कुछ गहराई से नहीं लिखा गया है, तुम ज़रूर लिखो।’

    बेयकीनी को मिला सहारा मेरी प्रेरणा बन गया। सिक्कम से मेरी बदली हुई तो दिल्ली रास्ते पर था। वहां से मैंने दूसरी गाड़ी पकड़नी थी। पूरा दिन मेरे पास था। मुझे अमृता से मिल आना चाहिए था। उस समय तक मैं उसका कई कहानियों पुराना दोस्त बन चुका था। उसकी 1936 वाली नज़म भी तो मेरा ही पक्ष लेती थी।

    क्लॉक रूम में सामान जमा करवा कर मैं हौज़ ख़ास की तरफ़ बढ़ गया।

    उस समय तक मेरे पास लम्बी तथा नाज़ुक सी अमृता की कल्पना थी। उस कल्पना में इमरोज़ के रंग थे, उसके द्वारा बनाई गई तस्‍वीरों के नैन-नक्श थे, अमृता की नज़मों के चेहरे थे।

    इमरोज़ मेरे लिए सीढ़ियों  उतर कर आया था। बांहें मेरे गले में डाल कर वह हंसा था। सीढ़ियां चढ़ते हुए मैंने उसकी तरफ़ नहीं देखा था। मैंने बल्बों वाली टोकरियों को देखा था। दरवाज़ों पर रंगों की लाईनें नज़र आईं थीं। रंगों की लाईनों पर अमृता का कलाम पढ़ा था। वहां पर हर वस्तु में अमृता की झलक थी। दीवारों पर लटके हुए चित्रों में भी, लैंपों की छत्तरियों पर लिखे शे’रों में भी और काले मेज़ के फूलों पर भी।

    मैं उस परीलोक में था जहां मुझे अपनी कल्पना वाली अमृता हु-बहू दिख रही थी।

    दरअसल वक़्त मेरी कल्पना में भी रुका हुआ था और इमरोज़ के चित्रों में भी।

    लाल डायरी का पहली मुलाक़ात वाला पृष्‍ठ क्षण भर के लिए कोरा प्रतीत हुआ।

… और वह छोटी सी लड़की साहित्य पर चिन्तन करती हुई मां बन गई। फिर वह बड़ी बहनों की तरह दिखने लगी। कुछ समय बाद एेसा लगा कि वह वर्षों पुरानी दोस्त है।

    उसका क़द धीरे-धीरे लंबा हुआ था और फिर आकाश को छूने लगा था। वहां से चलते समय तक तो वह मेरी हम उम्र हो गई थी। न ही एक वर्ष बड़ी और न ही छोटी।

    उस मुलाक़ात के समय मैंने उत्कंठित हो कर बताया था, ‘1936 की प्रीतलड़ी में मैंने आपकी नज़म पढ़ी थी।’

    वह हंसी, ‘तुम तब कहां थे?’

    मैंने पूरी बात बताई तो वह कुछ क्षण हंसती रही और फिर पूर्णत: गंभीर होकर बोली, ‘जसबीर! वह नज़म मेरी नहीं थी।’

    नज़म अमृत कौर की थी, अमृता प्रीतम की नहीं थी। मैं जानता था, पर सोचता था, अमृता प्रीतम में से अमृत कौर पूरी तो कभी भी मनफ़ी नहीं हुई होगी। पर वह अपनी ‘स्‍वयं’ से मुनकर थी।

    1936 में प्रकाशित उस नज़म की जलावतनी का कारण लाल डायरी के सन 2000 वाले पृष्‍ठ पर था।

    मैं नावलकारों के साथ लम्बी मुलाक़ातों की किताब ‘गुफ्‍़तगू’ तैयार कर रहा था। नावलकारों की उस फेहरिस्त में अमृता प्रीतम का नाम था।

    दोस्तों ने कहा अमृता प्रीतम का बतौर शायरा नाम अधिक बड़ा था। मेरे सामने उसके प्रसिद्ध नावलों की लम्बी सूची थी- डाॅ. देव, पिन्जर, आलना (घोंसला), जेब कतरे, चक्क नम्‍बर छत्ती, बंद दरवाज़ा, बुलावा और… । मैं नावल नहीं गिनना चाहता था, मैं उसके नावलनिगारी के भेद जानना चाहता था। यदि वह शायरा बड़ी थी तो मेरे लिए वह नावलकार भी बड़ी थी। गुफ्‍़तगू का एतराज़ उसे होना चाहिये था, परन्तु उसने धैर्य से कहा था, ‘जसबीर! किसी भी विषय की बात कर लो, वाजिब है। बात तो आख़िर मरकज़ी नुक्‍ते पर पहुंचनी है। बात कहने के ढंग पर या कही जाने वाली बात की अहमियत पर।’

    मैंने फिर पूछा था, ‘क्या लेखक को इस तरह भी करना चाहिये कि चौथे पहर धूप में बैठ कर अपनी सभी रचनाओं पर नज़रसानी करे और समय गुज़ार चुकी रचनाओं को रद्द कर दे?’

    वह मुस्कुराई थी, ‘दोस्त, उम्र का चौथा पहर अन्तर्मुखी बनने का होता है- अपने स्वयं में से ब्रह्म को पहचानने के लिए।— ब्राह्मण वह जो ब्रह्म को पहचाने। तुम ने चौथे पहर के साथ धूप लफ्‍़ज़ प्रयोग किया है। यहां पर धूप अन्तर्ज्ञान का संकेत बन गई है। इसलिए ज़ाहिर है कि इस उम्र पर पहुंच कर अपनी रचनाओं पर स्वयं ही नज़रसानी करनी होती है। असली आलोचक शायर, अदीब के अपने अन्दर होता है, जो कच्ची उम्र की रचनाओं को अपने से अलग कर देता है। — मैंने पहली उम्र की कुछ पुस्तकें, कुछ नज़में बिल्कुल ही छोड़ दी हैं। यह सब कुछ चौथे पहर की धूप का तकाज़ा है।

    यादों के पन्नों की बेतरतीबी में, पता नहीं वह लाल डायरी का कौन सा पृष्‍ठ था।   

    मेरी किताब ‘नो मैनस लैंड’ नई-नई छपी थी। मैंने अमृता प्रीतम को किताब देने जाना था। मैं हरजीत के पास बैठा हुआ था। उसने कहा, ‘मैंने भी जाना है।’

    हरजीत उस समय नया-नया दूरदर्शन का प्रोड्यूसर बना था। वह हर पल अच्छी-अच्छी फ़‍िल्में बनाने के सपने देखा करता था। आम सी बात करने के लिए भी उसे उसके सपनों में से बाहर निकालना पड़ता था। चलते-चलते, करते हुये उसकी गुमसुम अदाओं ने शाम कर दी थी। अमृता प्रीतम के घर पहुंचने तक उस शाम ने रात का लिबास पहन लिया था।

    उस रात चांद निकलता या न निकलता सितारे तो निकलने ही थे। इमरोज़ ने कहा, ‘आज यहां ही रह लें, इतना अंधेरा करके जाना ठीक नहीं।’

    मैं उस शहर का अजनबी था और हरजीत के लिए भी कोई ख्‍़वाबगाह प्रतीक्षा नहीं कर रही थी। रहने के लिए वह पहले से ही कमरा ढूंढ रहा था। बातों-बातों में वह अमृता और इमरोज़ को अपना दु:ख बता चुका था।

    हमने इमरोज़ के बैडरूम के साथ वाले कमरे में बिस्तर बिछा लिया।

    दिन भर की थकावट अचानक मेरे शरीर में उतर आई। मैं सोना चाहता था। हरजीत को ख़ाब देखने के लिए दिन में समय नहीं मिला था। रात के सपनों के लिए, उस समय सपनों की बातें करना मुनासिब था।

          उसने अभी आगाज़ ही किया था कि मेरी हुंकारी (हूं-हां) सो गई।

    सुबह मुंह अंधेरे ही मेरी नींद खुल गई। मैंने हरजीत को हिलाकर उठा लिया, ‘तुम रात में क्या बात कर रहे थे ?’   

    उसने नींद से भरी हुई लाल विस्मित आंखों से मेरी तरफ़ देखा, ‘कौन सी बात?’ उसे कुछ भी याद नहीं था भोर का अंधकार अभी छटा भी नहीं था कि इमरोज़ ने दरवाज़ा खटखटा दिया। ट्रे में चाय के गिलास लिए वह अन्दर आ गया, ‘मुझे आपकी बातों की आवाज़ आई तो, सोचा इक्‍ट्ठे बैठकर चाय पीते हैं।’

    अभी हमने दो घूंट ही भरे होंगे कि हाथों में गिलास लिए अमृता प्रीतम भी आ गई, ‘मैं वहां अकेली बैठ कर चाय क्यों पीऊं’। उसने कुर्सी खींच कर नज़दीक कर ली तथा ‘नो मैनस लैंड’ की बातें शुरू कर दी, ‘तुम्हारा मेजर अशरफ़ बहुत ही प्यारा आदमी है, लेकिन दुश्मन के बंकर में रात काटने के बाद खुद को जीवित देख कर उसको कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं थी। यदि वह चुप रहता तो उस चुप ने अधिक बातें करनी थीं ?’

    ‘नो मैनस लैंड’ की कापी रात को सोते वक्‍़त मैंने उसे पकड़ाई थी। उसने किस समय पढ़ ली ? मेरी आंखों का सवाल पढ़ कर वह हंस पड़ी, ‘रात के ग्यारह बजे तथा इस सुबह के बीच में कितना समय था कुछ पता है ?’

    अमृता प्रीतम बहुत पढ़ती थी। मैंने पंजाबी के किसी और लेखक का किताबों के साथ उससे अधिक लगाव नहीं देखा था। एक बार अमृता तथा इमरोज़ घर से कपड़ा खरीदने गए थे तथा सारे रुपयों की किताबें खरीद कर घर वापिस आ गए थे।

    अमृता प्रीतम ने किताबों की आदत दोस्तों को भी लगाई थी। मेरे साथ भी वह नई पढ़ी हुई किताबों की बातें करती थी और मेरे चलने के समय काग़ज़ों पर उन किताबों के नाम लिख देती थी। ज़ोर देकर कहती थी, ‘इन्हें ज़रूर पढ़ना।’

    हम तैयार होकर चले तो वह दरवाज़े तक आई। बोली, ‘जसबीर ने तो शाम को चले जाना है। हरजीत, तुम यहीं पर क्यों नहीं आ जाते ? हमारे पास एक कमरा ख़ाली है।’

    दोस्त की कठिनाई की कहानी पढ़ने के लिए उसके पास मन की आंखें थी।

    अगले दिन हरजीत वहां गिराज के ऊपर के कमरे में शिफ्‍़ट हो गया। मुझे अब यह याद नहीं कि हरजीत उस कमरे में कितनी देर रहा था, बस मुझे इतना ही याद है कि उन्होंने हरजीत से कभी कोई किराया नहीं लिया था।

    मोर्चों में बैठ कर लिखे हुए ख़त दूर-दराज़ की तनहाई के पंख थे।

    तनहाई की वह परवाज़ दोस्तों की ताईद चाहती थी।

    मैं ताईद के कंधों पर हाथ रख कर उनका साथ महसूस कर लेता था।

    एक बार वहां अमृता का ख़त मिला तो पते पर मेरे नाम के साथ ‘श्री’ लिखा हुआ था। सैनिक का रैंक उसके नाम का हिस्सा होता है। ‘श्री’ की जगह वहां रैंक लिखा जाना फ़ौज की आवश्यकता थी। मैंने अपने ख़त में इस बात का स्वभाविक ज़िक्र किया तो जवाब में अमृता ने लिखा था।

    ‘तुम्हारी दीदी के लिए तुम्हारी अहमियत जसबीर होने में है, तुम्हारे कैप्टन या मेजर होने में नहीं। अकबर बादशाह जब मां की मौत पर बहुत रोया तो सारे दरबारी हैरान थे। तब अकबर ने कहा कि रोना इस बात का आया है कि अब दुनिया में वह कोई नहीं है जो मुझे अक्कू कह कर बुला सकेगा। यह रिश्ते बहुत थोड़े होते हैं जो पदवियों से और हर रैंक से ऊपर होते हैं।’ अमृता प्रीतम के 1982 के उस ख़त ने एक पवित्र से रिश्ते की सुगंध मेरे लिए भेजी थी, जो संबोधित नहीं थी।

    …. और मुझे वह सुगंध चाहिए थी।

    सुगंध से भरे उन ख़तों में हमेशा से शब्दों का संयम था। —- और मैं किफ़ायत के शब्दों में से अहसास की लम्बी इबारत पढ़ता था। 4 जुलाई 1985 का ख़त उसकी ममता का दस्तावेज़ था।

    ‘मैं जून के आरम्भ में फ्रांस चली गई थी। फिर वापिस आकर एक हफ्ते के लिए नार्वे चली गई थी, इसलिए ख़त लिखने में विलंब हो गया। नवराज के घर बेटा हुआ है। कल पूरे चालीस दिनों का हुआ था, इसलिए घर के कामों का तकाज़ा भी बहुत था। उसका नाम अमान रखा है।’

    मुझे लेखिका अमृता के ख़त भी आए थे और दोस्त अमृता के भी, पर मां अमृता को मैंने पहली बार पहचाना था।

    नवराज के पहले विवाह ने उसकी मुहब्बत की गवाही भरी थी। अमीर मां-बाप की लाडली बेटी ने बागी होकर विवाह करवाया था। लड़की का कोई भी सगा-संबंधी उपस्थित नहीं हुआ था। तब इमरोज़ उस लड़की का सहारा बन कर खड़ा हुआ था। लड़की की मुहब्बत लिबास जैसी थी। जल्दी ही मैली हो गई। उस लड़की के चले जाने के बाद मैंने उस घर में मां अमृता की उदासी देखी थी।

    — और फिर जब नवराज ने एक लड़की के आन्तरिक रूप को पहचान कर उसे अपना कह दिया तो ठहरी हुई पवन पहले हिली थी और फिर धीरे-धीरे बहने लगी थी।

    अमृता की पौत्री ने जन्म लिया था। अमृता ने कहा था, ‘जसबीर, मैंने मुद्दत बाद नवराज के होंठों पर मुस्कुराहट देखी है।’

    ममतामयी मां का चाव पूरे घर का चाव था। और वह मां अपने बच्चों की दोस्त थी इसलिए वह अमृता को कोई भी बात खुल कर कह सकते थे।

    कंदला ने एक बार बताया था, ‘मैंने मामा (अमृता प्रीतम) को कहा है कि मेरा विवाह बेशक कहीं भी कर दें पर वह इन्सान लेखक न हो।’   

    कंदला ने लेखकों के कई रंग देखे हुए थे और कई रंगों के लेखकों को भी देखा हुआ था। जिसके साथ उस का विवाह हुआ, वह लेखक नहीं था, अमृता प्रीतम का मुहब्बती पाठक था। अजीब बात यह हुई कि कंदला के साथ विवाह होने के बाद वह कहानियां लिखने लग पड़ा।

    पता नहीं वह कंदला में से कंदला को ढूंढ़ भी सका या नहीं यह उनका निजी मामला था। मुझे बस इतना ही पता है कि कुछ सालों बाद दरार का वह रिश्ता पाट बन गया था।

    अमृता के ख़तों में मैंने अमृता को पढ़ा है, परन्तु यदि उसे छूकर देखना हो तो उसकी किताबों को पढ़ना पड़ेगा। जब कभी पास बैठ कर दु:ख-सुख बांटने हों तो अमृता ‘नागमणि’ के सफ़हे सामने रख देती बाकी दोस्तों की तरह स्वयं मैं भी अमृता के लिए खुद के स्वयं के रू-ब-रू हुआ हूं। अपने कमरों की तलाशी दी है। उसके झांकने के लिए घर का पीछे का दरवाज़ा भी खोला है, कच्ची उम्र की मासूमियत के ख़तों को भी नागमणि के कॉलमों के लिए बिखेरा है।

    नागमणि के कॉलमों ने अनोखा इतिहास बनाया है। यह अमृता प्रीतम की शख़्सियत, व संपादना का करिश्मा था कि काले तिलयर, शौक़ सुराही, चीने कबूतर, सिर धर तली, मेरा कमरा, मैं ते मैं, देख कबीरा और अन्य… सभी कॉलम लेखकों की शक्ल-सूरत बने हैं।

    इतनी मोह-मुहब्‍बत! … तौबा। इतना कुछ कोई किसी से कभी भी नहीं उगलवा सकता जितना स्वयं इच्‍छा के साथ नागमणि ने अपने लेखकों से उगलवा लिया था। अमृता प्रीतम नागमणि के बारे में कुछ इस तरह ही सोचती है जैसे- कोई मुहब्बत के बारे में सोचता है।

    एक तमतमाती दोपहर, मैं अभी तक पानी के दो घूंट भी नहीं पी पाया था कि अमृता प्रीतम ने सवाल किया, ‘हम ने कोई नया स्तंभ शुरू करना है, तुम बताओ कैसा हो ?’

    उन दिनों नागमणि ने ज्ञान का एक अन्य दरवाज़ा खोला हुआ था। उस ज्ञान को साहित्य से भी जोड़ा जा सकता था। मैंने कहा, ‘एक तजरबा हो सकता है ?’

    ‘कैसा तजरबा ?’

    ‘हम लेखकों को उनके जीवन और रचनाओं के बारे में बहुत सवाल करते हैं और लेखक जवाब देते हैं। क्यों न कोई ऐसा कॉलम हो जिस में लेखक चुप रहें, और उनके हाथों की रेखायें बोलें।’

    अमृता को मेरा विचार अच्छा लगा था। उसने कहा, ‘यह नया कॉलम तुम से ही शुरू करते हैं, अभी इस वक्‍़त ?’

    ‘इसी वक़्त ही ?’

    ‘हां। मेरी सहेली उर्मिल शर्मा ज्योतिष की माहिर है। आज शाम हम दोनों ने इंदिरा गांधी के पास जाना है।’

वहां इंदिरा गांधी की हथेली की रेखाएं बोलेंगी और अब तुम्हारी लकीरें बातें करेंगी। वह उठी और फ़ोन करके उसने उर्मिल शर्मा को यकायक आने के लिए कह दिया।

    न मैं उर्मिल शर्मा को जानता था और न ही वह मुझे। उसका साहित्य के साथ भी कोई वास्ता नहीं था। वह आई तो अमृता प्रीतम ने पहचान कुछ इस तरह से करवाई, ‘उर्मिल, आज जो हमारे पास बैठे हैं इनका नाम जसबीर भुल्लर है। इनके नाम के अतिरिक्‍त मैं कुछ भी नहीं कहूंगी। तुम इनका हाथ देखकर बताओ कि लकीरें क्या कहती हैं।’

    ‘इनकी जन्म कुंडली कोई नहीं है ?’ उसने पूछा।

    ‘नहीं। मैंने जवाब दिया था।’

    ‘फिर तो मैं हाथ भी देखूंगी और साथ ही प्रश्‍न कुंडली भी बनाऊंगी।’ वह मुझसे मुख़ातिब हुई, ‘कितने बजे हैं ?’

    ‘एक बज कर पांच मिनट।’ मैंने घड़ी देखकर बताया।

    उसने काग़ज़ पर कुछ लकीरें बनाई और फिर बोली, ‘आप मिल्ट्री में हो।’

    ‘हां’

    ‘आपकी प्रश्‍न कुंडली अनुसार वृश्‍चिक राशि आपके लग्न में है। यह वीरता की सूचक है।’

    उसने आगे बात बढ़ाई, ‘आपकी अभी ही ट्रांसफर हुई है।’

    ‘हां। पर ….।’

    ‘आपके भाग्य-स्थान पर मंगल के साथ राहू है, जो स्थान बदली करवाता है। साथ ही ग्यारहवीं राशि का मालिक शनि अपनी राशि से आठवें स्थान पर है, वह भी स्थान बदली करवाता है।’ उसने तसल्ली से सांस ली, ‘कुंडली बिल्कुल दुरूस्त बनी है।’

    कुंडली सामने रख कर वह मुझे कुछ इस तरह पढ़ने लगी जैसे मैं खुद अपने अन्दर का अवलोकन कर रहा होता हूं। वह अनोखी मुलाकात ‘एक तजुर्बा’ नाम के कॉलम तहत, नागमणि के फरवरी 1982 में अंक में प्रकाशित हुई थी। मेरे बारे में उस मुलाक़ात ने बहुत सच बोला था… और वह कॉलम बहुत देर तक नहीं चला था। लाल डायरी का 7 मार्च 1980 वाला पन्ना कुछ अधिक गहरे अक्षरों में था।

    अमृता के घर दोस्तों का मेला था और बाहर चौथा पुस्तक मेला।

    ‘चलो, आज मेला देखें।’ अमृता प्रीतम ने बच्चों वाले चाव से कहा।

    हमारे पास अजीत कौर और अर्पणा का निमंत्रण भी था। उन दोनों की देख-रेख में वहां 27 डाऊन फ़िल्म दिखाई जानी थी। हमारा क़ाफ़िला मेले की ओर चल पड़ा। हम पांच थे, अमृता प्रीतम, डॉ. दलीप कौर टिवाणा, इमरोज़, रशिम और मैं। नैशनल एग्जीबिटस में पंजाबी की पुस्तकों की गिनती संतोषजनक थी, पर वो किताबें बेचने के लिए नहीं थी। जिन स्टालों से किताबें खरीदी जा सकती थी, वहां पर पंजाबी की स्थिति निराशाजनक थी। पंजाब के किसी भी प्रकाशक का वहां कोई स्टॉल नहीं था। भाषा विभाग का स्टॉल वहां पर था, पर किताबें खस्ता हालत में थी और जिल्दें कुछ फटी हुई और कुछ उखड़ी उखड़ी। अमृता प्रीतम ने शाह हुसैन की काव्य पुस्तक खरीदनी चाही तो पता चला कि वह पुस्तक सिर्फ़ नुमायश के लिए थी बेचने के लिए नहीं। पंजाबी किताबों की स्थिति ने हम सब को उदास कर दिया था। अमृता-प्रीतम एक एकांत सा स्थान देख कर बैठ गई। उसने लम्बी सांस ली, ‘मैं बहुत थक गई हूं।’

    उस पल हमें अजीत कौर और अर्पणा का निमंत्रण याद आया।

    अजीत कौर थियेटर के बाहर खड़ी हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। वहीं उसने हमारी पहचान फ़िल्म के लेखक रमेश बक्‍शी और फ़िल्म के नायक एम.के. रैणा के साथ करवाई। हॉल के अन्दर दाखिल होते हमारी मुलाक़ात हिंदी के बुज़ुर्ग लेखक जैनिन्दर कुमार के साथ हुई। उसने अमृता प्रीतम को कहा, ‘आप सुन्दर लग रही हैं।’ अमृता प्रीतम हंसी थी।

    उसने फिर कहा, ‘आप की सेहत अच्छी लग रही है।’

    ‘क्या मैं, मोटी लग रही हूं ?’

    ‘अरे नहीं भई।’ वह हंसा, ‘मोटी शब्द तो कुछ ज्‍़यादा ही मोटा है।’

जैनिन्दर कुमार कुछ ज्‍़यादा ही खुश था। उसके नावल पर बनी फ़िल्म उस दिन रिलीज़ होने वाली थी। फ़िल्म शुरू होने में अभी कुछ समय बाकी थी। अमृता प्रीतम को पहचान कर कुछ लोगों ने ऑटोग्राफ़ के लिए झुरमुट बना लिया था। पंजाबी के लेखकों के दस्तख़त भी लोगों को चाहिये होते हैं। यह मेरे लिए नई बात थी।

    फ़िल्म समाप्‍त होने तक मेले का समापन नहीं हुआ था। सडक़ों पर सपनों जैसी रोशनी फैल रही थी। भरे हुए मेले की कुछ किताबें, नई मुलाक़ातों की महक और दोस्ती की गर्माहट हमारी उस शाम की अमीरी थी। …. और फ़िल्म के नायक की कायरता हमारे संस्कारों जैसी थी, उसे साथ लेकर हम वहां से नहीं चलना चाहते थे।

    कुछ वर्षों से हमारी मुलाक़ातों के बीच की अवधि लम्बी होती रही थी। पिछली मुलाक़ात के समय चौथे पहर की धूप ढल गई प्रतीत हुई थी।

    वह कमरे से उठ कर धीरे-धीरे दरवाज़े तक आई और फिर सहारा लेकर हांफती हुई खड़ी हो गई। उसने स्‍नेह से मेरा हाथ पकड़ लिया और शिकायत की तरह बोली, ‘इतने समय बाद आए हो ?’

    उसका चेहरा थका हुआ था पर दोस्ती की मुस्कुराहट बरकरार थी। मैं अंदर गहराई तक कहीं सिमटा-सा बैठा था। मैं तो कहीं बाहर गया ही नहीं। मैं तो…. मेरे बोल जैसे बिन पैरों के थे, डोल रहे थे। वह भी जानती थी। दिलासा देने की तरह बोली, ‘दोस्त। … भगवान तुम्हें (सभी दोस्तों को) सलामत रखे। … मेरी ज़िंदगी के बेशक थोड़े से दिन ही बाकी रहते हैं, पर जब चाहूं तुम लोगों काे बुला सकती हूं।’

    हम उस कमरे में जा बैठे जो उसकी उम्र के शिख़र समय का और लिखने के समय का साथी था। उस कमरे की दीवारें बोल नहीं सकती थी। यदि बोल सकती तो मैं अमृता की बातें उन दीवारों से सुनता।

    अमृता के लिए बहुत बोलना मुनासिब नहीं था। उसने धीरे से कहा, ‘तुम्हारी कहानियां आज कल कहां चली जाती हैं ?’

    उसी समय अमृता के लिए कहीं से फ़ोन आ गया। अमृता प्रीतम के बिस्तर के सिरहाने की तरफ़ पहले की भान्ति ही दो दराज़ों वाला मेज़ पड़ा हुआ था। एक दराज़ नागमणि में छपने के लिए आई हुई कहानियों के लिए था और दूसरा कविताएं और अन्य रचनाओं के लिए। नागमणि के लिए मैं नई कहानी लेकर आया था। मैंने कहानियों वाला दराज़ खोला और कहानी अन्दर रख दी।

    उस पल मैं फ़ारिग हुआ था। फ़ोन रख कर अमृता प्रीतम ने फिर पूछा, ‘कहां चली जाती है तुम्हारी कहानियां ?’

    ‘मुहब्बत करने वालों के पास।’

    ‘यहां पर तो आई नहीं।’

    ‘आई क्यों नहीं ?’ मैंने दराज़ खोल कर कहानी उठाई और अमृता प्रीतम की तरफ़ कर दी।

    अमृता की मुस्कुराहट आबशार हो गई।

    उस समय इमरोज़ चाय लेकर आ गया।

    इमरोज़ हमेशा सही वक़्त पर आ जाता था।

    जब तुम उस घर से चलते हो तो उस घर का तिलिस्म साथ चलता है।

    वहां से चलते समय वह तिलिस्म मेरे साथ था। सीढ़ियों से नीचे आया तो बाहर के फाटक के नज़दीक अमृता प्रीतम की पौत्री गेंद से खेल रही थी। उसकी फेंकी हुई गेंद मेरे हाथों में आ गई। मुझसे गेंद लेने आई वह थोड़ा सा मुस्कुराई। मेरी सांस क्षण भर के लिए रुक गई। मैंने उसे पहचान लिया था। यह तो वही थी, हू-बहू वही, चौदह पंद्रह वर्षों की अमृत कौर, जो 1936 में प्रीतलड़ी में छपती थी।

    मैंने ऐसे ही फ़िजूल का संशय पाल रखा था। अमृता तो पहले भी थी, अमृता तो अब भी है, अमृता तो फिर भी होगी। उस छोटी अमृता को गेंद पकड़ा कर मैं चलने लगा तो डायरी के पन्नों की इबारत मेरी नज़रों के सामने अनन्त तक फैल गई।

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