“देखो बेटा, कुछ काम नहीं करोगे तो ज़मीला का निकाह कैसे होगा? अब तो यह सारी ज़िम्मेदारी तुम पर आ गिरी है?” अब्दुल की मां ने उसे समझाते हुए कहा।
“अम्मी जान! मैं तो तंग आ गया हूं तुम्हारे ये ताने सुनते-सुनते और काम ढूंढते-ढूंढते। ज़मीला के निकाह की बात सुनकर मेरे कान पक गए हैं। जब काम मिलता ही नहीं तो मैं करूं भी तो क्या?” अब्दुल ने प्रत्युत्तर में कहा।
“तो फिर ख़ाली बैठने से तो काम नहीं चलेगा।”
“अम्मी जान तुम ही बताओ- दहशतर्गदों की वजह से कारखानेदार अपने कारखाने बंद कर घाटी से पलायन कर गए हैं। रोज़गार के जो छोटे-छोटे मौक़े मिल जाते थे, वे भी ख़त्म हो चले हैं। अब तो यही ठीक रहेगा कि हम भी घाटी को छोड़कर कहीं और चले जाएं।”
“क्या कह रहे हो अब्दुल? हम पुरखों का मकान छोड़कर चले जाएं और कहीं और जाकर भीख मांगें।”
“मैं ऐसा कब कह रहा हूं अम्मी जान? हम यह अपना मकान बेचकर जाएंगे।”
“ख़रीदेगा कौन…?”
“अम्मी जान…। हमारे रास्ते बंद क्यों हो गए हैं?” अब्दुल ने झुंझलाते हुए कहा। फिर थोड़ा रुक कर बोला, “अच्छा दो टुकड़ा रोटी दे दो। फिर तो पूरे दिन नसीब नहीं होगी।”
“अरी ओ ज़मीला। अपने भाई को रोटी दे दे … या भूखा ही भेजेगी इसे बाहर।”
“लाई अम्मी जान।” ज़मीला एक थाली में रोटी परोसती हुई बोली, “भाई जान! मेरा दिल कह रहा है कि आज आपको ज़रूर काम मिल जाएगा।”
अब्दुल के वालिद आकिब मियां एक कारखाने में काम करते थे। एक दिन दहशतगर्द आए और कारखाने के मालिक को गोलियों से छलनी कर दिया। मियां आकिब ने अपनी जान की परवाह न करते हुए उनकी जान बचाने की मुक़म्मल कोशिश की। पर न तो उनकी जान बचा सके और न ही अपनी। ऐसी ही वारदातों के कराण कई छोटे-मोटे कारखानेदार घाटी छोड़ गए। शांत संयत घाटी की मदमस्त पवन को बारूद की तीखी गंध ने विषैला और भारी कर दिया।
आकिब मियां के परिवार में अब्दुल, ज़मीला, उनकी मां अब तीन ही सदस्य रह गए थे। ज़मीला अब्दुल से बड़ी थी। वह दसवीं तक पढ़ी-लिखी थी। वह एक खूबसूरत लड़की थी। गौरवर्ण ज़मीला का गोल-मटोल चेहरा उस पर तीखे नैन-नक्श उसे जन्नत की हूर बनाते थे।
खाना खाकर अब्दुल रोज़ की तरह काम की तलाश में निकल पड़ा। अभी वह घर से थोड़ी दूर ही गया था कि शकीला मिल गई। दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे और जीवन साथी बनना चाहते थे।
“अब्दुल! तुम आज मेरे अब्बू से बात कर लो। घर में ऐसा ज़िक्र हो रहा था कि इस सरहदी गांव को छोड़कर किसी दूसरी जगह बसा जाए। फिर तो मेरा और तुम्हारा मिलना मुमकिन न रहेगा।”
“शकीला! तुम जानती हो कि मैं बिल्कुल बेकार हूं। कोई काम धंधा नहीं है मेरे पास। फिर मैं कौन-सा मुंह लेकर तुम्हारे अब्बू से बात करूं? पहले ही झटके में सब कुछ ख़त्म हो जाएगा।”
“फिर तुम कोई काम-धंधा क्यों नहीं ढूंढ़ लेते?”
“नहीं … मुझे शौक़ है बेकार घूमने का। यह जो सुबह से दो निवाले निगल कर निकल जाता हूं और पूरा दिन दर-ब-दर की ठोकरें खाता हूं मज़ा आता है मुझे ऐसा करने में…।” अब्दुल ने उसके अटपटे सवाल पर कटाक्ष किया, फिर थोड़ा रुक कर कहना जारी रखा, “घर पर अम्मी जान और यहां तुम … दोनों ही ऐसे समझती हो कि मैं सारा दिन आवारा घूमकर घर वापिस आ जाता हूं।”
“अच्छा बाबा-सॉरी! मुझे माफ़ कर दो। जाओ जल्दी से कोई काम ढूंढ़ लो। अल्लाह तुम्हें क़ामयाबी बख़्शे।” शकीला ने दोनों हाथ और आंखें आसमान की ओर उठाते हुए कहा।
अब्दुल के मन में यह रह-रह कर विचार आ रहा था कि यदि उसे कोई अच्छा-सा काम मिल जाता तो वह शकीला के अब्बू से उसका हाथ मांगने लायक बन जाता। पर सोचने से कभी मुरादें पूरी होती हैं भला। कुछ दूर चलने पर उसने देखा कि एक व्यक्ति उसका पीछा कर रहा है। पिछले चार-पांच दिन से वह इस व्यक्ति को देख रहा है। यहां तक कि अब्दुल जहां भी रोज़ाना ख़र्च के लिए छोटा-मोटा काम करता है वहां भी उस व्यक्ति की नज़रें उसे घूर रही होती हैं। आख़िर वह है कौन? वह व्यक्ति अब्दुल के लिए एक पहेली बन गया।
चलते-चलते वह व्यक्ति तेज़ क़दमों से उसके बराबर आ पहुंचा। “तुम्हें काम की तलाश है! मैं तुम्हें काम दिलवा सकता हूं।” उसने चलते-चलते ही पूछा।
“आप?? मुझे काम दिलवा सकते हैं आप? आप की बहुत मेहरबानी होगी साब।” अब्दुल चलते-चलते रुक गया।
“आओ मेरे साथ” कह कर वह व्यक्ति उसे अपने साथ ले गया। कितनी उलझन भरी राह थी वह कभी किसी इमारत के अन्दर से तो कभी मुंडेर-मुंडेर वह उसके साथ चलता रहा। जिस इलाके से वह जा रहा था उससे वह बिल्कुल अनजान था। काफ़ी देर बाद वे दोनों एक गुफा रूपी इमारत में दाख़िल हुए। उसने जिस व्यक्ति से मिलवाया, वह देखने में काफ़ी हट्टा-कट्टा था। बढ़ी हुई दाढ़ी और सफ़ेद लिबास में उसकी बड़ी-बड़ी लाल आंखें आग उगलती नज़र आ रही थीं।
“क्या काम कर सकते हो?” उसने पूछा।
“कुछ भी…।” अब्दुल ने कहा।
“कुछ भी…?” उसने शब्दों को चबाते हुए कहा।
थोड़ा रुककर फिर बोला, “हम जेहादी हैं। कश्मीर को आज़ाद करवाना हमारा मक़सद है। इसके लिए तुम्हें हमारे लश्कर में शामिल होना होगा”
“नहीं, नहीं। मैं यह नहीं कर सकता। मैं अपने देश के साथ गद्दारी नहीं कर सकता।” अब्दुल ने कहा।
“कौन-सा देश? किसका देश? काफिरों के देश को तू अपना देश कहता है। क्या दिया है उस देश ने तुम्हें? अपनी बहन का निकाह कैसे करेगा तू? कभी सोचा है तूने?” आंखें तरेरते हुए न जाने उसने हिन्दुस्तान के ख़िलाफ़ कितना ज़हर उगला। पर अब्दुल के दृढ़ मन को वह बदल न सका। इस डर से कि सीधे इनकार से उसका यहां से बाहर जाना मुमकिन न होगा- उसने सोचने के लिए वक़्त मांगा। वह व्यक्ति जो उसे वहां लेकर गया था, वापिस छोड़ने भी आया।
रात भर अब्दुल परेशान रहा। उसके मन में उठापटक चलती रही। घाटी छोड़ने के लिए उसकी अम्मी जान राज़ी नहीं। घाटी में रहकर इन मगरमछों से वैर अच्छा नहीं। वह करे भी तो क्या करे? सोचने के लिए वक़्त लेकर कल उसकी जान बच गई। परन्तु यदि वह सोचने या कोई उपाय ढूंढ़ने में दस दिन से ज़्यादा वक़्त लगाएगा तो उसकी जान भी जा सकती है। उसके बाद उसकी अम्मी और ज़मीला का क्या होगा?
“भाई जान! क्यों बेकार में चिन्ता करते हो? वक़्त से पहले और तक़दीर से ज़्यादा कभी किसी को कुछ नहीं मिलता। अपनी उम्मीद को बनाए रखो भाई जान। उम्मीदों के बलबूते पर ही बड़ी-बड़ी कामयाबियां हासिल होती हैं।”
“कब तक मुझको झूठा दिलासा देती रहोगी आपा? उम्मीद के आज और कल में एक दिन रोज़ चला जाता है।”
“अब्दुल बेटा! तू कल से कुछ ज़्यादा ही परेशान है? क्या बात है?” अब्दुल की मां ने निराशा से घिरे उसके चेहरे को देख कर कहा।
“अम्मी जान! यह घाटी छोड़कर कहीं और चला जाए। यहां कोई रोज़गार नहीं मिल सकता।”
“बेटे, जहां जाएंगे क्या वहां गारंटी है कि काम मिल जाएगा? फिर यहां मकान अपना है- किराया तो नहीं देना पड़ता। वहां तो मकान का किराया भी देना पड़ेगा। इतना आसान नहीं है बेटा एक जगह से दूसरी जगह जाकर बसना।”
“अम्मी! कितने लोग यहां से पलायन कर मैदानी इलाकों में चले गए हैं। कुछेक के कारोबार तो अच्छे चल गये हैं। फिर आप अपनी ज़िद्द पर क्यों अड़ी हैं अम्मी जान?”
“बेटे, ज़मीला का निकाह पढ़ा जाए। उसके बाद तू जहां कहेगा मैं चलूंगी।?”
यद्यपि मां के इस उत्तर के आगे अब्दुल कुछ नहीं बोल सका। वह कैसे कहे कि वह एक बड़ी मुसीबत में फंस गया है। कुछ लोग उसको अपने लश्कर में शामिल कर दहशतगर्द बनाना चाहते हैं।
“लो भाई जान! कुछ खा लो।”
“नहीं आपा! आज मन नहीं है।”
“कैसा? कुछ खाने का या बाहर जाने का?”
“मुझे भूख नहीं है आपा।”
“भाई जान! आप ज़रूर कुछ छुपा रहे हैं।”
“छोटा भाई आपा से कुछ छुपा सकता है? अच्छा मैं चलता हूं आपा। देखूं कोई काम मिले।” कह कर वह बाहर निकल गया।
अब्दुल का मन बड़ी तीव्र गति से चिन्तन कर रहा था। चलते-चलते उसे पता ही नहीं चला कब शकीला उसके सामने आकर खड़ी हो गई।
“अब्दुल! मेरे अब्बू ने मेरा निकाह पक्का कर दिया है। हम इसी हफ़्ते घाटी छोड़कर उसी शहर में जा रहे हैं, जहां मेरा निकाह होना तय हुआ है। उन लोगों ने ही अब्बू को रहने के लिए मकान दिलवाया है। मैं क्या करूं … अब्दुल? मैं तुम्हारे बिना ज़िन्दा नहीं रह सकती।” कह कर शकीला की आंखों से झरने के माफ़िक़ आंसू झरने लगे।
अब्दुल को तो जैसे बिजली का झटका लग गया हो। वह शकीला को कुछ कहे बिना वहां से तेज़ क़दमों से निकला। बाज़ार में कई आते-जाते राहगीरों से टकराया। फिर बेतहाशा दौड़ने लगा। वह बस्ती से बहुत दूर निकल गया। अचानक वह रुका और सोचने लगा कि आख़िर वह कहां जा रहा है? थोड़ी देर रुक कर उसने जंगल का रास्ता ले लिया। एक पेड़ के नीचे रुका और उसके तने से लिपट कर खूब ज़ोर-ज़ोर से रोया। उसके रोने से जंगल भी चीत्कार कर उठा। उसने सोचा कि शकीला के बिना वह ज़िन्दा नहीं रह सकता। अब आत्महत्या के सिवा उसके सामने कोई रास्ता नहीं। वह आत्महत्या का इरादा कर एक पहाड़ी की चोटी पर पहुंच गया जिसके दूसरी ओर कई सौ-मीटर गहरी खाई थी। पर तभी उसे अपनी आपा और अम्मी का ख़्याल आ गया। उसके बग़ैर उन दोनों का क्या होगा? कहीं दहशतगर्द…?
नहीं, नहीं … वह आत्महत्या नहीं करेगा। उसकी अम्मी और आपा की सारी उम्मीदें उसी से तो हैं। कभी उसे शकीला के बिना ज़िंदगी बेरंग लगती तो कभी अम्मी और आपा का ख़्याल उसे जीने को मजबूर करता। इसी अंतर्द्वन्द्व के चलते उसने निश्चय किया कि यदि वह मरेगा तो अपनी अम्मी और आपा के लिए इतना कुछ कर जाएगा कि उन्हें किसी के आगे हाथ फैलाने की ज़रूरत न रहे। उसे एकमात्र रास्ता दिखाई दिया … लश्कर में शामिल होने का। न चाहते हुए भी उसने लश्कर में शामिल होने का निर्णय ले लिया।
अब्दुल घर वापिस आ गया। उसके मन-मस्तिष्क में चल रहा तूफ़ान थम चुका था। आते ही नींद ने उसे अपनी आगोश में ले लिया। वह तीन-चार घंटे आराम से सोया। उठने के बाद उसने किसी से बात न की। अम्मी जान के पूछने पर उसने बता दिया कि उसको नौकरी मिल गई और वह कल से ड्यूटी पर जाएगा।
अब्दुल अगले दिन सुबह जल्दी ही अपने घर से निकला। रास्ते में वह व्यक्ति उसे मिल गया और अब्दुल ने उसके साथ चलने की सहमति जताई। दोनों घुमावदार रास्ते से पहले वाले स्थान पर पहुंचे। यह रास्ता पहले दिन वाले रास्ते से अलग था। उसने वह गुफा रूपी इमारत देखी पर आज यहां कोई नहीं था। वह इमारत सुनसान पड़ी थी। कुछ पल के लिए वहां रुका फिर उस व्यक्ति के साथ चल दिया। उस व्यक्ति ने बताया कि सुरक्षा कारणों से ठिकाने अक्सर बदलने पड़ते हैं। थोड़ी देर के बाद वे उस व्यक्ति के समक्ष थे जिसे वे ‘एरिया कमांडर’ कहते थे।
अब्दुल के कहे बिना ही वह व्यक्ति बोला, “बहुत अच्छा किया जो तुमने लश्कर में शामिल होने के लिए हां कर दी। वरना न तुम बचते और न तुम्हारा परिवार। तुम जितना ख़तरा मोल लोगे तुम्हारे ऊपर उतनी ही दौलत की बारिश होगी। हम लोग जेहादी हैं तो अपने लोगों के साथ ईमानदार भी।”
अब्दुल चुपचाप खड़ा उसकी बातें सुनता रहा। उसने बताया कि उन्हें एक मानव-बम की तलाश थी जो उसके रूप में पूरी हो गई। एक महीने बाद घाटी में गृहमंत्री का दौरा है जिसमें उसे अपना काम पूरा करना होगा। इसके लिए उनका संगठन उसके परिवार को पचास लाख रुपए देगा। पांच लाख अडवांस और पैंतालीस लाख काम पूरा होने पर। यदि काम को सही ढंग से अंजाम नहीं दिया गया तो उसके घर वालों को दुनियां से आज़ाद कर दिया जाएगा। इसके लिए तुम्हें बीस दिन की ट्रेनिंग दी जाएगी। जिसमें तुम्हें मानसिक रूप से इस काम के लिए तैयार किया जाएगा। फिर एक व्यक्ति की ओर मुंह करके बोला, “मौलाना इसे पांच लाख रुपए दे दो।” वह व्यक्ति एक बैग में पांच लाख रुपए लेकर आया और बैग अब्दुल के हवाले कर दिया। “आज तुम जा सकते हो, कल ट्रेनिंग पर आ जाना। मेरा आदमी तुम्हें ट्रेनिंग कैम्प ले जाएगा।” कह कर वह व्यक्ति अन्दर चला गया।
पांच लाख मिलने की खुशी मौत के साए में काफूर हो चुकी थी। परन्तु फिर भी एक तसल्ली तो थी कि उसकी अम्मी और आपा दर-दर की ठोकरें नहीं खाएंगी। अगली सुबह जब वह घर से निकला तो उसे एक अन्य व्यक्ति मिला जो ट्रेनिंग कैम्प में ले गया। हर काम में इतनी सावधानी बरती जा रही थी कि कई बार ऐसा लगा कि प्रत्येक आंख उस पर गड़ी हुई है। जहां थोड़ी-सी चूक हुई कि गोली सीने से पार।
एक आश्चर्यजनक बात अब्दुल को उसी रोज़ पता चली कि पिछले पूरे एक महीने से उसकी प्रत्येक गतिविधि पर बारीकी से नज़र रखी जा रही थी। एक-एक क्षण की रिपोर्ट उनके पास थी। यहां तक कि उसने कहीं भी लघु-शंका की तो उस का भी समय उनकी रिपोर्ट में मौजूद था। वह हक्का-बक्का रह गया। पता नहीं कितनी आंखें उसका पीछा करती होंगी और अब तो शायद उस पर ख़ास नज़र रखी जा रही थी। देश के गद्दारों में अब उसका नाम काले अक्षरों से लिखा जाएगा। एक-एक करके बीस दिन बीत गए। ट्रेनिंग पूरी हुई। उसे मानसिक रूप से दृढ़ कर दिया गया। हालांकि जिस घटना ने उसे दृढ़ किया था- वह तो शकीला का घाटी से पलायन और किसी ओर के साथ निकाह था। परन्तु फिर भी उसे ट्रेनिंग तो दी ही जानी थी। उनकी कोई ट्रेनिंग उसके दिलो-दिमाग़ से देश-भक्ति की लौ बुझा न सकी। अब्दुल जो कर रहा था वह उसकी मजबूरी थी। वह जानता था कि उसकी थोड़ी-सी चूक उसकी अम्मी और आपा की जान ले सकती थी। फिर भी वह ऐसी जुगत में था जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
पिछले बीस-पच्चीस दिनों से अब्दुल अपनी अम्मी और आपा से ठीक तरह से बात भी न कर सका। वह सुबह जल्दी ही घर से निकल जाता और रात को देर से घर को लौटता। कई बार तो उसकी अम्मी और आपा उसके घर लौटने से पहले ही सो जाती। वह इसलिए उनसे कटा-कटा रहता कि कहीं उसके ग़लत कारनामे की भनक उसकी अम्मी या आपा को न लग जाए। उसने शकीला के कारण मृत्यु का वरण किया था। परन्तु अब उसे शकीला का ख़्याल आए भी कई हफ़्ते गुज़र गए। ऐसा लगता था जैसे उसने कई हज़ार मीटर गहरी खाई में छलांग लगा दी हो और मौत उससे बस थोड़ी दूर हो।
बस एक रात बीच में रह गई। रात साढ़े ग्यारह बजे जब अब्दुल ने घर में क़दम रखा तो उसकी अम्मी जान और आपा सो चुकी थीं। उसने उनके भोले-भाले चेहरों को ग़ौर से देखा। कल इस रात की पुनरावृत्ति नहीं हो सकेगी। वह अभी अम्मी और आपा से बहुत कुछ कहना चाहता था। उसका मन कर रहा था कि वह उनसे खूब सारी बातें एक ही रात में कर ले। जी भर कर हंसे, जी भर के रोए। परन्तु वह मजबूर था क्योंकि भेद खुलने से उसकी अम्मी और आपा उसे कदापि ऐसा नहीं करने देती। उसने एक परचा लिया और उनके नाम एक पत्र लिखना शुरू कर दिया।
अम्मी जान और जान से प्यारी आपा,
खुदा तुम्हें सलामत रखे।
अम्मी! मेरे बार-बार कहने के बावजूद आपने घाटी से पलायन नहीं किया। यह मेरी बुज़दिली थी कि मैं बार-बार आपको ऐसा करने के लिए कहता था। मैंने ज़िंदगी में जो चाहा मुझे वो न मिला। शकीला के साथ निकाह की तमन्ना धरी की धरी रह गई। अपने वतन के लिए जान देने का सपना था। मेरी बदक़िस्मती देखिए अम्मी जान अब मेरी जान जा रही है तो मेरी तमन्ना के उल्ट। रोज़गार तलाशते हुए मैं ग़लत हाथों में पड़ गया। आप किसी मुसीबत में न फंस जाएं इसलिए मैंने यह काम करना स्वीकार कर लिया। मेरे इस काम का दूसरा कारण था- शकीला का किसी और से निकाह और घाटी से पलायन। सच बात तो यह है अम्मी कि मैं उस दिन आत्महत्या करने के लिए चला गया था। फिर सोचने लगा कि मेरे इस प्रकार मरने से आपको कुछ नहीं मिलेगा। आप दोनों दर-ब-दर की ठोकरें खाएंगी। क्यों न मैं उन लोगों का साथ देकर अपनी अम्मी और आपा के लिए कुछ पैसे छोड़ जाऊं। उन लोगों को एक मानव बम की ज़रूरत थी और मैंने यह काम करना स्वीकार कर लिया। इसके बदले उन्होंने पचास लाख देने का वादा किया है। पांच उन्होंने दे दिए हैं जो सन्दूक में रखे हैं। पैंतालीस काम हो जाने के बाद तुम्हें दे दिये जाएंगे। जब आपको यह रक़म मिल जाए तो घाटी से पलायन कर जाना अम्मी। ये लोग बहुत बुरे हैं। मैं बुज़दिल हूं। इसलिए ज़िंदगी से पलायन कर रहा हूं।
आपा के लिए कोई अच्छा-सा लड़का देख कर निकाह कर देना। कभी-कभी इस गद्दार बेटे को याद कर लिया करना। इस देश के लोग जहां अशफाक और अब्दुल हमीद जैसे लोगों के लिए सिर निवाते हैं वहीं तुम्हारे इस अब्दुल को जी भर गालियां निकाला करेंगे।
अम्मी मैं जो कर रहा हूं लाचारी में कर रहा हूं। मुझे माफ़ कर देना अम्मी। मेरी तरफ़ से मेरे वतन से भी माफ़ी मांग लेना अम्मी।
तुम्हारा अब्दुल।
उसने पत्र को पास रखे स्टूल पर रखा और उसके ऊपर एक किताब रख दी। सुबह वह जल्दी उठा। एक सरसरी नज़र अपनी अम्मी और आपा पर डाली और घर से बाहर निकल गया। वह जल्दी से उनके बताए स्थान पर पहुंचा। चूंकि गृहमंत्री के लिए बनाए जा रहे सभा स्थल पर प्रत्येक व्यक्ति की बारीकी से जांच की जा रही थी अतः अब्दुल को वहां एक गुप्त मार्ग से ले जाया गया। लोग इकट्ठा होना शुरू हो गए थे। उसका ध्यान सभी लोगों पर था। वह देख रहा था कि गृहमंत्री की इस सभा के लिए लोगों में क्या-क्या प्रतिक्रियाएं थीं। उनकी बातचीत से यह भी पता चला कि गृहमंत्री यहां आतंकवाद पीड़ित परिवारों को भी सहायता देंगे। तभी उसकी नज़र … “अरे नहीं। ये तो अम्मी और आपा हैं। ये यहां … क्यों चली आईं?… ऐ खुदा!… यह तू मेरा कैसा इम्तिहान ले रहा है? … उन्हें यहां से कैसे बाहर भेजूं?” उसने चारों तरफ़ अपनी नज़रें घुमाईं और अपनी अम्मी और आपा तक पहुंचने की कोशिश की। एक व्यक्ति ने बग़ल से निकलते हुए धीरे से उसके कान में कहा, “बेवकूफ़ी मत करो।” अब्दुल को लगा कि अब उसके साथ-साथ उसकी अम्मी और आपा दोनों की मौत निश्चित है। जिनके लिए उसने वतन से गद्दारी का ग़लत काम चुना जब वे नहीं बचेंगी तो वह वतन से गद्दारी क्यों करे? क्यों मानव बम बन कर मासूम लोगों की मौत का ज़िम्मेदार बने? वह किसी तरह अपनी अम्मी और आपा के पास जा पहुंचा।
“अम्मी? तुम यहां…? …क्यों?” उसकी सांस फूल गई थी। ठीक से बोला भी नहीं जा रहा था।
“मंत्री जी कुछ सहायता देने आए हैं बेटे तुम्हारे अब्बू को भी दहशतगर्दों ने मार डाला था। इसलिए हमें यहां बुलाया गया।… पर तू यहां? तू रात घर भी नहीं आया था?”
“अम्मी … तुम्हें अब मेरे साथ रहना है?” अपनी अम्मी के सवाल का सही जवाब न देकर उसने नज़रें चारों तरफ़ घुमाते हुए कहा। पास से गुज़र रहे एक पुलिसकर्मी को पकड़ वह धीरे-से उसके कान में फुसफुसाया। पुलिसकर्मी का संकेत मिलते ही अब्दुल, उसकी अम्मी और उसकी आपा को सुरक्षाबलों के जवानों ने घेर लिया। वहां छुपे दहशतगर्दों ने सुरक्षाबलों के जवानों और उन तीनों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। गृहमंत्री का सभास्थल बदल दिया गया। एक घंटे तक चली कार्यवाही में कुछ दहशतगर्द मारे गए तो कुछ को सुरक्षाबलों ने हिरासत में ले लिया। सुरक्षाबलों के भी दो जवान शहीद हो गए। अब्दुल की निशानदेही पर लश्कर संगठन के सभी ठिकानों पर छापे मारे गए। जहां से सुरक्षाबलों ने बहुत से दहशतगर्दों के साथ बहुत-सा गोला-बारूद तथा क़ीमती सामान बरामद किया।
सही समय पर प्रशासन की मदद करने और गृहमंत्री की जान बचाने के लिए अब्दुल को सरकार की ओर से एक लाख रुपए पुरस्कार स्वरूप दिए गए। सुरक्षाबल में एक जवान के रूप में उसकी भर्ती कर ली गई। उसकी अम्मी और आपा का मन घाटी से उखड़ चुका था। अब वे घाटी से पलायन करना चाहते थे। परन्तु अब्दुल अब वह घाटी छोड़ना नहीं चाहता था। अब उसका मक़सद घाटी से दहशत ख़त्म करना था। वह नहीं चाहता था कि दहशत के कारण घाटी से कोई पलायन करे।