-के.एस.डलहौजी

अधिकार और कर्त्तव्य का आपस में गहरा सम्बन्ध है। अधिकार और कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक के अभाव में दूसरा फीका पड़ने लगता है। ये तराजू के दोनों पलड़ों में डाले गए दो समान बाट की तरह हैं। जिस प्रकार दोनों पलड़ों के भार के अन्तर के कारण तराजू का सन्तुलन बिगड़ जाता है, उसमें हलचल मच जाती है। उसी प्रकार अधिकार और कर्त्तव्य में असन्तुलन के कारण आपसी सम्बंधों में तकरार होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

हमें एक का प्रयोग करते समय दूसरे को नहीं भूलना चाहिए।

सभी व्यक्तियों में अधिकार और कर्त्तव्य को वहन करने की अलग-अलग प्रवृत्ति होती है। कुछ अधिकारों का वहन अधिक करते हैं तो कुछ की कर्त्तव्यों में निष्ठा अधिक होती हैं। आप फ़र्ज़ को निभाते हुए अधिकार लेने मेें संकोच न करें। यदि आप ऐसा करते हैं तो आप अपने अधिकारों के प्रति उदासीन हैं। यह आपका कई स्थानों पर अहित भी कर सकता है।

दूसरी ओर यदि आप अपने कर्त्तव्य से विमुख रहते हैं तो लोगों में आपका महत्त्व कम हो सकता है। साथ ही आपको स्वतः ग्लानि का अहसास भी हो सकता है। दोनों पक्षों के लिए समान प्रयास ही उचित सिद्ध हो सकता है।

नारी में अधिकारों को वहन करने की अपेक्षा कर्त्तव्य निष्ठा बहुत अधिक होती है। प्राचीन काल में सीता, गांधारी, यशोदा और इसके अलावा मुन्शी प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद के नाटक, उपन्यास और कहानी के नारी पात्र इसके सशक्त उदाहरण हैं। आधुनिक समय में भी शहरी या ग्रामीण नारियों में यह बात देखी जा सकती हैं। ये कर्त्तव्य को प्राथमिकता देती हैं। वे अधिकारों का प्रयोग करने में संकोच करती हैं। कर्त्तव्य परायणता को नारीत्व मानती हैं। संभ्रांत परिवारों की और शिक्षित नारियों में भी यह बात देखी जा सकती है। अधिकारों को लेकर भी उनको उनके कर्त्तव्य के समान होना आवश्यक है। तभी इसमें ताल-मेल बैठाया जा सकता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*