Yeh Shantig Vtang Kya Hai Viang

-रिपुदमनजीत ‘दमन’

एक वह भी समय था जब यातायात का कोई साधन उपलब्ध नहीं था। व्यक्ति पैंया-पैंया चलते न जाने कितने दिनों बाद अपनी मंज़िल-ए-मक़सूद तक पहुंचता था। बेशक कुछ धनी व्यक्ति घोड़ों पर या रेगिस्तानों में ऊंटों पर भी सवारी करते थे परन्तु यह सुविधा एक आम आदमी की पहुंच के परे थी। धीरे-धीरे पहले बैलगाड़ियां और बाद में घोड़ा गाड़ियां अस्तित्त्व में आईं। पहाड़ी इलाकों में डांडियां होती जिन्हें आदमी अपने कंधों पर ले जाते या फिर रिक्शा जिन्हें आदमी ही खींचते। बहुत अरसे बाद कहीं रेलगाड़ी का उद्गम हुआ। अब रेलगाड़ी का ज़िक्र आया है तो अनगिनत दिलचस्प क़िस्से यादों में ताज़ा हो गए हैं।

बचपन में रेलगाड़ी की यात्रा के नाम पर ही शरीर में रोमांच हो जाता। एक-एक क्षण गिन-गिन कर बिताते कि कब वह दिन आएगा जब रेलगाड़ी में सवार होंगे। जब ट्रेन में बैठते और उसके चलने में तनिक देरी हो जाती तो हम भीतर बैठे-बैठे ही उसे धकेलते कि शीघ्र चले। जब ट्रेन चल पड़ती तो इतने प्रसन्न होते कि मानों यह हमारी ही कोशिशों का नतीजा है। खिड़की से गर्दन निकाल, इमारतों और पेड़-पौधों को ट्रेन के साथ-साथ भागते देखते तो बड़ा मज़ा आता। मां गु़स्सा करती कि सिर बाहर न निकालें, आंख में कुछ धूल या कंकड़ न चला जाए परन्तु हम कहां मानने वाले। हमारे नन्हे से मस्तिष्क में तो यह होता कि देखें हमारी ट्रेन अधिक तेज़ चल रही है या पेड़ पौधे और इमारतें।

पहले कुछ गिनी चुनी गाड़ियां ही चलती थी जैसे हावड़ा मेल, फ्रंटियर मेल और इक्का-दुक्का कुछ पैसिंजर ट्रेनें लेकिन आजकल तो रेलगाड़ियों का पूरे देश में जाल ही बिछा है। जब भारत पाकिस्तान का बटवारा हुआ था, हमारे चाचा उस समय का एक अत्यन्त रोचक क़िस्सा सुनाते हैं। तब ट्रेनों की खिड़कियों पर सलाख़ें नहीं होती थी। रेलगाड़ियां ठसाठस मुसाफ़िरों से भरी होती, यहां तक कि ट्रेन की छत पर भी इतनी भीड़ कि पांव तक रखने का स्थान न होता। यात्री दरवाज़ों और खिड़कियों पर लटके रहते। कई लोग तो छत और दरवाज़ों पर से गिर अपनी हड्डी पसलियां तुड़वा बैठते या फिर जान से ही हाथ धो बैठते। चाचा का एक मित्र था ज्योति, निहायत ही दुबला-पतला एकदम सुखड़ू-सा था, वे लोग उसे सींखिया पहलवान कहते थे। उसे हावड़ा मेल से लखनऊ जाना था। प्लेटफ़ार्म यात्रियों से खचाखच भरा था। ज्योति ने कुली को बुलाकर कहा, “क्यों भाई, कितने पैसे लोगे? सामान कितना है साब? कुली ने पूछा। बस मैं ही मैं हूं।” वह बोला, कुली ने उसे बड़ी दिलचस्प नज़रों से सिर से पैरों तक निहारा और मुस्कुरा कर बोला, “पूरे पांच रुपये जनाब।” उन दिनों पांच रुपये भी पांच हज़ार के बराबर हुआ करते थे। उनके मित्र ने कहा कि ठीक है और कुली का नम्बर नोट कर लिया और उसे ट्रेन आने पर सही समय पर आने को कह दिया। तभी कुली बोला, “लेकिन साब एक शर्त है। मैं पैसे एडवांस लूंगा।” ज्योति ने उसे पांच का नोट थमाया और चल दिया। ट्रेन आई। कुली समय पर पहुंच गया। उसने ज्योति को गोद में उठा ट्रेन की खिड़की के भीतर फेंक दिया और हाथ झाड़ता हुआ दूसरी सवारी की तलाश में चला गया। ट्रेन चली गई तो किसी ने पीछे से कुली के कंधे पर हाथ रख दिया। कुली ने मुड़ कर देखा और भौंचक्का-सा देखता रह गया, “अरे, यह तो वही व्यक्ति है जिसे मैंने ट्रेन की खिड़की के भीतर फेंका था।” ज्योति बोला, “लाओ मेरे पांच रुपये वापिस लौटाओ।” “लेकिन साब, मैंने तो आपको चढ़ा दिया था न। फिर आप यहां ….।” ज्योति बोला, “चढ़ा दिया था या मुझे कम्पार्टमेंट के भीतर फेंक दिया था? इधर तुमने मुझे अंदर फेंका, उधर लोगों ने मुझे नीचे पैर तक नहीं लगाने दिया और अपने सिरों के ऊपर ही ऊपर से दूसरी ओर की खिड़की से बाहर फेंक दिया।” उनका यह क़िस्सा सुन हम तो मारे हंसी के लोट-पोट हो गए।

हमारी डॉक्टर बुआ का तबादला नया-नया नैनीताल से मथुरा हुआ था। हम सभी चाचा ताऊ के बच्चे गर्मियों की छुट्टियां बिताने हर वर्ष बुआ के पास जाते थे। हम छटी कक्षा में पढ़ते थे उस वक़्त छुट्टियां आरम्भ होते ही हमने अपनी बड़ी दीदी (ताऊ जी की लड़की) जो हमारे स्कूल में पढ़ाती थी, के साथ मथुरा जाने का प्रोग्राम बना डाला। साथ में दीदी की एक सहेली भी थी जिसे दिल्ली तक जाना था। हम लोग मथुरा पहली बार जा रहे थे। दीदी अपनी सहेली संग गप्पें मारने में मशग़ूल थी और हम खुली आंखों से सपना देख रहे थे कि मथुरा से हम वृन्दावन, गोकुल, नन्दगांव बरसाना तथा आस पास के स्थान देखेंगे जहां भगवान् कृष्ण का बालपन बीता था। सब से अधिक आकर्षण तो था ताजमहल देखने का जो हम इतिहास में पढ़ते थे कि शहनशाह शाहजहान ने अपनी प्यारी बेगम मुमताज महल के लिए बनवाया था और आगरा था भी मथुरा के बहुत निकट। दीदी अपनी सहेली संग बतियाने में और हम अपनी ही कल्पनाओं में खोए कब दिल्ली पहुंच गए, पता ही नहीं चला। दिल्ली पहुंचते ही दीदी हमें यह हिदायत देकर कि अपना ध्यान रखें, अपनी मित्र को छोड़ने स्टेशन के गेट की ओर चल दी।

दीदी के जाते ही अकस्मात् हमें ऐसा एहसास हुआ जैसे ट्रेन चल पड़ी हो। हमने घबराकर खिड़की से बाहर झांका तो देखा कि पूरी की पूरी ट्रेन वहीं खड़ी है और इंजन केवल हमारी ही बोगी को लेकर एक ओर चल पड़ा है। हमारे तो पैरों तले से ज़मीन ही खिसक गई। हम चीख-चीख कर दीदी को आवाज़ देने लगे जो अपनी मित्र संग हमारी नज़रों से ओझल हो रही थी। लेकिन वो इतने शोर-शराबे में हमारी आवाज़ सुनती भी तो कैसे? हम फूट-फूट कर रोने लगे। सोचा अब हमारा क्या होगा? दीदी तो हमसे बिछड़ गई हैं हम अकेले क्या करेंगे। तभी देखा इंजन हमारी बोगी समेत वापिस प्लेटफ़ार्म की ओर लौट रहा है। हृदय को तनिक ढाढ़स बंधा और हम लपक कर डिब्बे के द्वार पर जा खड़े हुए। उधर जब दीदी अपनी मित्र को छोड़कर लौटी तो स्तब्ध रह गई कि बाक़ी की ट्रेन तो खड़ी है पर हमारा कम्पार्टमेंट इंजन समेत नदारद था। वो पागलों की न्याई हमें प्रत्येक डिब्बे में ढूंढ़ रही थी। उसका चेहरा मारे भय के पीला पड़ गया और आंखों में आंसू भर आए। वो सोच रही थी कि जब वो हमारे बिना घर पहुंचेगी तो सब घर वालों को क्या जबाव देगी। हमें साथ न देख कर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी। तभी इंजन हमारी बोगी सहित लौट कर प्लेटफ़ार्म के निकट पहुंचा। दीदी भाग कर बोगी की ओर लपकी, लेकिन इससे पूर्व कि बोगी प्लेटफ़ार्म तक पहुंचती, इंजन फिर दूसरी दिशा में लौट गया। ऐसा अजीब आलम था कि हमारे पास अलफ़ाज़ नहीं ब्यां करने को। इधर हम बिलख-बिलख कर रो रहे थे और उधर दीदी। हम दोनों बहनें एक दूजे को मायूसी से देख रहीं थी। तीन-चार बार फिर ऐसा ही हुआ। इधर हमारी बोगी प्लेटफ़ार्म की ओर आती, उधर से दीदी भागती और प्लेटफ़ार्म पर लगने से पहले ही इंजन हमारे डिब्बे को लेकर वापिस चला जाता। अब तक हमारी रुलाई हिचकियों में बदल चुकी थी।

इस बार जब इंजन प्लेटफ़ार्म की ओर आया तो दीदी बेतहाशा भागती हुई कम्पार्टमेंट की तरफ़ लपकी। दूसरी ओर हमने बोगी के प्लेटफ़ार्म तक पहुंचने से पूर्व ही बाहर छलांग लगा दी। हमारे घुटने बुरी प्रकार छिल गए। पर हमें कोई ग़म नहीं था। दीदी ने उठाकर हमें गले से लगा लिया और हम दोनों बहनें एक दूसरे से लिपट ऐसे फूट-फूट कर रो रहीं थी मानों वर्षों से बिछड़े मिले हों। लेकिन हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब इस बार इंजन डिब्बे को लेकर वापिस नहीं लौटा बल्कि वहां खड़ी एक और ट्रेन के साथ जा जुड़ा। हम लोग जिस मानसिक यातना से गुज़रे थे, उससे बाहर नहीं आ पा रहे थे। उसके बाद तो हम दोनों ऐसे एक-दूजे की बांहों में दुबके बैठे रहे कि कहीं फिर से जुदा न हो जाएं।

जैसे-तैसे मथुरा पहुंचे। स्टेशन पर मां और बुआ दोनों लेने आई हुई थी। हम लोगों के उतरे हुए पीले चेहरे तथा सूजी हुई आंखें देख सभी हैरत में पड़ गए। हम लोगों से जब इसका कारण पूछा गया कि आख़िर ऐसी कौन-सी बात हो गई जो हम बेहाल हुए पड़े हैं। डर के मारे हमारे शरीर में सिहरन होने लगी और हमारी आंखों के समक्ष फिर वही मंज़र उभर आया। हम देनों ने एक बार फिर एक-दूसरे को बांहों में जकड़ लिया और हिचकियां लेते हुए तमाम दास्तान कह सुनाई। हमारे आश्चर्य का उस समय ठिकाना न रहा जब बजाए हमारे साथ सहानुभूति प्रकट करने के सब लोग हंस-हंस कर हमारा मज़ाक उड़ा रहे थे। हम समझ नहीं पा रहे थे कि आख़िर क्या राज़ है? क्यों वे सब बेवजह हंसे जा रहे थे? हम हैरत अंगेज़ आंखों से, भयभीत से उन्हें देखे जा रहे थे। तभी बुआ बोल उठी, “सुन राजी, ये तो अभी बच्ची है, तुम तो शिक्षा विभाग में नौकरी करती हो, तुम्हें तो मालूम होना चाहिए था कि इंजन शंटिग कर रहा था,” “शंटिग?” दीदी आश्चर्यचकित हो बोली, “ये शंटिग क्या बला होती है?” मैं तो यह शब्द ज़िंदगी में पहली बार सुन रही हूं। हम भी अचरज भरी निगाहों से बुआ को निहार रहे थे। तब बुआ ने समझाया, “जब किसी बोगी को किसी दूसरी ट्रेन से जोड़ना होता है तो इंजन उस बोगी को लेकर भिन्न-भिन्न रेलवे लाइनों पर आगे-पीछे घूमता है और अन्त में उसे जिस लाइन पर दूसरी ट्रेन खड़ी होती है, उससे जोड़ देता है। फ्रंटियर-मेल एक बोगी को दिल्ली से मथुरा जाने वाली ट्रेन से जोड़ देते हैं। यही होती है शंटिग। समझी बुद्धूराम।”

अब आश्चर्यचकित होने की बारी हमारी थी। हमें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। हमारे लिए तो यह रहस्योद्घाटन जैसा विश्व का आठवां अजूबा था। आज भी जब हम किसी रेलवे इंजन की शंटिग करते देखते हैं तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और हमारे चक्षुओं के समक्ष वही दृश्य साकार हो उठता है। साथ ही अपनी मूर्खता पर हंसी भी आती है। और तो और, जब भी दीदी अमेरिका से आती है तो इस घटना या फिर दुर्घटना कहूं तो बेहतर है, का ज़िक्र अवश्य होता है। तब दीदी और हम हंसते-हंसते बेहाल हो जाते हैं।

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