-माधवी रंजना

बदलते समाज में कई तरह की पुरानी मान्यताएं टूट रही हैं। किसी ज़माने में औरत को हमेशा किसी पुरुष के साथ ही संरक्षण की ज़रूरत होती थी। अब वह ज़माना नहीं रहा। इक्कीसवीं सदी में नारी की छवि मज़बूत होकर उभरी है। रोज़गार के कई नए क्षेत्रों में प्रवेश ने उसके आत्मसम्मान को बढ़ाया है। ऐसे में समाज में ऐसी महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है जो सारा जीवन अकेले गुज़ार देना चाहती हैं। पुरुषों के मामले में हमेशा से इस तरह के उदाहरण सुनने में आते थे पर महिलाओं के बारे में ऐसा कम ही सुना जाता था। पुरातन भारतीय मानसिकता के अनुसार स्त्री को बचपन में पिता के संरक्षण में और जवानी में पति के संरक्षण में तो बुढ़ापे में बेटे के संरक्षण में रहना चाहिए। पर अब नारी वैसी अबला नहीं रही जिसे हर वक़्त किसी के संरक्षण की ज़रूरत हो। आज के दौर में खुद धनोपार्जन करने वाली महिला हर तरह से अपना संरक्षण करने में सक्षम है। वह खुद अस्पताल भी जा सकती है, लंबी यात्राएं भी कर सकती है। वह न सिर्फ़ अपना बल्कि अपने परिवार का भी पालन कर सकती है। सुरक्षित बुढ़ापे के लिए वह बीमा योजनाओं और मेडिकलेम पॉलिसियों का सहारा ले सकती है। वह अच्छा ख़ासा धन जमा करके अपना बुढ़ापा सुरक्षित कर सकती है। ऐसे में समाज में कई ऐसी महिलाएं भी देखने को मिल रही हैं जो विवाह जैसे बंधनो में बंधना नहीं चाहती। कई बार विदुषी महिलाओं को अपनी ही तरह का कोई साथी नहीं मिलता जिसके साथ वह सारा जीवन गुज़ार देने की बात सोच सकें। ऐसा कई विदुषी महिलाओं के साथ हुआ है कि शादी के बाद उनकी पति से नहीं पटी, उसके बाद वे दोनों अलग हो गए और अपने कैरियर के साथ वे एकाकी जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं। दिल्ली और मुंबई सरीखे शहरों में कई कैरियर ओरिएंटल महिलाएं ऐसी हैं जो एकाकी जीवन बिता रही हैं। कई महिलाएं इसको कोई मजबूरी नहीं मानतीं। कई बार हिपोक्रेट मानसिकता का पुरुष अपनी पार्टनर को कैरियर में अपने से ज़्यादा सफल नहीं देखना चाहता तो कई बार अपनी पत्‍नी से यही अपेक्षा रखता है कि उसकी पत्‍नी घर और बच्चों को ज़्यादा समय दे, जबकि कैरियर वुमेन के व्यवहार में इस तरह की संभावना नहीं होती। ऐसे में महत्वाकांक्षी महिलाओं के लिए एकाकी जीवन कोई आश्‍चर्यजनक घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। अगर हम प्राचीन भारतीय दर्शन का हवाला भी लें तो यह पता चलता है कि वेदों में लिखा है कि पुत्र और पुत्री अगर अतिशय विद्वान हो जाते हैं तो उनके लिए विवाह जैसे बंधनो की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। ऐसे लोग सारा जीवन अकेले गुज़ार सकते हैं। जिस तरह राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी, मायावती और कांशीराम जैसे उदाहरण हैं वैसे ही उदाहरण किसी भी सफल पेशे में हो सकते हैं दरअसल सारी मान्यताओं को ढोने का ज़िम्मा मध्यम वर्ग के पास ही होता है। विद्वान व्यक्‍त‍ि के साथ दिक़्क़त होती है कि उसके विचार हर किसी से मेल नहीं खाते इसलिए वह किसी का साथ लंबे समय तक निभा नहीं पाता। उसके लिए समझौता करना मुश्किल होता है। ऐसे में कोई रिश्ता जोड़ने और उसके दु:खद अंत होने से अच्छा अकेले जीवन गुज़ार देना ही है। हम भले ही ऐसी चीज़ों को सामान्यकृत नहीं कर सकते, यह नहीं कह सकते हैं कि समाज इसी ओर बढ़ रहा है, पर हमें यह स्वीकारना पड़ेगा कि समाज में ऐसा हो रहा है। हमें इस तरह के उदाहरणों को नारी के उभरते स्वाभिमान और उसके मज़बूत होते क़द के रूप में देखना चाहिए, किसी नकारात्मक रूप में नहीं।

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