-गोपाल शर्मा ‘फिरोज़पुरी’

हमारे समाज की यह परम्परा है कि जैसे ही लड़की जवान होती है उसके हाथ पीले करने की ज़िम्मेदारी माता-पिता को पहाड़ उठाने के बराबर लगती है। कन्यादान का यह बोझ दिनों-दिन दीमक की भांति माता-पिता को अंदर ही अंदर खोखला करता रहता है। इस उत्तरदायित्व को निभाने हेतु, पुरुष की घिनौनी मांग के फलस्वरूप कितनी मासूम लड़कियों के साथ खिलवाड़ हुआ, कितना शारीरिक शोषण हुआ इतिहास के पन्ने दु:खद कहानियों से भरे पड़े हैं। कभी कमसिन बाला किसी अधेड़ की शारीरिक भूख का शिकार हुई तो कभी दहेज़ का दानव उसे ज़िन्दा निगल गया। कभी ससुराल में विपदाओं की चक्की में पिसती रही तो कभी पति परमेश्वर ने उसे दासी समझकर तिल-तिल मरने पर मजबूर किया। उसको घरेलू कार्य करने वाली मशीन समझकर उसका मनोबल गिराया गया। कभी उसे बच्चे पैदा करने वाली सम्भोग की वस्तु समझा गया। यह शायद इसलिए सम्भव हुआ कि युवती को विवाह की बलि पर चढ़ाना अनिवार्य समझा गया। उसकी इच्छा विवाह करने की है या नहीं यह फ़ैसला सदैव उससे छीना गया। सदियों से उसे डोली में बिठा कर इतना कह कर छुटकारा पा लिया गया, जा तुझ को सुखी संसार मिले। फिर उसका इस क़दर परित्याग कर दिया कि पति और ससुराल से प्रताड़ित होने पर उसकी पुकार माता पिता ने भी नहीं सुनी।

आधुनिक संदर्भ में नारी किसी भी क्षेत्र में पुरुष से कम नहीं है। सभ्य समाज की स्थापना में नारी का योगदान पुरुष से कहीं भी न्यून नहीं है। अगर यह कहा जाए कि नारी पुरुष की हर चुनौती को स्वीकार करने में समर्थ है तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। पुरुष सदियों से जैसे दासी समझकर उसकी आबरू से खिलवाड़ करता रहा है वह आज की नारी को स्वीकार्य नहीं है।

जिस विवाह बन्धन में बंध कर नारी नारकीय जीवन बिताती रही और ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़कर पति परमेश्वर के आगे नतमस्तक होती रही वे आडम्बर और खोखले रीति रिवाज़ आज शिक्षित नारी को पसंद नहीं।

संवैधानिक अधिकारों की स्वामिनी आज की नारी ने शिक्षा रोज़गार राजनीति में बराबर की हिस्सेदारी के साथ-साथ चिकित्सा इंजीनियरिंग, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, कला संगीत और प्रशासनिक कार्यों में भी उपलब्धियां प्राप्त कर ली हैंं। उसकी नारी शक्ति का लोहा और सिक्का आज समूचे संसार को आश्चर्य चकित करने लगा है। आज वह ऐसे विवाह बंधन में बंधना नहीं चाहती जिसमें उसका अस्तित्त्व तक स्वीकार न हो। वह अब पुरुष का बिस्तर गर्म करने वाली वस्तु नहीं है जिस पर कोई पुरुष बाज़ की तरह झपट कर उसका मांस नोचता रहे। पुरुष आजीवन कुंवारा रह सकता है तो नारी भी कोई मिट्टी का ढेला नहीं जो आसानी से टूट जाए। वह अगर विवाह नहीं करवाना चाहती तो उसके लिए भी प्रतिबन्ध नहीं है। उसकी स्वेच्छा का दमन आज कोई नहीं कर सकता। वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र है, उसको विवाह के लिए बाध्य करना केवल मूर्खता है। नारी का हृदय जितना संवेदनशील है तो उतना सशक्त और कठोर भी है। वह अपने हठ के कारण सृष्टि में बहुत शक्तिशाली मानी जाती है। उसकी इच्छा के विपरीत कोई कार्य नहीं किया जा सकता। यदि वह अविवाहित रह कर सुख का आभास प्राप्त करना चाहती है तो उसे क्यूं विवश किया जाए। वह ज़माना चला गया जब यह कहा जाता था कि विवाहित पुरुष या स्त्री अविवाहित स्त्री-पुरुष से समाज की अधिक सेवा करते हैंं। आज का ढांचा तबदील हो गया है। अब लड़की शिक्षित है अपने पैरों पर खड़ी हो गई है। वह न मां-बाप पर बोझ है न रिश्तेदारों पर। ऐसे में वह पुरुष की ग़ुलामी क्यूं झेले? किस लिए वह ससुराल में प्रताड़ित होने के लिए जाए? क्यूं वह पुरुष से अपना यौन शोषण करवाए जो उसे सेक्स की, हवस मिटाने वाली वस्तु के रूप में उपयोग करता है। वह अपने मां-बाप के लिए दहेज़ की समस्या का कारण क्यूं बने? किस लिए बूढ़े मां-बाप की चिन्ता का सबब बन कर उनसे सुःखद जीवन छीन ले। वह ऐसे प्रणय सूत्र में बंधना नहीं चाहती जिससे उसका जीवन एक नर्क बन कर रह जाए।

वह तो अपने मां-बाप की लाठी बनना चाहती है और यह सिद्ध करना चाहती है कि पुत्र ही नहीं अपितु पुत्री भी वृद्धों को संभालने की हिम्मत रखती है। सेक्स पर विजय पाना उसके लिए कठिन कार्य नहीं है। योग-नियोग विधि-विधान और परंपराएं उसको पराजित नहीं कर सकती, भू-गर्भ और आसमान की बुलन्दियों को छू पाना उसके लिए असम्भव नहीं है। किसी को विवाह करवाने में आनन्द हैै तो किसी को अविवाहित रहने में, अपनी-अपनी मर्ज़ी अपनी-अपनी सोच और अपनी-अपनी मंज़िल है।

अविवाहित रहने का तात्पर्य यह भी नहीं कि उसने साध्वी बन कर या तपस्विनी बन कर समाज से विरक्त हो जाना है उसने तो समाज की सेवा में नए-नए आयाम उत्पन्न करने हैं। खून दान कैम्प, चिकित्सा शिविर, वृक्षारोपण, धर्म के आडम्बर मिटाने, शिक्षा संस्थान, अमन की समीतियां, पत्रिकाओं का सम्पादन तथा विकास कार्यों का संचालन करना है।

विवाहित नारी तो केवल संतान उत्पन्न करके अपने परिवार का भरण-पोषण करती है परन्तु अविवाहित नारी समाज और मानव कल्याण हेतु अपने जीवन को समर्पित करती है। उसको न तो पुत्र मोह होता है और न उसे आने वाले समय के लिए धन संचय करने की ज़रूरत होती है उसका कार्य सर्वहितकारी होता है तथा वह वर्तमान में जीती है।

मगर वह इस प्रकार स्वतंत्र जिए कैसे? पुरानी परम्पराओं को तोड़ना कोई सुलभ कार्य नहीं है। सदियों से बंधी हुई इस डोर से नारी के लिए यह कार्य अति जोखिम भरा है। पग-पग पर संदेह उसके प्रति भ्रमित करने वाला है। अपने और पराए लोगों के प्रहार बर्दाश्त करने वाला है। यह मार्ग कांटो से छलनी करने वाला है परन्तु जो परम्पराओं को तोड़ कर नया रास्ता खोजता है नए इतिहास का सृजन वही कर सकता है जो क़ाफ़िले में शामिल न होकर स्वयं क़ाफ़िले को अपनी ओर आकर्षित करता है वही सही अर्थों में राष्ट्र का निर्माण करता है।

नारी का अविवाहित रहना पुरुष वर्ग पर एक करारी चपत है वह यह जताना चाहती है कि अब वह किसी आततायी की वधू नहीं बनना चाहती। वह पुरुष की चिकनी चुपड़ी बातों का शिकार होना नहीं चाहती।

अविवाहित रहकर वह देश की कई समस्याओं का समाधान भी करना चाहती है। बढ़ती हुई आबादी जो सभी प्रकार की समस्याओं की जड़ है उसे रोकने का यह भी एक ढंग हो सकता है। अविवाहित नारियों का यह क़दम देश के लिए एक वरदान हो सकता है। इस प्रकार का इरादा रखना हर लड़की के वश की बात नहीं ‘क्योंकि…’ क्योंकि लड़की के अविवाहित रहने पर उसके चरित्र पर छींटाकशी अवश्य होगी। तरह-तरह के कटाक्ष, कई प्रकार की फब्तियां उस पर कसी जाएंगी। घिनौने और ओछे लांछन भी लगेंगे। परन्तु यदि उस ने समाज का उत्थान करना है तो इस प्रकार की चुनौती को स्वीकार करना ही होगा। बलिदानी के बिना तो देश को आज़ादी भी हासिल नहीं हुई। नारी को अपना कुछ वर्ग इस प्रकार की क़ुर्बानी देने को तैयार करना होगा जो स्वच्छंद और स्वतंत्र विचारों से जी सके।

यह एक अहिंसावादी आन्दोलन है जो पुरुष वर्ग को झिंझोड़ कर रख देगा। और सोचने पर मजबूर कर देगा कि नारी की इस प्रतिक्रिया के पीछे छिपा मन्तव्य क्या है। वह पुरुष के प्रति इतनी उदासीन क्यूं हो गई है।

जब पुरुष अपना अन्तर्मन टटोलेगा तो नारी के प्रति की गई ज़्यादतियां उसके अन्तर्मन को धिक्कार और ग्लानि से भर देंगी।

नारी का यह संकल्प पुरुष को अपना माथा रगड़ने पर मजबूर कर देगा।

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