भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही नारी को शक्‍ति के प्रतीक के रूप में प्रतिबिम्बित किया जाता रहा है। विश्‍व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में नारी को देवी का स्वरूप कहा गया है। वैदिक व पौराणिक ग्रन्थों में नारी को शक्‍ति स्वरूपा कहकर प्रतिष्‍ठ‍ित किया गया है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में नारी शक्‍ति की स्तुति की जाती रही है। महिषासुरमर्दिनी मां दुर्गा को शक्ति का प्रतीक माना जाता रहा है।

समय-समय पर भारतीय नारियों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी अदभुत शक्‍ति व क्षमताओं के बल पर समाज को नई दिशा दी है। मां सीता, मां यशोदा, भामती, गार्गी, माता जीजा बाई, माता गुजरी से लेकर रज़िया सुल्तान, चांद बीबी, महारानी लक्ष्मीबाई, रानी चेन्नमा, अहिल्याबाई, दुर्गा भाभी, सरोजिनी नायडू, अरूणा आसफ अली, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, विजय लक्ष्मी पंडित, अमृत कौर, सोनल मान सिंह, सुब्बु लक्ष्मी, अमृता प्रीतम, लता मंगेशकर, श्रीमती इंदिरा गांधी, किरण बेदी, बछेन्द्री पाल, संतोष यादव, पी.टी.ऊषा, मल्लेश्‍वरी, कल्पना चावला, सुनीता विलयम्स, इन्दिरा नूई और भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल तक अनेक भारतीय नारियों ने उच्च आदर्शों और अभूतपूर्व दक्षता एवं क्षमता का परिचय देते हुए विभिन्न कालखण्डों में विभिन्न क्षेत्रों में समाज व देश को एक नई और सकारात्मक दिशा दी है।

वैदिक काल में भले ही नारी को पुरुषों के समान दर्जा व सम्मान हासिल था लेकिन मध्यकाल में परिस्थितियां बदलीं और नारी की स्थिति बद से बदतर होती गयी। मनुष्य की जननी और पोषिका नारी को धीरे-धीरे घर की चारदीवारी तक सीमित करते हुए पुरुषों के समान अधिकारों से वंचित कर दिया गया। कई शताब्दियों तक निरन्तर महिलाओं के अधिकारों का उत्तरोत्तर क्षरण होता रहा और पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर लिए जाने वाले निर्णयों में उसे भागीदारी करने से पूर्णत: वंचित रखा गया।

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में महिलाओं की स्थिति में आंशिक परिवर्तन आना आरम्भ हुआ। कतिपय अपवादों को छोड़कर बहुत कम महिलाएं घर की चारदीवारी लांघने का साहस जुटा पायीं। स्वतन्त्रता प्राप्‍ति के बाद परिदृश्य कुछ बदला। 15 अगस्त, 1947 को मध्यरात्रि को तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपने प्रथम भाषण में कहा था- ‘हम इस आज़ादी को सबके बराबर की हक़ वाली आज़ादी में बदल कर रहेंगे।’ भले ही संविधान में जाति, धर्म, लिंग, वर्ण, रंग आदि के आधार पर भेदभाव को असंवैधानिक घोषित किया गया लेकिन अन्य कई प्रकार के भेदभावों के साथ-साथ, नारियां लिंग के आधार पर जन्मकाल से आरम्भ हुए भेदभाव को, कार्यस्थलों की दहलीज़ पर क़दम रखने तक झेलने के लिए कमोबेश आज भी अभिशप्‍त हैं।

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के आरम्भिक दशकों में विश्‍वभर की नारियों के साथ-साथ भारतीय नारियां भी पुरुषों के बनाये खोल से बाहर आने को उद्यत हो उठीं। नारी मुक्‍ति आन्दोलनों की विश्‍वव्यापी बाढ़ सी आ गयी। भारत भी इससे अछूता न रहा। नारियों में शिक्षा प्राप्‍ति व अपने अधिकारों के प्रति चेतना जागृत होने लगी। अतार्किक सामाजिक बंधनों को तोड़ हज़ारों वर्षों की दासता से मुक्‍ति पाने की हसरत उनमें पैदा हुई।

आर्थिक विवशताओं, आर्थिक स्वावलंबन की इच्छा एक स्वतन्त्र व्यक्‍तित्व बनकर पुरुषों के समकक्ष या उनसे भी आगे बढ़ने की चाहत ने भारतीय नारियों को विभिन्न कार्यक्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने व अपनी उपयोगिता सिद्घ करने के लिए प्रेरित किया। कामकाजी महिलाओं की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्घि हुई। विशेषकर 1980 के बाद के दशकों में सम्पूर्ण भारत में पुरुष रोज़गार की तुलना में महिला रोज़गार में वृद्घि की दर में अपेक्षाकृत तेज़ी आई। राजस्थान व मध्य प्रदेश में अवश्य महिलाओं का प्रतिशत रोज़गार की दृष्‍टि से कुछ प्रतिशत कम हुआ। भारत भर में महिलाओं को उपलब्ध रोज़गार अवसरों की बात की जाए तो शिक्षा सम्बन्धी सुविधाओं के चलते शहरी महिलायें, ग्रामीण महिलाओं की अपेक्षा निश्‍चय ही लाभ की स्थिति में रही हैं। शहरों में कामकाजी महिलाओं की संख्या में उत्साहजनक वृद्घि हुई है। शिक्षा व शहरीकरण के विस्तार की रोज़गार के अवसरों को बढ़ाने में उल्लेखनीय भूमिका रही है।

स्वतन्त्रता प्राप्‍ति के विगत छ: दशकों में भारतीय नारियों ने देश में उपलब्ध कार्यक्षेत्रों में तेज़ी से अपना स्थान बनाया है। वर्षों तक महिलाओं के लिए बंद रहे सेना जैसे कतिपय कठिन कार्यक्षेत्र में उन्होंने ज़ोरदार दस्तक दी है। घर की चारदीवारी से बाहर निकल राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद तक पहुंचने का श्रमसाध्य मार्ग भारतीय नारियों के स्वेदबिंदुओं से सिंचित है। भारतीय कामकाजी नारियों ने वैश्‍विक स्तर पर देश को मान प्रतिष्‍ठा दिलायी है। विज्ञान, प्रशासन, सैन्य, उद्योग, राजनीति, शिक्षण, चिकित्सा, शोध व खेल सहित सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में उन्होंने दक्षता, जुझारू तेवरों और ग़ज़ब की संघर्ष क्षमता के बलबूते नव आयामों का संस्पर्श किया है। भारतीय कामकाज़ी महिलाओं के देश की प्रगति में योगदान की विस्तृत चर्चा करना यहां संभव नहीं है।

स्त्री-पुरुष किसी भी समाज रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं जिसे निरन्तर, निर्बाध व सुचारू रूप से चलायमान रखने के लिए उन्हें शिक्षित व स्वस्थ होने के साथ-साथ समानाधिकारों से वास्तविक रूप में सुसज्जित होने की महती आवश्यकता है। स्वतन्त्रता प्राप्‍ति के पश्‍चात् महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष समानाधिकार दिलाने की संवैधानिक व्यवस्था व समय-समय पर किये गये सरकारी प्रावधानों के पश्‍चात् भी देश के विभिन्न कार्यक्षेत्रों से सम्बन्धित कार्यस्थलों पर कामकाजी नारी स्वयं को आज भी विभिन्न रूपों में भेदभाव की शिकार पाती है। सामाजिक समानता के खोखले दावों के बीच आज भी वह असमानता के दंश झेलती है।

महिला चाहे श्रमजीवी हो या फिर बुद्घिजीवी, दोनों को ही अपने-अपने कार्यस्थलों पर कई तरह की कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। भारत के गांवों, छोटे क़स्बों व छोटे शहरों की अधिकांश कामकाजी महिलायें असंगठित और प्राय: जोखिम भरे क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं। उन्हें आज भी पुरुषों की अपेक्षा कम मज़दूरी पर संतोष करना पड़ता है। नियोक्‍ता द्वारा उत्पीडऩ व सुविधाओं के अभाव का सामना करना पड़ता है सो अलग।

कामकाजी महिलाओं को कार्यस्थलों तक आने-जाने व कार्यस्थलों पर काम करते हुए भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उद्योगों में काम करने वाली महिलाओं को अनेक ज़‍िल्लतें झेलनी पड़ती हैं। वे असुरक्षाबोध से ग्रस्त रहती हैं। जहां उन्हें ज़रा सी ग़लती पर निकाले जाने का भय सताता है वहीं उन्हें अन्य पीड़ाओं का भी सामना करना पड़ता है। यदा-कदा यौन उत्पीड़न की घटनायें भी प्रकाश में आती रहती हैं। कपड़ा उद्योग व रबड़ उद्योग में काम करने वाली महिलाएं बहुधा बीमारियों का शिकार हो जाती हैं। बहुत कम उद्योगों में समुचित चिकित्सा की व्यवस्था होती है। उद्योगों में कार्यरत कामगार महिलाएं अनेक प्रकार की बंदिशों व आर्थिक भेदभाव की भी शिकार होती हैं।

सरकार ने अनेक कार्यस्थलों पर रात्रि की पाली में काम करने की अनुमति तो महिलाओं को प्रदान कर दी है लेकिन उन्हें समुचित सुरक्षा दिलाने में अभी तक पूर्णत: सफल नहीं रही है। दूरसंचार व सूचना तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या तीव्र गति से बढ़ी है लेकिन पर्याप्‍त सुरक्षा के अभाव में विशेषकर रात्रिकालीन पाली में काम करने वाली महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटनायें यदा-कदा प्रकाश में आती रहती हैं। कई महिलाओं को जान से भी हाथ धोना पड़ा है। उन्हें समुचित सुरक्षा उपलब्ध कराना सरकार व सम्बन्धित कम्पनी का दायित्व है।

स्वतन्त्रता प्राप्‍ति के 45 वर्षों तक सैन्य सेवाओं के दरवाज़े भारतीय महिलाओं के लिए बन्द रहे। महिला संगठनों द्वारा पुरज़ोर तरीक़े से आवाज़ बुलन्द करने के बाद 1992 में सेना में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति मिली लेकिन आरम्भ से ही महिलाएं सेना में भेदभाव की शिकार रहीं। उन्हें अस्थायी कमीशन की पात्र ही समझा गया। 16 वर्ष तक यही स्थिति जारी रही। इस भेदभाव के विरुद्घ आवाज़ उठाने पर इसी वर्ष महिलाओं को सेना में स्थायी कमीशन देने की अनुमति प्रदान की गई। भले ही उनकी कार्यावधि पुरुष सहकर्मियों के समकक्ष हो जायेगी लेकिन अभी भी वे युद्घ के मोर्चे पर जाने, टैंक व युद्घक विमान चलाने से वंचित रहेंगी। संभवत: अभी भी अदभुत क्षमता की धनी महिलाओं पर सरकार को पूरी तरह भरोसा नहीं है। सैन्य सेवाओं में भी महिलाओं को मानसिक हिंसा व यौन उत्पीड़न का कई अवसरों पर शिकार होना पड़ा है। वरिष्‍ठ अधिकारियों व सहयोगियों द्वारा उत्पीड़न की कई घटनाएं सामने आयी हैं। सैन्य सेवा के अति अनुशासित कार्यक्षेत्र में भी ऐसी घटनाओं का होना निंदनीय है। भेदभाव व उत्पीडऩ के बावजूद महिलायें सेना के तीनों अंगों में अपनी क्षमता व मानसिक दृढ़ता का प्रदर्शन करते हुए महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। अमेरिका व इज़राईल सहित कई अन्य देशों में महिलायें युद्घक्षेत्र में बहादुर साबित हुई हैं। मौक़ा मिलते ही भारतीय महिलायें भी महारानी लक्ष्मीबाई की परम्परा का निर्वाह करने में पीछे नहीं रहेंगी।

राजनीति के कार्यक्षेत्र में प्रतिनिधित्व की दृष्‍टि से महिलायें आज भी उपेक्षा का शिकार हैं। संसद में महिला आरक्षण बिल पर दशकों तक किसी भी दल ने गंभीरता न दिखाकर पुरुष श्रेष्‍ठता की दक़ियानूसी मानसिकता का ही परिचय दिया। पुरुष सांसदों को अकसर यह ख़तरा महसूस होता रहा कि महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ने से सत्ता पर उनके नियन्त्रण की पकड़ ढीली हो सकती है। आज देश की संसद व विभिन्न प्रदेशों की विधानसभाओं में महिलाओं की संख्या नगण्य है। विभिन्न दलों द्वारा योग्य नेतृत्व देने में सक्षम होने के बावजूद महिला टिकट अभ्यर्थियों पर कम योग्य, कम उजली छवि वाले बाहुबली या अमीर पुरुष टिकट अभ्यर्थियों को वरीयता दी जाती है। राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए आज भी महिलाओं को भेदभाव व उत्पीड़न झेलते हुए अनेक अवसरों पर अपमान के कड़वे घूंट पीने पड़ते हैं। सफ़ेदपोश भेड़ियों से बचना, वास्तविक भेड़ियों से बचने से कहीं अधिक कठिन होता है। राजनीति के कार्यक्षेत्र में प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद सुषमा स्वराज, वृंदा करात, ममता बैनर्जी जैसी ज़मीन से जुड़ी जुझारू महिलाओं ने ऊंचा मुक़ाम हासिल किया है। आज भी राजनीति के क्षेत्र में उच्च पदों को सुशोभित कर रही महिलाओं की अल्प संख्या में से अधिकांश या तो कई पीढ़ियों से राजनीति से जुड़े परिवारों व राजघरानों से आती हैं या किसी अतिविशिष्‍ट राजनेता या अन्य विशिष्‍ट व्यक्‍ति से जुड़ी हुई है। राजनीति में आम, सक्षम व गुणी महिला की सक्रिय भागीदारी की बात अभी भी दूर की कौड़ी ही लगती है।

देश के श्रेष्‍ठ विज्ञान से सम्बन्धित व अन्य शोध संस्थानों में प्रत्यक्षत: भले ही महिलाओं के साथ भेदभाव न होता हो मगर अप्रत्यक्षत: वहां भी वे भेदभाव की शिकार हैं। इन संस्थानों में अनेक महिलायें वैज्ञानिक के रूप में या अन्य पदों पर कार्य कर रही हैं लेकिन इन संस्थानों के सर्वोच्च पद पर शायद ही किसी महिला को पहुंचने का अवसर मिला हो। देश में सी.एस.आई.आर. की 42 शोध प्रयोगशालायें व संस्थान हैं लेकिन उनमें से एक में भी निदेशक पद पर महिला नहीं है। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा। देश के सबसे बड़े वैज्ञानिकीय संगठन, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर आज तक केवल एक ही महिला प्रो.(डॉ.)अर्चना शर्मा चयनित हो पाई हैं।

शैक्षणिक क्षेत्र में यदि उच्च शिक्षा संस्थानों की बात की जाए तो वहां भी महिलाओं की श्रेष्‍ठता को अभी तक स्वीकारा नहीं गया है। स्वतन्त्रता प्राप्‍ति के बाद देश के विभिन्न विश्‍वविद्यालयों में कुलपति पद का दायित्व शायद ही किसी महिला शिक्षाविद को सौंपा गया हो। देश में मौजूद इक्का-दुक्का महिला विश्‍वविद्यालयों की महिला कुलपति अपवाद अवश्य है। वहां भी बाधयिता के बलते उन्हें कुलपति बनाया गया है। हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान सहित अनेक राज्यों में आज तक एक भी महिला को कुलपति पद के लिए योग्य नहीं समझा गया। जबकि विश्‍वविद्यालयों में अनेक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्‍त विदुषी महिलायें कार्यरत हैं। यह सीधे तौर पर महिला शक्‍ति व विद्वत्ता की उपेक्षा का मामला है। विश्‍वविद्यालयों के कुल सचिव व परीक्षा नियन्त्रक पदों पर भी आज तक इक्का-दुक्का अपवादों(प्रशासनिक अधिकारियों)को छोड़कर महिलाओं को कभी वरीयता नहीं दी गयी।

न्यायिक सेवाओं में भी महिलाओं को सर्वोच्च पद अभी तक प्राप्‍त नहीं हुए हैं। आज तक किसी भी महिला न्यायाधीश की नियुक्‍ति देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नहीं हुई है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में महिला न्यायाधीशों की संख्या नगण्य है। देश के विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों में न्यायमूर्ति लीला सेठ (हिमाचल उच्च न्यायालय) को छोडक़र किसी अन्य को शायद ही उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश बनने का अवसर प्राप्‍त हुआ हो। यह भी एक प्रकार का भेदभाव ही है।

औद्योगिक उपक्रमों में भी महिलाएं उपेक्षित हैं। विशेषकर प्रबन्धन के उच्च पदों पर आज भी पुरुष ही हावी हैं। भारतीय उद्योगों में से कुछेक में अगर महिलाएं सर्वोच्च पद पर हैं भी तो वे औद्योगिक घरानों की बहू-बेटियां ही हैं। उच्च प्रबन्धन संस्थानों से शिक्षा प्राप्‍त महिलाएं आज भी सर्वोच्च पदों के योग्य नहीं समझी जाती। भारतीय उद्योगों व कम्पनियों को अमेरिका की पेप्सिको कम्पनी से सबक़ लेना चाहिए जिसके सर्वोच्च पद पर बैठी भारतीय नारी इंदिरा नूई अत्यधिक दक्षता व समर्पण भाव से कार्य करते हुए कम्पनी को नई ऊंचाइयों की ओर ले जा रही है। अवसर मिलते ही अन्य सक्षम भारतीय महिलाएं भी भारतीय उद्योगों को शीर्ष पर ले जाने में सक्षम हैं।

भारतीय नारी की उपेक्षा व कार्यस्थलों पर उत्पीडऩ के लिए मात्र पुरुष वर्ग का स्वयंभू श्रेष्‍ठता की दंभी मानसिकता ही पूर्णत: दोषी हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। कतिपय कार्यस्थलों पर महिलाएं ही महिलाओं का शोषण व उत्पीड़न करने में पीछे नहीं हैं। कई संस्थानों में ‘येन केन प्रकारेण’ उच्च पदों पर पहुंची महिलाएं अपनी अधीनस्थ महिला कर्मचारियों को परेशान करने के ओछे हथकंडे अपनाते हुए मानसिक हिंसा में लिप्‍त रहती हैं। तानाशाही मानसिकता वाली ऐसी महिलाओं की संख्या यद्यपि नगण्य है।

विभिन्न कार्यक्षेत्रों में समर्पण भाव से कार्य करती और देश के विकास में हाथ बंटाती भारतीय नारी के प्रति भेदभाव व कार्यस्थलों पर उत्पीड़न पर लगाम कसने के लिए समाज की पुरुषवादी सोच में बदलाव लाये जाने की आवश्यकता है। आज आवश्यकता है नारी को मनुष्य के रूप में स्वीकारने की। भले ही संविधान में उसे बराबरी का दर्जा देते हुए समानाधिकार की बातें कही गई हैं लेकिन जब तक घर परिवार, आस-पड़ोस, गांवों-कस्‍बों, शहरों, खेतों, कारखानों सहित सभी कार्यस्थलों पर नारी को मनुष्य के रूप में नहीं स्वीकारा जायेगा, सामाजिक समानता के नारे, दावे व समय-समय पर बनाये गये नियम निरर्थक व भोथरे सिद्घ होते रहेंगे और राष्ट्रीय विकास में उल्लेखनीय भूमिका निभाती निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर भारतीय नारी पग-पग पर भेदभाव, उपेक्षा व उत्पीड़न के दंश झेलने को अभिशप्‍त होती रहेगी। सामाजिक मानसिकता में बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी है। सरकारी तंत्र इस समस्या के प्रति अपेक्षाकृत बेपरवाह है। 

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