– दीप ज़ीरवी

हिन्दी चलचित्र सत्ते पे सत्ता में एक गीत था कि ….

दुक्की पे दुक्की हो

या सत्ते पे सत्ता

ग़ौर से देखा जाए

तो बस है पत्ते पे पत्ता

कोई फ़र्क़ नहीं अलबत्ता

वह फ़िल्म थी, वह चलचित्र था भी हास्य प्रधान किन्तु भाषा हास्य अथवा उपहास का विषय नहीं, सौहार्द एवं गंभीर चिन्तन की मांग करती है भाषा।

मुझे पांडित्य का भ्रम नहीं, न ही मैं कोई व्याकरण हूं किन्तु भाषा के द्वार का दीप हूं जो बात मुझे कचोटती है वह आपकी सुधी पाठक वृंद की कचहरी में लेकर उपस्थित हूं।

प्रायः बोलचाल की हिन्दी को, भारत भाल की बिन्दी को तो हम बिगाड़ ही लेते हैं। हमारे समाचार पत्रों में यदा-कदा भ्रष्ट हिन्दी का लिखित स्वरूप भी दिखाई पड़ने लगा है।

अंग्रेज़ी के पुरोधा प्रचार करते हैं जगत् के साहित्य में अंग्रेज़ी सर्वेसर्वा है। किन्तु क्षमा सहित मैं यह विनती करना चाहता हूं कि उनके अनेक शेक्सपीयर मिलकर एक कालीदास नहीं हो सकते।

हिन्दी के सुधाकर को अधपढ़े अंग्रेज़ ही ग्रहण बन कर ग्रास रहे हैं। वह अंग्रेज़ी वाक्यों को शब्दशः अनुवादित करते हैं। ‘टेक इट’ का अनुवाद ‘खाइए जी’ नहीं करके ‘लीजिए न’ करते हैं। सूक्ष्म भाव से देखा जाए तो खाना और लेना भिन्न क्रियाएं हैं।

हिन्दी भाषा के जानकार मेरी एक शंका का निवारण करेंगे तो मैं उनका धन्यवादी रहूंगा कि अंग्रेज़ी-दां लोगों को हिन्दी/हिन्दुस्तानी देवताओं के नाम के पीछे ‘आ’ जोड़ने की आज्ञा किसने दी है? यह अंग्रेज़ी-दां लोग राम जी को रामा, कृष्ण जी को कृष्णा, शिव जी को शिवा एवं शंकर जी को शंकरा पुकारते हैं किन्तु कभी मुहम्मद और क्राईस्ट के साथ ‘आ’ की मात्रा जोड़ कर लिखा दिखाई देता होगा?? कदाचित् मैंने तो नहीं देखा।

सुधी व्याकरण वृंद जानते हैं शिव और शिवा में कितना भेद है। कृष्ण और कृष्णा में जो अंतर हिन्दी सुविज्ञजन जानते हैं वह भेद अंग्रेज़ी-दां क्या जाने।

एक वह हैं कि फेर रहे हैं गले पर छुरी।

एक हम हैं कि कराहते भी नहीं रोते भी नहीं।।

हिन्दी को हिंगलिश बनना कोई विद्युत निजी रेडियो टी.वी. से सीखे। अन्यत्र कहीं फ़र्क़ पड़े, अन्तर आए अथवा न आए किन्तु हमारी राष्ट्र भाषा के प्रदूषण का असर हमारे भविष्य पर अवश्य पड़ेगा।

दुक्की तो दुक्की है और सत्ता तो है सत्ता

ग़ौर से सोचा जाये यह नहीं मात्र कोई पत्ता

फ़र्क़ बहुत है अलबत्ता, बहुत फ़र्क़ है अलबत्ता।

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